सन 1977 में लिखी गई इस टिप्पणी की याद दिलाना प्रासंगिक होगा- इसलिए कि आपातकाल और जेपी आंदोलन से संबंधित घटनाओं की कड़ी आज तक चली आ रही है। अगर आज कोई कहेगा कि समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल के दोनों धड़े एक बड़ी पार्टी बनाकर उसमें विलीन हो जाएं तो यह प्रस्ताव विश्वसनीय नहीं होगा। लेकिन 1977 में जनसंघ (इस वक्त की भाजपा), संगठन कांग्रेस और समाजवादी पार्टियों का विलयन होकर एक जनता पार्टी बन गई थी। परिस्थितियाँ इन सारे दलों के लिए प्रतिकूल थीं। फिर भी परिस्थितियों से अपने-आप यह प्रस्ताव पैदा नहीं हो सकता था। एक सक्षम नेतृत्व ने परिस्थितियों को एक दबाव के रूप में इस्तेमाल कर विभिन्न दलों को एक नई दिशा अपनाने के लिए बाध्य किया। इस दबाव के पीछे जयप्रकाश नारायण के दो लक्ष्य थे– एक तात्कालिक और एक दीर्घकालिक। आपातकाल और अत्याचारी कांग्रेसी हुकूमत को चुनाव में खतम करना तात्कालिक लक्ष्य था। यह एक विडंबना है कि अधिकांश लोगों को सिर्फ यह तात्कालिक लक्ष्य ही दिखाई दिया। छोटे और बड़े राजनेता में फर्क यह होता है कि किसी संकट की स्थिति से बचने के लिए छोटा राजनेता जो करता है वह सिर्फ बचाव की एक रणनीति होती है। लेकिन दूरद्रष्टा नेता संकट से बचाव के लिए जो करता है उसकी रणनीति में सुदूर भविष्य के लक्ष्य का भी एक हिसाब-किताब रहता है। इन्दिरा गांधी की गैर-लोकतांत्रिक नीतियों के विरुद्ध उभरे जन-आक्रोश को संगठित करने के लिए जेपी ने जनसंघ और उससे संबंधित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी सहयोग लिया। इसके लिए उनकी आलोचना भी कसकर हुई थी। लेकिन जेपी की अपनी रणनीति थी। देश की राजनीति में सुधार लाना उनका घोषित लक्ष्य था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ (भाजपा) के चरित्र में सुधार लाना भी उनका घोषित उद्देश्य था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का द्वार गैर-हिंदुओं के लिए खुलना चाहिए– यह बहस हिंदुत्ववादियों में चलने लगी थी। जेपी ने इतना तो करके दिखाया कि एक अरसे के लिए देश की दलीय राजनीति में हिंदू सांप्रदायिकता की स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति लुप्त हो गई थी।
जेपी का अगला कदम था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामाजिक चरित्र को संशोधित करना क्योंकि वे इतना तो जानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सुधारे बिना जनता पार्टी में जनसंघ (भाजपा) के विलयन को स्थायी नहीं माना जा सकता है। उन दिनों हम लोग जेपी की रणनीति का साथ दे रहे थे तो हमारी यह टिप्पणी उसी उद्देश्य से लिखी गई थी। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से हमलोग हाशिए पर थे जैसे कि अभी भी हैं। जो ताकतवर थे वे चुनावी जीत के बाद जेपी को असुविधाजनक समझकर उनसे दूरी बनाने लगे। इसलिए जेपी की रणनीति की बारीकियाँ उन्हें समझ में नहीं आईं। या फिर दीर्घकालीन लक्ष्यों से उनकी राजनीति का सरोकार ही नहीं था। सबसे ज्यादा बुद्धिहीनता का काम समाजवादियों ने किया। इन लोगों ने एक तरफ तो कम्युनिस्टों से प्रभावित होकर जनसंघ विरोधी मुहिम शुरू कर दी और दूसरी तरफ मोरारजी-चरणसिंह द्वंद्व को बढ़ाने की कांग्रेस की राजनीतिक चाल को आगे बढ़ाया। परिणाम यह हुआ कि जेपी की रणनीति पर अमल करनेवाला कोई समूह जनता पार्टी के अंदर नहीं रहा। सही रणनीति यह होती कि (क) जनता पार्टी के सरकारी और दलीय नेता जेपी से अंतरंग संपर्क रखते, (ख) शासन में कुछ उल्लेखनीय कार्यों के द्वारा सरकार के लिए लोकप्रियता अर्जित करते और (ग) देश की राजनीति के गैर-सांप्रदायिककरण की बहस को रचनात्मक और बौद्धिक ढंग से चलाकर हिंदुत्व की राजनीति का कायापलट करते। जेपी के नैतिक दबाव को प्रभावशाली बनाने के लिए राजनीतिक माहौल पैदा करना जनता पार्टी के नेतृत्व का दायित्व था– खासकर उनका जिनकी पृष्ठभूमि समाजवादी थी और जेपी के प्रति जिनका स्वाभाविक लगाव होना चाहिए था।
