(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
प्राचीन जोरोस्टर धर्म में अच्छाई और बुराई के द्वैत के सिद्धांत को शाश्वत रूप में माना जाता था। एक-ईश्वरवाद को माननेवाले लोगों के लिए वह विचार हेय था। फिर भी मैगाई धर्म के विश्वासों के प्रति विजयी अरब लोगों ने सहनशीलता दिखायी। हिजरी की तीसरी सदी तक अग्नि का विशाल मंदिर खड़ा था और उसके समीप एक छोटी मस्जिद थी। प्राचीन धर्मों के गौरवशाली भवनों को इस्लाम की तलवार ने नष्ट नहीं किया, वरन् उनके अनुयायियों द्वारा उनको छोड़ देने के कारण उपेक्षा से वे नष्ट हो गये। कितना ही दमन और अत्याचार पूरे राष्ट्र को अपने परंपरावादी धर्म को छोड़ने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। बिना किसी प्रतिरोध के फारस के लोगों ने विजेताओं के धर्म को स्वीकार कर लिया और तिरगिस से ओक्सस नदी के किनारों तक इस्लाम फैल गया। वहाँ का प्राचीन धर्म जर्जर हो गया था और उससे सभ्य लोगों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को संतोष नहीं मिलता था। खारीमन की आतंकित करनेवाली छाया ने ‘सूर्य और अग्नि’ की चमक को खत्म कर दिया था। फारस की जनता ने मुहम्मद के एक-ईश्वरवाद के धर्म को अपनाकर शैतान की शाश्वत निरंकुशता से अपने को मुक्त माना था।
उत्तरी अफ्रीका में सिकंदरिया से कार्थेज तक का क्षेत्र ऐसा था जहाँ इस्लाम के प्रचार से ईसाई धर्म नष्ट हो गया था। वहाँ की धार्मिक क्रांति के लिए इस्लाम की असहनशीलता उतनी जिम्मेदार नहीं थी जितना उस धर्म का स्वतः अधःपतन और वहाँ अव्यवस्था और अंधकार की-सी स्थिति का उत्पन्न होना। ईसा के धार्मिक उपदेशों का विश्वास साइप्रियन योग्यता, दया और शक्ति के आधार पर अथानासियस और अगस्टाइन ने स्थापित किया था, उसको अरियन और डोनाटिस्ट के विरोधी विचारों और कैथोलिक क्रोध ने नष्ट कर दिया और साधारण जनता ने धार्मिक विरोध का झंडा खड़ा कर दिया था और विरोधी विचारों के कारण सभी संपन्न क्षेत्रों में दरिद्रता फैल गई थी। उसके बाद वेंडल और मूर लोगों के आक्रमणों से लोगों की स्थिति खराब हो गई और उन्हें बाध्य होकर ईसाई मतवाद में शरण लेनी पड़ी।
सामाजिक विघटन और आध्यात्मिक निराशा के घोर अन्धकार के युग में अरब के मसीहा ने शौर्य और नई आशाओं की मशाल जलाकर अंधकार को दूर किया। सामान्य लोगों के लिए नए धर्म ने इस संसार और बिहिश्त की आशाओं के दरवाजे खोल दिए। इस्लाम की विजय के बिगुल ने उन आत्माओं में आशा जाग्रत की जो आध्यात्मिक रूप से अपने को पराजित मानकर ईश्वरीय अस्तित्व के संबंध में पाखंडों से दबे हुए थे। प्रकृति के स्वस्थ प्रभाव और नए धर्म के उत्साहपूर्ण विश्वास ने ईसाई धर्म के प्रभाव में संन्यास के प्रतिकूल विचारों को अभिभूत कर दिया और निराशा के गर्त में डूबे लोगों को नवीन दृष्टि प्रदान की। नए विचारों के प्रभाव में एक नया समाज उत्पन्न हुआ जिसने प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्राकृतिक गुणों के आधार पर साहस और क्षमता से ऊँचा उठने का अवसर प्रदान किया। इस्लाम की उत्साहपूर्ण प्रेरणा से और सरासेनी विजेताओं की उदारता से उर्वर उत्तरी अफ्रीका के मेहनती लोगों ने अपने क्षेत्र को समृद्ध बनाया।
