— उमेश प्रसाद सिंह —
जब हिंदी की बात उठी थी, हिंद के लिए उठी थी। समूचे स्वाधीनता आंदोलन की अभिव्यक्ति के केंद्र में हिंदी थी। स्वाधीनता आंदोलन हिंद राष्ट्र के स्वाधीनता के संकल्प को उद्घोषित करने वाला आंदोलन था। हिंदी स्वाधीनता के उद्घोष का माध्यम बनी थी।
स्वतंत्रता के बाद स्वदेशी सरकार में स्वाधीनता की जो परिणति देखने को मिली, वही परिणति हिंदी के साथ भी है। जो लोग भाषा और जाति, भाषा और जन, भाषा और व्यवस्था को अलग-अलग मान कर विचार करते हैं, उनके निष्कर्षों के बारे में विवेचन करना बेमतलब है। इतिहास साक्षी है कि व्यवस्था में जिस भाषा को बोलने वाले जन की जो हैसियत होती है, वही हैसियत उसकी भाषा की भी होती है।
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय शासन-व्यवस्था में जिस जनवर्ग का वर्चस्व है, उनकी भाषा हिंदी नहीं है। हिंदी, हिंदी पढ़ाने वालों की भाषा नहीं है। हिंदी आजीविका के लिए हिंदी को अपनाने वालों की भाषा नहीं है। हिंदी अनुवादकों की भाषा नहीं है। हिंदी नौकरी की भाषा नहीं है। नौकरों की तो कत्तई नहीं है। पुरस्कार के प्रार्थी साहित्यकारों की भी भाषा नहीं है। मगर भ्रमवश इन्हीं को हिंदी का संरक्षक समझने की भूल होती रही है।
वस्तुतः हिंदी संकल्प और संघर्ष की भाषा है। मेहनत और ईमानदारी की भाषा है। वंचना के दर्द को सहने के साहस की भाषा है। स्वाधीनता में अडिग निष्ठा की भाषा है। राष्ट्रभक्ति की भाषा है। सहिष्णुता की भाषा है। बंधुत्व की भाषा है।
यह भाषा भारतीय राष्ट्र की आत्मा के प्रतीक किसानों की भाषा है। खेतों में धूप, वर्षा और जाड़े में समानभाव से अपनी तितिक्षा के बूते धरती का श्रृंगार करने वाले मजदूरों की भाषा है। बड़े-बड़े उद्योगों में अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए अपना पसीना बहाकर सभ्यता की समृद्धि के लिए सामग्री तैयार करने वाले श्रमिकों की भाषा है। अपने अंधविश्वासों के कारण झूठे आश्वासनों के झाँसे में आकर अपने मतदान से सरकार बनाने वाले अत्यंत साधारण लोगों की भाषा है।
इस देश की इस व्यापक साधारण जनता की हमारे देश की शासन व्यवस्था में क्या जगह है? क्या प्रतिष्ठा है? कैसी स्थिति है ? किसान आत्महत्या की मजबूरी ढोने को विवश हैं। मजदूर मरने से बचे रहकर काम करने की खातिर जीने भर खाने के हकदार बने हुए हैं। आज भी हमारे देश में गाँव का मतलब रहने के अयोग्य जगह है। किसान का अर्थ भूखा, गरीब और उपहास का आलंबन। अपढ़, अपमानित और उपेक्षित। मजदूर के मायने मत पूछिए। मजदूर का मतलब मरा हुआ जिंदा प्राणी। हमारे देश में जो स्थिति स्वाधीनता की है, बंधुत्व की है, ईमानदारी की है, राष्ट्रप्रेम की है, सहिष्णुता की है, वही स्थिति हिंदी की है। जो हैसियत किसान की है, मजदूर की है, आमजन की है, वही हैसियत हिंदी की है। ऐसा होना अस्वाभाविक कत्तई नहीं है। अगर हमें अस्वाभाविक लगता है, तो सिर्फ इसीलिए कि भाषा के संदर्भ में हम बहुत-सी अवास्तविक अवधारणाओं के शिकार हैं।
आज हमारे पास जो हिंदी है, वह समूचे हिंद जन के लिए नहीं है। वह हिंदी, हिंद जन की हिंदी नहीं है। हम जिस हिंदी की बात करते हैं, जिसके सम्मान के लिए संघर्ष की बात करते हैं, जिसके विकास के लिए हाथ जोड़कर याचना करते हैं, वह हिंद जन की हिंदी नहीं है। वह सरकारी छल की पोषक हिंदी है। हम जो हिंदी दिवस मनाते हैं, वह जन भाषा का जन पर्व नहीं है। वह सरकार की खिदमत में दरबारी चापलूसों का स्वांग पर्व है। इतने बड़े देश में राष्ट्र भाषा के सम्मान पर्व हिंदी दिवस में हिंद जन की कोई भागीदारी नहीं है।