(उपर्युक्त टिप्पणी किशन जी से उनकी किताब ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’के लिए लिखवाई गयी थी, जो उन्होंने 2002 में लिखी थी। इस टिप्पणी के बाद, नीचे दिया गया किशन जी का लेख, और ‘सामयिक वार्ता’ पत्रिका द्वारा पूछे गए प्रश्नों पर जेपी का जवाब, वार्ता के 16 सितंबर 1977 के अंक में प्रकाशित हुए थे। किशन जी की किताब, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ में यह संकलित है। आरएसएस और जेपी को लेकर चलनेवाली बहस के संदर्भ में यह लेख और जेपी से लिखित प्रश्नोत्तर बेहद महत्त्वपूर्ण है।)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विद्यार्थी परिषद को लेकर जनता पार्टी में एक विवाद खड़ा हुआ है। इस विवाद का एक अस्वस्थ पहलू भी है। कुछ घटकों को यह डर हो गया है कि जनसंघ अलग युवा और विद्यार्थी संगठन बनाकर जनता पार्टी पर हावी हो जाएगा। इस प्रकार का हौवा खड़ा कर जो विवाद उठ रहा है उसके पीछे कुछ हद तक ईर्ष्या और नपुंसकता है। हम अपने को इस विवाद से अलग रख रहे हैं।
हम विद्यार्थी परिषद तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में बृहत्तर राष्ट्रीय सवाल खड़ा करना चाहते हैं, जो लोकतंत्र तथा क्रांति के लिए प्रासंगिक और जरूरी है। जेपी ने सामयिक वार्ता द्वारा पूछे गए संघ संबंधी प्रश्नों के जो लिखित जवाब भेजे हैं उनसे यह सवाल उजागर होता है (जेपी का प्रश्नोत्तर इस लेख के बाद छापा जा रहा है)। इस सवाल को स्पष्ट रूप से पेश करने के लिए हम इसे क्रमवार ढंग से लिख रहे हैं :
(1) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राष्ट्रीय संगठन है। इसके महासचिव माधव राव मुले के अनुसार यह किसी का (या किसी धर्म–विशेष का) स्वयंसेवक दस्ता नहीं है और न विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन ही है। यह एक ‘महान सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन’ है और इसका उद्देश्य है ‘अस्पृश्यता, जातीयता, सांप्रदायिकता, प्रांतीयता और भाषा की संकीर्णता को मिटाना तथा राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करना।’ मुले के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि सत्ता की राजनीति से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भले ही प्रत्यक्ष संपर्क न हो, लेकिन बृहत्तर अर्थ में इसका उद्देश्य सामाजिक-राजनैतिक है। बिहार आंदोलन, इमरजेंसी और मार्च के चुनाव में जिस बड़ी संख्या में राष्ट्रीय संवयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सक्रिय हुए थे उससे यह स्पष्ट है। यह कोई शर्म या इनकार करने की बात नहीं है, बल्कि सत्ता की लड़ाई में न रहकर राजनीति में बृहत्तर उद्देश्यों को अपनाना एक सराहनीय बात है।
(2) बिहार आंदोलन तथा तानाशाही विरोधी आंदोलन में शामिल होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विद्यार्थी परिषद सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक मुख्यधारा से जुड़ गए थे। ऐसा कहना संघ या परिषद की अवमानना नहीं है क्योंकि यह बात केवल संघ या परिषद के लिए नहीं, सारे संगठनों के लिए लागू होती है। समाजवादी लोग भी जड़ता और संकीर्णता के दौर से गुजर रहे थे- देश की मुख्य समस्याओं और चुनौतियों के सामने अप्रासंगिक बन रहे थे। अपने में सीमित होकर संघ और परिषद भी संकीर्ण और अप्रासंगिक थे। जेपी के नेतृत्व, बिहार आंदोलन के नये क्षितिजों से यह संकीर्णता मिटने लगी थी और सारे देश में एक नया लोक-प्रवाह बनने लगा। संघ और परिषद के हजारों नौजवानों के मन पर संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य अंकित हुआ और क्रांति के ऐसे पहलुओं पर सोच-विचार में ये लोग शरीक हुए, जो उनके लिए एक नया अनुभव था। इससे सोच और बहस की प्रक्रिया चली।
जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में, 6 मार्च, 1975 के जन-पत्रक में और बहुत सारे दस्तावेजों में इसका परिणाम समाविष्ट है। यह गैर-कांग्रेसी धारा भारत की मुख्यधारा की द्योतक है। अगर ‘आरगेनाइजर’ बड़ी सुर्खियों में यह घोषित करता है कि विद्यार्थी परिषद का मूलमंत्र जेपी की संपूर्ण क्रांति है, अगर ‘पांचजन्य’ इसलिए आतुर है कि जेपी किसी गुट-विशेष के नेता न रहकर सारे देश के नेता बने रहें, अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संचालक अपने संघ में गैर-हिंदुओं के प्रवेश के बारे में राजी होकर विचार करने लगे हैं तो फिर यह बात विवादास्पद नहीं रह जाती है कि संघ और परिषद देश की मुख्यधारा से प्रभावित होकर परिवर्तन की एक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
(3) अभी जनता पार्टी के लोगों को, जेपी को और अन्य युवा संगठनों को यह लगता है कि विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिर से अपनी पुरानी संकीर्णता में ले जाने की कोशिश हो रही है तो संघ या परिषद के संचालकों को चिढ़ नहीं होनी चाहिए। यह आशंका अकृत्रिम और निष्कपट है। युवा जनता और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के नौजवानों को यह चिंता है कि अगर संघ और परिषद अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगेंगे तो फिर अलगाव और टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है। बिहार आंदोलन के दौरान आपसी लेन-देन-टकराव के जरिए ही युग की चुनौतियों का सामना करने के लिए जो सम्मिलित प्रयास हो रहा था, वह रुक गया है। यह आशंका इसलिए भी होती है कि दूसरे युवा संगठनों की दिशा और नीति प्रस्तुत करने में नौजवानों की ही भूमिका रहती है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन की नीतियों के निर्धारण में नौजवानों की भूमिका नहीं रहती। जब हम यह लिख चुके थे तो विद्यार्थी परिषद के मुख्य संगठक हमसे बात करने आए। उनका एक आरोप हमें बहुत जँचा। विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों के हाल के चुनाव के संदर्भ में उन्होंने आक्षेप किया कि ‘संघ’ या ‘परिषद’ पर सांप्रदायिकता का आरोप लगानेवाले संगठनों के लोग जब जातीयता का संगठन करने लगते हैं तो दोनों में कौन ज्यादा संकीर्णतावादी माना जाएगा? यह सवाल बिलकुल वाजिब है और हम चाहेंगे कि इस प्रकार की संकीर्णता को हटाने के लिए विद्यार्थी परिषद और अन्य छात्र संगठनों के बीच विचार और बहस हो।
(4) अलगाव और संकीर्णता खत्म करने के कई उपाय हो सकते हैं। जनता पार्टी के कुछ लोग कहते हैं कि विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों का जनता पार्टी से संबंधित संगठनों के साथ विलयन हो जाना चाहिए। इसके बारे में संघ या परिषद की एक आपत्ति हो सकती है। माधव राव मुले ने इस पर आपत्ति की है कि सब प्रकार के संगठनों को जनता पार्टी के अंतर्गत कर देना स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के खिलाफ है। हम इस तर्क को ठीक मानते हैं। आज भी माँग करते हैं कि जनता पार्टी से संबंधित जितने छात्र-युवा और मजदूर संगठन हैं, वे पार्टी के अनुगामी संगठन न बनें- समान लक्ष्य में सहयोगी, लेकिन स्वायत्त संगठन के रूप में उनका विकास हो। अगर विभिन्न युवा या मजदूर संगठनों को मिलना है तो स्वायत्तता की शर्त अधिक जरूरी हो जाती है। उस अनुपात में ‘संघ’ या ‘परिषद’ की भी विलयन पर आपत्ति घट जानी चाहिए।