“यह एकदम मिथ्या धारणा है कि अरब की प्रगति केवल तलवार के बल पर प्राप्त की गई। तलवार के द्वारा किसी राष्ट्र के मान्य सिद्धांत को शायद बदला जा सकता है लेकिन उससे मानव-चेतना को बदला नहीं जा सकता। उसके तर्क गंभीर बात थी जिससे एशिया और अफ्रीका के लोगों के घरेलू जीवन में परिवर्तन आया। …
“इस राजनीतिक परिदृश्य की व्याख्या के लिए, विजित देशों की सामाजिक अवस्था और उसके कारण ढूँढ़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। उन देशों में धर्मों का प्रभाव काफी समय पहले से समाप्त हो गया था और उसके स्थान पर अध्यात्मवादी वेदांत स्थापित हो गया था….यह कैसे संभव था कि निरक्षर व्यक्ति, जो कठिनाई से स्पष्ट बातों के संबंध में सोच सकता था, वह अध्यात्म के रहस्यों को समझता? फिर भी उन लोगों को मोक्ष के उन सिद्धांतों को पढ़ाया जाता था जिनमें मानव-जाति का पतन और उसकी निन्दा निहित थी। उन्होंने देखा कि व्यक्ति के गुणों और दुर्गुणों पर विचार नहीं किया जाता और पाप के लिए दुष्कर्मों को नहीं देखा जाता और अकेले अध्यात्म के विरोधियों को पापी कहा जाता है। यह कैसे उदाहरण हैं जब ईसाई बिशप हत्या, जहर खिलाने, परस्त्री-गमन जैसे व्यभिचार, अंधा करने, दंगे कराने,विद्रोह कराने और गृह-युद्ध कराने में लिप्त रहते और जब महान् धर्मगुरु एक-दूसरे को ईर्ष्यावश धर्म से निकालने के अभियान चलाते थे और वे स्वयं भौतिक शक्ति के लिए एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी बने हुए थे। नपुंसकों को सोने की घूस दी जाती थी, दरबारियों और राजाओं के परिवार की स्त्रियों को धार्मिक प्रेम के तोहफे दिए जाते थे और राज-दरबारों के निर्णयों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता था। धर्मगुरु अपने भक्तों की भीड़ में ईश्वरीय आवाज के दावेदार के रूप में आडंबरपूर्ण भाषण करते थे, लेकिन स्वयं निम्नकोटि के छल-कपट के षड्यंत्रों को रचते थे। ईसाई मठों में ऐसे भिक्षु रहते थे जो साम्राज्यों की सेनाओं में आतंक फैलाते थे और बड़े-बड़े नगरों में दंगे और विप्लव कराते थे और वे अपने कथित अधात्मवादी विचारों का आडंबरपूर्ण प्रदर्शन करते थे, लेकिन वे पीड़ित मानव के अधिकारों और उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज नहीं उठाते थे। ऐसी परिस्थिति में निराशा और विरक्ति की भावना के अतिरिक्त और क्या संभव था? निश्चय ही मनुष्यों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि….वे ऐसी व्यवस्था की सहायता करते जिसका उनके दिल और दिमाग पर असर नहीं रह गया था।’
“इसलिए जब विभिन्न संप्रदायों में विद्वेषपूर्ण संघर्ष था….और असंख्य प्रतिद्वंद्वियों में अराजकता थी, उस समय संसार में एक नवीन युद्धघोष, ‘ईश्वर एक है’ सुनायी पड़ा, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि उस युद्धघोष से गड़बड़ी खत्म हुई। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एशिया और अफ्रीका के सभी देशों ने उसके सामने घुटने टेक दिये। यदि समय अच्छा हो तो देशभक्ति को धर्म के अधीन माना जाता है। लेकिन उन दिनों में तो धर्म एकदम लुप्त हो गया था।”
(जे. डब्ल्यू ड्रॉपर – ‘हिस्ट्री ऑफ दि इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप’ भाग1, पृष्ठ 332-33)