इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन.राय : दसवीं किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

जरत मुहम्मद के अनुयायियों ने समानता के सिद्धांत का उपदेश दिया, जिसका आधार अरब के घुमंतू जीवन में व्याप्त परंपरागत स्वतंत्रता की भावना थी। उन सभी ने अपने राष्ट्रीय गुण लूट-पाट में अपने शौर्य का प्रदर्शन किया था। जब प्राचीन समय की स्वतंत्रता की भावना ने महान विजयों के उद्घोष का रूप ले लिया तो अरब का व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से यह बात नहीं भूला कि उसका घोड़ा और उसकी तलवार उतनी ही तेजी से बढ़ सकती है जो किसी अन्य व्यक्ति की रफ्तार हो। उसने अपनी मरुस्थल की मातृभूमि की रक्षा करने में सेसोस्ट्री, साइप्रस, सिकंदर, दारा, पोम्पेई और अशीरवन, पटोलंबी और ट्राजन की सेनाओं का सामना करने में हिस्सा लिया था। उसने युद्ध में विजय प्राप्त करने और युद्धस्थल की स्थितियों को बदलने में उत्तम योगदान किया था। लेकिन इस्लाम द्वारा घोषित समानता का सिद्धांत विजय में सरासेनी योद्धाओं की तलवार से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ। उसका सिद्धांत रोम, बेजेण्टाइन, फारस और बाद में भारतीय साम्राज्यों के वर्ग और जाति के भेदभाव पर आधारित दमनकारी कानूनों से भिन्न था। इस्लाम ने स्वतंत्रता और समानता की उस भावना की स्थापना की जिसे प्राचीन सभ्यताओं वाले प्रायः सभी देशों में भुला दिया गया था।

अरब लोगों को प्राचीन सभ्यताओं का उत्तराधिकार पाने का गौरव प्राप्त होने के कारण उनका यह दायित्व हो गया कि पुरानी सभ्यताओं के खँडहरों में दबी-पीड़ित मानव-जाति का वे उद्धार करते। उस युग की परिस्थितियाँ इस्लाम के नाटकीय प्रसार में सहायक बनीं। संसार-भर के शासक वर्गों के आध्यात्मिक और बौद्धिक अधःपतन के काल में इस्लाम का उदय हुआ। सामाजिक पतन, विघटन और निरंकुशता की सामाजिक परिस्थिति से असंतोष के कारण सामान्य लोगों में महत्त्वाकांक्षाएं उत्पन्न हुईं और उनमें बेहतर संसार की रचना की ललक उत्पन्न हुई। अपने समय की क्रांतिकारी भावना से पहले ईसाई धर्म का विकास हुआ। दुर्भाग्य से उसकी विजय के बाद पुराने शासक वर्ग ने उसको संरक्षण प्रदान किया, उससे ईसाई धर्म पुरानी समाज-व्यवस्था का पोषक बन गया।

ईसाई चर्च के संस्थापक धर्मगुरुओं ने अपने मसीहा के वे उपदेश भुला दिए जिनके द्वारा ईसा ने रोम साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का उपदेश दिया था और उसके विद्रोही उपदेश के स्थान पर यह कहना शुरू किया- ‘सीजर को उसका भाग दो’। यह बात यहूदी इतिहास और परंपरा के विरुद्ध थी। शासक वर्ग से समझौता कर लेने के बाद ईसाई धर्म नयी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लक्ष्य से हट गया, जो उस युग की माँग थी। उसने गरीब और पीड़ित जनता द्वारा संसार-भर को जीतने के अभियान का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया और उनके सामने मृगतृष्णा रखी कि ऐसा समय आएगा जब पृथ्वी पर दूध और शहद की नदियाँ बहेंगी। ईश्वरीय राज्य वाले स्वर्ग में वे विनम्र लोग प्रवेश पाएंगे जो इस संसार के शासकों के दमन के सामने आत्मसमर्पण करते हैं।

ईसाई धर्म के पतन के बाद ऐतिहासिक आवश्यकता के अनुरूप अधिक शक्तिशाली धर्म की आवश्यकता थी। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को बिहिश्त का आनंद दिलाने का वायदा ही नहीं किया, वरन् उसने इस संसार में विजय प्राप्त करने की प्रेरणा भी दी। निस्संदेह अरब के मसीहा की स्वर्ग की कल्पना और कुछ नहीं थी, वरन् उसमें इस संसार में सुखी जीवन और आनंद के आदर्श को शामिल किया गया। हजरत मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के लिए केवल राष्ट्रीय एकता का एक मंच ही तैयार नहीं किया, वरन् अरब राष्ट्र के विद्रोह के स्वर को नए अस्त्र का रूप दिया। अरब के सभी पड़ोसी देशों की पीड़ित और शोषित जनता पर भी इस स्वर का अच्छा प्रभाव पड़ा।

इस्लाम की नाटकीय सफलता आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक कारणों से हुई थी। प्रसिद्ध इतिहासकार गिबन ने सबसे अधिक महत्त्व के संबंध में लिखा है- ‘जोरोस्टर की व्यवस्था से अधिक पवित्र, मूसा के नियमों से अधिक उदार, हजरत मुहम्मद के धर्म ने सातवीं शताब्दी में व्याप्त धर्म-उपदेशों की सादगी को अपमानित करनेवाले आडंबर की अपेक्षा तर्क का अधिक पालन किया था।’
      (दि दिक्लाइन एंड फॉल ऑफ रोमन इम्पायर)

एक अन्य इतिहासकार का कहना है कि इस्लाम की प्रभावोत्पादक विजय का कारण जितना उसका मुक्तिदायी और समानता का सिद्धांत था, उतनी उसकी सैनिक शक्ति नहीं थी। प्रत्येक संघर्ष में, जिसमें सरासेनी योद्धाओं ने ईसाई राष्ट्र को जीता था, इतिहास से यह बात प्रकट होती है कि उनकी विजय विजित देशों की जनता के समर्थन के कारण हुई थी। अधिकांश ईसाई सरकारों के लिए यह कलंक की बात थी कि उनका शासन अरब आक्रमणकारियों की तुलना में अधिक दमनकारी था।

‘सीरिया के निवासियों ने हजरत मुहम्मद के अनुयायियों का स्वागत किया था। मिस्र के चोगाधारी लोगों ने अरब आक्रमणकारियों की सहायता की और ईसाई बर्बर लोगों ने अफ्रीका की विजय में अरबों को सहायता प्रदान की। कुस्तुनतुनिया की ईसाई सरकार के प्रति विभिन्न देशों की जनता में घृणा व्याप्त थी और उन लोगों ने मुसलमानों के अधीन होना अच्छा समझा। अमीरों की धोखेबाजी और जनता की उदासीनता के कारण स्पेन और दक्षिणी फ्रांस के निवासियों ने अरब आक्रमणकारियों की अधीनता आसानी से स्वीकार कर ली।’
      (फिनले – हिस्ट्री ऑफ दि बेजेण्टाइन इम्पायर) 

(जारी)

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