हिंद जन हिंदी दिवस नहीं जानता। क्यों? इसलिए कि वह जो भाषा जानता है, समझता है, वह न थाना में है, न कचहरी में। न स्कूल में है, न अस्पताल में। न बैंक में है, न रेलवे में। कहीं नहीं है। न वह कहीं है, न उसकी भाषा। आज भी सरकारी कार्यवाही रजिस्टर में इस देश का आम जन गूंगा है। उसकी कोई भाषा नहीं है। फिर भाषा के सवाल में वह साझीदार कैसे हो? हिंदी दिवस में वह शरीक क्यों हो? उसके शरीक हुए बिना हिंदी दिवस का कोई अर्थ नहीं है।
भाषा के बारे में विचार करते हुए प्रायः हम इस सच को भूल जाते हैं कि भाषा की अस्मिता का आधार लिपि और वर्तनी नहीं है। लिपि और वर्तनी तो भाषा के बाहरी ढाँचे की पहचान भर हैं। भाषा का प्राणतत्त्व तो संवेदना है। भाषा का समूचा सरोकार संवदेना पर अवलंबित है।
हिंदी भाषा की संवेदना आज भी सरकारी कामकाज की हिंदी से निर्वासित है। संभवतः यही कारण है कि हिंदी के साथ दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध सहिष्णुता के संबंध नहीं बन सके हैं। हिंदी संवेदना अगर व्यवस्था में समादृत होती तो निश्चित तौर पर, बांग्ला संवेदना, ओड़िया संवेदना, तमिल संवेदना और तेलुगु संवेदना विलग और विरोधी न दिखाई देती। देशी संवेदना का समादर ही हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के सम्मिलन का, परस्पर समाहन का सबसे बड़ा आधार है, जिसकी उपेक्षा के कारण आत्मीयता और पारस्परिकता का विकास बाधित है।
जो लोग हिंदुस्तान से मारीशस, मलेशिया, बर्मा, सूरीनाम, सुमात्रा, त्रिनिनादऔर भी तमाम जगहों पर गए, वे भाषा के प्रचारक नहीं थे। वे सारे के सारे लोग काम-काज के सिलसिले में गए थे। उनके साथ हिंदी अनायास चली गई थी। वे भाषा का व्याकरण अपने साथ लेकर नहीं गए थे। भाषा की संवेदना लेकर गए थे। तुलसीदास के रामचरित मानस के गुटका के रूप में वह संवेदना उनके हाथों में थी, जो उनके हृदय में तो बसी ही थी। जैसे-जैसे व्यवस्था में उनकी संवेदना स्थापित हुई, हिंदी भी स्थापित हुई।
हमारे देश में स्वातंत्र्योत्तर व्यवस्था में देशी जन स्थापित नहीं हो सका। उसकी भागीदारी सिर्फ दिखावे और नारे की भागीदारी है। फलतः हिंदी भाषा का स्थान भी दिखावे और नारे में झूलता पड़ा है। किसी भी भाषा का गौरव उस भाषा-भाषियों के गौरव से भिन्न नहीं हो सकता।
हमारे देश में राजनीति के केंद्र में सत्ता हथियाने की होड़ में स्थापित हो जाने के कारण तमाम सवालों के शक्ल बदल दिए गए हैं। समस्याओं को नकली रंग-रूप में सजाने-सँवारने का बाकायदा अभियान चलाया जा रहा है। समस्याएँ हमारे यहाँ हल करने के लिए नहीं रह गई हैं, राजनीतिक लाभ भुनाने का साधन बन गई हैं। उन्हीं में एक मुद्दा राष्ट्रभाषा का भी है।
किसी भी भाषा का संरक्षण, संवर्धन भाषा आयोगों के गठन पर निर्भर नहीं होता। सरकारी उपक्रमों में हिंदी अनुभागों की कार्यवाहियों पर भी अवलंबित नहीं होता। हिंदी के लिए राष्ट्रभाषा का सम्मान देने का पहला कदम हिंदी को समूचे हिंद राष्ट्र के हित की भाषा के रूप में विकसित होना होगा। हिंदी को समस्त भारतीय भाषाओं के साथ सहिष्णुता और सहअस्तित्व का सबंध निर्मित करना होगा। जाहिर है कि यह केवल राजनीतिक अभिक्रम के सहारे संभव नहीं है।
हिंदी दिवस आता रहेगा, जाता रहेगा। सरकारी उपक्रमों में मनता रहेगा। हम या तो शोकसभा की तरह मुर्दनगी में मर्सिया पढ़ते रहेंगे या तो हिंदी सेवा की झूठी शेखी बघारते रहेंगे। जब तक हिंदी दिवस सरकारी प्रतिष्ठानों के दरवाजे लाँघकर, गाँवों में, खेतों-खलिहानों में, बाजारों में, सड़कों पर अपनी जगह नहीं पा लेता तब तक वह रस्म ही बना रहेगा। हमें हिंदी का समुचित सम्मान इस देश के व्यापक जनवर्ग की अस्मिता के सम्मान के साथ जोड़ने के लिए नए सिरे से जागरूक होना होगा। हमारी हिंदी सेवा का संकल्प तभी सार्थक हो सकेगा। हमारा राष्ट्रगौरव, राष्ट्रीय जन के गौरव और राष्ट्रभाषा के गौरव से भिन्न नहीं है।