विलयन का भी विकल्प है, जेपी के उत्तर में (जो इस लेख के साथ दिया जा रहा है) यह स्पष्ट है। अगर कुछ कारणों से अन्य युवा संगठनों के साथ विलयन संभव नहीं है तो समान लक्ष्य एवं कार्यक्रम का एक व्यापक आधार बनाने की कोशिश अविलंब होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन को न सिर्फ गैर-हिंदुओं के लिए अपना दरवाजा खोल देना चाहिए, बल्कि उसके उच्चतम ओहदों पर शूद्र, हरिजन, ईसाई और मुसलमान प्रतिनिधियों को जगह मिलनी चाहिए। यह वक्त और इस जमाने की मुख्यधारा का तकाजा है। हिंदू-राष्ट्र निश्चय ही एक प्राचीन शब्द हो गया है। जनसंघ, विद्यार्थी परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के औसत कार्यकर्ता संगठन की अंदरूनी बैठकों में किन शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं, हम नहीं जानते, लेकिन उनके मुँह से सार्वजनिक स्थानों पर ‘भारतीय राष्ट्र’ ही निकलता है। हिंदू-राष्ट्र की अवधारणा पुरानी, कृत्रिम, अप्रासंगिक हो गई है। इसलिए इसको लादने की कोशिश छोड़कर, भारतीय राष्ट्र का लक्ष्य बनाकर भारतीयता को उदार दृष्टिकोण से परिभाषित करना होगा और उसके साथ-साथ भारत के इतिहास के बारे में संघ के किशोर स्वयंसेवकों को जो शिक्षण दिया जाता है, उसमें उदारता लानी होगी।
ये सारी बातें सार्वजनिक हैं, किसी संगठन का अंदरूनी मामला नहीं है क्योंकि संघ एक सार्वजनिक संगठन है, राष्ट्र के लाखों नौजवान इसमें लिये जाते हैं और उनको एक प्रकार के शिक्षण से दीक्षित किया जाता है। उनको समाज और इतिहास के बारे में कैसी शिक्षा दी जाती है- यह एक सार्वजनिक चिंता का विषय है। हिंदुस्तान जैसे मुल्क में फिरकापरस्ती और जातीयता बहुत आसानी से कामयाब हो जाती है। क्या यह उचित नहीं होगा कि सबकी सहमति से एक मान्यता यह बने कि कोई भी सार्वजनिक संगठन किसी एक जाति या धर्म में सीमाबद्ध न हो। हम उनमें से नहीं हैं जो प्रतिबंध की माँग करते हैं। इस समय कानून बनाना भी ठीक नहीं होगा, लेकिन बहस से एक राष्ट्रीय सहमति का विकास हो सकता है कि हिंदुस्तान का कोई भी संगठन एक जातिवाला, एक धर्मवाला न हो। आंशिक राष्ट्रीयता का लक्ष्य उसमें न हो।
संघ और परिषद को चलानेवाले लोग इस बहस को अपने अंदर तथा सबके साथ चलाएंगे- इसी उम्मीद से जेपी के महत्त्वपूर्ण विचारों के साथ-साथ हमने उपर्युक्त मुद्दे प्रस्तुत किए हैं।
(सितंबर, 1977)
जेपी के उत्तर
जनसंघ के जनता पार्टी में विलयन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की क्या भूमिका होगी? यह सवाल जनता पार्टी के अंदर उठ चुका था। अगर जनता पार्टी से संबंधित युवा संगठनों में उनका विलय नहीं होता तो उनके विधान और उद्देश्यों में क्या परिवर्तन हों- इन सवालों के लिखित उत्तर जयप्रकाश नारायण ने ‘सामयिक वार्ता’ के लिए सितंबर 1977 के पहले सप्ताह में दिए। यहाँ इस प्रश्नोत्तर को छापा जा रहा है। – वार्ता संपादक
प्रश्न : आपके आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के साथ भाग लिया। जनता पार्टी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक अंग अर्थात जनसंघ तो शामिल हो गया है। लेकिन वह खुद तथा अ.भा. विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ अपनी अलग हैसियत बनाए हुए हैं। ये जनता पार्टी के युवा, छात्र और मजदूर आदि संगठनों में मिलने से इनकार कर रहे हैं। क्या आपको यह नहीं लगता है कि इससे पार्टी की एकता की भावना कमजोर होती है? क्या आपके आंदोलन में शामिल होनेवाले लोगों को, जिन्होंने इमरजेंसी के वक्त बहुत कष्ट सहे, एकता को सबसे ज्यादा महत्त्व नहीं देना चाहिए?
