राकेशरेणु की कविताएं

0
पेंटिंग : अनिल शर्मा


अफ़गानिस्तान 

उस पर्वतीय रेगिस्तान में कुछ नहीं था
धूसर रंग के सिवा
वहाँ धीरे-धीरे साँझ उतर रही थी
धूसर को और धूसर, गहरा करती।

सूरज की किरणों ने जाने कब विदा ले ली थी
वहाँ उम्मीद की हरियाली दूर-दूर तक न थी।

जल जीवन रौशनी न थी वहाँ
अप्सराओं की कथाएँ सब इसी ज़मीन से निकलीं
लेकिन ये गुज़रे ज़माने की बात थी।

अप्सराएं सब नर्तन के बजाय
अनाम गुफाओं में छिप गई थीं डरी-डरी।
बाक़ी भेड़ें बना दी गई थीं
बाड़े में क़ैद बच्चे जनतीं।

उन्हें बार-बार गर्भ ठहरता बार-बार प्रसव होता
मेमने धर्मयुद्ध और कच्चे गोश्त के लिए तैयार किए जाते।

गो कि वे दुनिया के ऊँचे मचान पर थीं
उनकी चीख कहीं सुनाई न देती।

ख़ुश और हँसते हुए लोग सब गुम हो गए थे
सिर्फ़ भय था चतुर्दिश फैला हुआ।

ख़तरा इस बात का था कि उसका हमशक्ल
अब हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा था।

श्रीलंका

जब चीखें सुनाई दे रही थीं
दुनियाभर में
जब सब कह रहे थे कि डूब गया द्वीप
अरब सागर में
डूबते लोगों ने बताया हुनर तैरने और जूझने का
अपनी चीखों के साथ कहा
राष्ट्रीयताओं और धर्मों की नहीं
नागरिकों की बात करो
फ़रीकों को ऊपर नीचे नहीं बराबर समझो
मान रखो सबका अवसर इज़्ज़त
तमिलों मुसलमानों ईसाइयों बौद्धों में न बाँटो देश

बँटा हुआ देश आगे नहीं बढ़ता, ठहर जाता है
झंझावातों को झेलना कठिन होगा बँटे हुए देश के लिए
इसलिए बाँटो नहीं, सबको लिये साथ चलो।

बची रहेंगी अच्छाइयाँ

न जल में न थल में न वायु में न अग्नि में
मृत्यु कहीं से न आए
न खड्ग से न बल से न मल्ल से
जिसने अमरता का वरदान माँगा
वह भी न रहा।

न रहा वह भी जिसके प्राण नाभि में थे
दशानन था जो मारा न जा सकता था जिसे किसी भाँति
वह भी न रहा।

जिनने दुर्ग बनाए ऊँची पहाड़ियों पर
ख़ंदकें खोदीं चौड़ी गहरी दुर्गों के इर्द-गिर्द जीवनभर
आखिरकार वे भी चले गए न रहे।

नष्ट हो जाएँगे वे सब आदमी से नफ़रत करने वाले
जानता हूँ उनके नष्ट होने से बुरी चीज़ों का नाश नहीं होगा
जैसे समाप्त नहीं होंगे कभी दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने वाले
अच्छाइयों का कभी अंत नहीं होता।

बची रहेंगी अच्छाइयाँ
बची रहेगी ख़ूबसूरती दुनिया की
किसी के मारे न मरेंगी वे।

पेंटिंग : पंकज पाल

घर : एक

जब मिस्त्री ने कहा कि ईंटें कच्ची हैं
वे दौड़े-दौड़े गए ईंट भट्टे वाले के पास
कहा अच्छी पकी ईंटें दो
ताकि मेरे बाद मेरे बच्चों के काम आये घर।

जब मिस्त्री ने कहा सीमेंट पुराना है, थोड़ा बेहतर हो
वे दौड़े पसीनाए पहुँचे
सीमेंट व्यापारी के पास
कहा, पैसे लेते हो तो अच्छी चीज दो
ताकि घर मजबूत बन सके
ताकि मेरे बाद बच्चों के काम आए।

धूप में पसीनाए गए वे टाल की दुकान में
गोदाम में घूमते रहे अच्छी पकी लकड़ी की तलाश में
उन्हें टिकाऊ चौखट-दरवाजे बनाने थे
जो पीढ़ियों का साथ दें पीढ़ियों तक
इस तरह बना घर।