जेपी : इससे निश्चय ही (एकता) कमजोर होगी। मैं आशा करता हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन, जनता पार्टी के जो विभिन्न संगठन बन रहे हैं, उनमें शामिल होंगे। अगर वे शामिल नहीं हुए तो आगे फूट और झगड़े की बहुत ज्यादा आशंका रहेगी।
प्रश्न : क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में देखते हैं? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं कि आपने उसके बारे में एक समय इससे भिन्न मत प्रकट किया था।
जेपी : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन मानना मुश्किल है।
प्रश्न : आपने बंबई में 21-22 मार्च 1976 को एक अकेली संयुक्त पार्टी बनाने के उद्देश्य से संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोक दल, सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों तथा कुछ व्यक्तियों की बैठक बुलाई थी। इस बैठक में आपने जनसंघ के प्रतिनिधि को काफी कड़ाई से पूछा था कि वे जेल में क्या अलग शाखाएँ चलाते हैं? क्या आपकी अभी भी यही राय है?
जेपी : मेरी अभी भी यही राय है।
प्रश्न : अगर ऐसा है तो क्या आप यह मानते हैं कि रा.स्व.संघ को अब एक अलग संगठन के रूप में बने रहना और शाखा लगाते रहना चाहिए?
जेपी : मुझे बदली हुई परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक अलग संगठन रूप में बने रहने का औचित्य जान नहीं पड़ता।
प्रश्न : ‘बिहारवासियों के नाम चिट्ठी’ में आपने लिखा है “मैंने (जयप्रकाश जी ने) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आंदोलन की सर्वधर्म समभाव वाली धारा में लाकर सांप्रदायिकता से मुक्त करने की कोशिश की है।” आपने यह दावा भी किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग कुछ हद तक बदले भी हैं। क्या आप यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू-राष्ट्र के विचार को त्याग दिया है? आपकी और गांधीजी की भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा से बुनियादी रूप में भिन्न है। अगर यह बात ठीक है तो यह भिन्नता कैसी है? अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके अन्य संगठन हिंदू-राष्ट्र के अपने विचार पर अटल रहते हैं तो क्या इससे भारतीय राष्ट्र और देश सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए एक हो पाएगा?
जेपी : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं से अपने संपर्क के दौरान मुझे निश्चय ही उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन नजर आया। उनमें अब अन्य समुदायों के प्रति शत्रुता की भावना नहीं है। लेकिन अपने मन में वे अभी भी हिंदू-राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते हैं। वे यह कल्पना करते हैं कि मुसलमान और ईसाई (जैसे अन्य समुदाय) तो पहले से ही संगठित हैं जबकि हिन्दू बिखरे हुए और असंगठित हैं और इसलिए वे हिंदुओं को संगठित करना अपना मुख्य काम मानते हैं। रा.स्व.संघ के नेताओं के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना ही चाहिए। मैं यही आशा करता हूँ कि वे हिंदू-राष्ट्र के विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्र के विचार को अपनाएंगे।
भारतीय राष्ट्र का विचार सर्वधर्म समभाववाली अवधारणा है और यह भारत में रहनेवाले सभी समुदायों को अंगीकार करता है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को भंग नहीं करता और जनता पार्टी द्वारा गठित युवा या सांस्कृतिक संगठनों में शामिल नहीं होता तो उसे कम-से-कम सभी समुदायों के लोगों, मुसलमानों और ईसाइयों को अपने में शामिल करना चाहिए। उसे अपने संचालन और काम करने के तरीकों का लोकतंत्रीकरण करना चाहिए और सभी जातियों और समुदायों के लोगों, हरिजन, मुसलमान और ईसाई को अपने सर्वोच्च पदों पर नियुक्त करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।
(सामयिक वार्ता, 16 सितंबर 1977)