फिर एक दिन वे बड़ी-बड़ी मशीनें लेकर आए
कहा, तुम्हारा घर तुम्हारा नहीं है
तुम्हारी जमीन तुम्हारी नहीं
तुम्हारे परदादा यहाँ के नहीं थे
तुम मेरे जैसे नहीं
बस्ती में तुम्हारे घर के लिए जगह नहीं
और उन्होंने ढहा दिया घर।
जिस घर को बनाने में रीत गई पीढ़ियाँ
वह हमारी आँखों के सामने कराहता गिरा
ऐसे जा बैठा जमीन पर जैसे उसका कोई घुटना न हो
उसकी जाँघें न हों, एड़ियाँ, उँगलियाँ नहीं

जैसे रेत में दबा दिए गए हजारहा शव
ठीक वैसे ही दबा दिया गया घर रेत में।

घर : दो

यह नानी की स्मृतियों का घर है
माँ के बचपने का घर
घर के साथ ढहा दी गईं
नानी की स्मृतियाँ,
माँ के बचपन की किलकारियाँ
घर के साथ ढहा मैं, ढहा देश।
जो घर न रहा
तो देश का क्या होगा !
धीरे-धीरे घर की तरह ढहाया जा रहा है देश ।

घर : तीन

एक कवि ने ईंट पर कविताएँ लिखीं
सीमेंट और गारे पर कविताएँ लिखीं
घर बनाने में महारत हासिल थी उसे।

कुछ कवियों ने ईंट ढोने वालों
और राजमिस्त्रियों पर कविताएँ लिखीं
दीवारों पर कविताएँ लिखीं अनेक कवियों ने
किवाड़ों और चौखटों पर भी।

घर पर लिखीं कविताएँ सबने
कवि पुरसुकून थे
घर की खूबसूरत स्मृतियाँ थीं उनके पास
उनके घर ढहाये नहीं गए थे।

इनमें से कुछ ने बुलडोजर पर कविताएँ लिखीं
उन दिमागों पर लिखीं कविताएँ
जो बुलडोजर की तरह विध्वंस रचते हैं।

पेंटिंग : विजेन्द्र

बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद घर से बाहर निकला
चलने पर पैरों पर भरोसा हुआ
बहुत दिनों बाद खुलकर बात की
यकीन हुआ कि गूँगा नहीं हुआ गूँग महल में रहकर
बहुत दिनों बाद खेत की मेड़ पर दौड़ लगाई
ढेले से टिकोले तोड़े बहुत दिनों बाद
पैरों पर हाथों पर अपने निशाने पर भरोसा हुआ
बहुत दिनों बाद
एक स्त्री को बोझ उठाने में मदद की
बहुत दिनों बाद किसी के काम आया
बहुत दिनों बाद थोड़ा मनुष्य हुआ।

बहुत दिनों बाद मड़ुवे की रोटी खाई
झींगा मछली के साथ
बहुत दिनों बाद खेत में साग टूँगे
अमरूद के पेड़ पर मुश्किल से चढ़ा ख़ुश हुआ
बहुत दिनों बाद कुएँ से पानी निकाल कर पीया
जो बचा रहा नलकूपों के बावजूद
बदले में पनिहारन ने मुस्कुराते हुए देखा
बहुत दिनों बाद थोड़ा ज़िंदा हुआ।

मैं कौन

माँ के गर्भ में रहा
पिता को पहचानता न था
लेकिन मुझे पिता का नाम दिया गया
एक ख़ास भाषा में बोला जाने वाला
जो दुनिया के बाक़ी हिस्सों के लिए कौतूहल ही रहा।

वह धरती मैंने नहीं चुनी
जहाँ माता जीवनपर्यंत रहीं
जहाँ मेरा जनम हुआ
दुनिया के बाक़ी हिस्सों से काट
मुझे उस धरती का नागरिक कहा गया।

जब जनम हुआ मेरा
एक आज़ाद मनुष्य था
फिर मुझे उन्होंने एक जाति दी जो मैंने कभी माँगी न थी
धर्म दिया जो कभी मेरा न हुआ।

इस तरह छीनी गई आज़ादी
इस तरह मुझे बाँधने की कोशिशें हुईं
उन सब बंधनों को तोड़ता हूँ
मैं विश्व नागरिक मैं मनुष्य होना चाहता हूँ।

Leave a Comment