(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
मुहम्मद और उनकी शिक्षाएं
इस्लाम के संस्थापक को ‘मानव-जाति के सबसे अधिक लोगों को प्रभावित करनेवाला व्यक्ति’ कहा गया है। (ड्रॉपर- हिस्ट्री ऑफ दि इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप, भाग 1, पृष्ठ 329)। जब तक उन्होंने अपने को रसूल घोषित नहीं किया था तब तक उनके व्यक्तित्व में कोई विशेष बात नहीं थी। उनके उस कथित दावे की नींव अन्य सभी धर्मों के मसीहाओं, धर्मगुरुओं और संतों के दावों से अधिक भिन्न नहीं थी। ईसाई अभियान ने अरब के मसीहा को ‘एक पाखंडी’ कहा था। लेकिन इस बात को भुला दिया गया कि उसको मूसा और ईसा के नामों के साथ मसीहा कहा गया था। एक गुमनाम लेखक की पुस्तक ‘तीन पाखंडी’ ने मध्ययुग के अंत में पूरे यूरोप में तहलका मचा दिया था। कहा जाता है कि उस पुस्तक का लेखक ईसाई नरेश फ्रेडरिक बारबोसा था और कुछ लोग उसे मुसलमान दार्शनिक ‘अबेरोस’ बताते हैं।
यदि हजरत मुहम्मद पाखंडी थे तो उन्होंने वह भूमिका सचेतन रूप से नहीं अपनायी थी। दूसरे लोगों ने उनके खुदाई रसूल होने का प्रचार किया था जिस पर अज्ञान और आडंबरों में डूबे लोगों ने विश्वास किया। राष्ट्रीय एकता के आदर्श के विचारक के रूप में हजरत मुहम्मद ने यह अनुभव किया कि युद्धरत अरब कबीलों को उस बात पर तब तक राजी नहीं किया जा सकेगा जब तक कि उसका समर्थन अलौकिक रूप से न हो। जनता में व्याप्त अज्ञान और पूर्व-धारणाओं के विचारों के विरुद्ध कोई अन्य तर्क काम नहीं आता। छोटे देवताओं को महान् सर्वशक्तिमान अल्लाह के नाम से ही अभिभूत किया जा सकता था। छोटे देवताओं के कोप को सर्वशक्तिमान अल्लाह की दया से खत्म किया जा सकता था।
सर्वशक्तिमान एक-ईश्वर (अल्लाह) में विश्वास के आधार पर कबीलों के बहुत-से देवताओं के विरुद्ध लोगों को विद्रोह करने के लिए उत्साहित किया जा सकता था। यदि कोई सर्वशक्तिमान एक-ईश्वर नहीं था तो उसकी खोज करनी थी। हजरत मुहम्मद के विचारों में यही दावा किया गया है। ऐसा करने में पाखंडी होने की कोई बात नहीं थी। क्या विवेकी वाल्टायर ने करीब एक हजार वर्ष बाद इसी प्रकार के तर्क का सहारा नहीं लिया था, जिसे हजरत मुहम्मद ने अपनाया था? लेकिन बाद वाले मामले में वह तर्क प्रतिक्रिया का समर्थन करने के लिए दिया गया था। वाल्टायर ने एक-ईश्वर की खोज करने की आवश्यकता पर इसलिए जोर दिया था क्योंकि उसके आधार पर जर्जर सामंतवादी राजतंत्र वाले समाज की रक्षा की जा सके। हजरत मुहम्मद के समय में उस तर्क का उपयोग उस समय की परिस्थितियों के क्रांतिकारी उद्देश्य के लिए किया गया था। यदि मानव के मस्तिष्क में सर्वशक्तिमान एक सत्ता में विश्वास हो जाय तो उन विश्वासों के लिए जनसामान्य के सहयोग को प्राप्त किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त ‘एक-ईश्वर’ का विचार हजरत मुहम्मद की खोज नहीं थी। उस विचार का विकास उन सामाजिक परिस्थितियों में हुआ था जिनका उल्लेख पिछले अध्याय में किया जा चुका है। हजरत मुहम्मद का लक्ष्य एक-ईश्वर की सत्ता के लिए साक्ष्य को ढूँढ़ना था। और यदि आप यह चाहते हों कि लोगों को उस साक्ष्य पर विश्वास हो तो आपको उसे इस प्रकार प्रकट करना चाहिए जिस पर वे विश्वास करने के लिए राजी हो जायं।
लेकिन हजरत मुहम्मद द्वारा एक-ईश्वर की खोज का आधार वाल्टायार की भांति सनक नहीं थी। उन्होंने ईमानदारी से अपने उत्साह के आधार पर अपने अज्ञानी अनुयायियों को प्रेरणा देने के लिए एक-ईश्वर की खोज की थी- एक-ईश्वर (अल्लाह) की खोज, जो अरब राष्ट्र की रक्षा कर सकती थी। वह रेगिस्तान के निर्जन स्थान पर गए और साधना, उपवास और इबादत की पद्धति विकसित की, जिसे 12वीं शताब्दी में भी ईश्वरीय प्रेरणा का स्रोत माना जाता था। और उस साधना, उपवास और इबादत का मनोवांछित फल हुआ। ‘उन्हें अलौकिक शक्ति के रूप में अल्लाह के दर्शन हुए और उन्हें रहस्यपूर्ण स्वर सुनाई पड़े, जिनमें उन्हें ईश्वर का रसूल बनने का आदेश दिया गया। उसी प्रकार के स्वर उन्हें पत्थरों और पेड़-पौधों से भी सुनाई देने लगे।’
(ड्रॉपर – हिस्ट्री ऑफ़ दि इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप)
इस प्रकार के अनुभव मस्तिष्क के विकार से उत्पन्न होते हैं। और प्रस्तावित व्यवहार और साधनाओं को करने से भी वे उत्पन्न होते हैं। विचारों के स्थिर हो जाने पर चाहे कितने ही झक अथवा अनुमान मूर्तरूप ग्रहण कर लेते हैं और यदि मस्तिष्क को उनमें एकाग्रता से स्थिर कर दिया जाय तो वे दूसरी बातों की चेतना को अलग कर उन्हीं विश्वासों को स्वीकार कर लेते हैं। ऋषियों और तपस्वियों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से यह प्रकट होता है कि ‘प्रेरणा’ अथवा और कोई धार्मिक अनुभव उस शारीरिक परिस्थिति से उत्पन्न होता है जो एकाएक अथवा सोद्देश्य साधनाओं से निर्मित किया जा सकता है।
हजरत मुहम्मद ने उसी प्रकार का आचरण किया जैसा कि उनके पहले और बाद के मसीहा करते थे। लेकिन इनके संबंध में ऐसा एक तथ्य था जिसके लिए उनको श्रेय दिया जाना चाहिए। वह एक ऐसे निपुण व्यक्ति थे जिन्हें मनो-शारीरिक लक्षणों ने अभिभूत नहीं किया, जैसा कि आध्यात्मिक विकास का लक्षण माना जाता था। उन्हें इस बात की चिंता थी कि वे पागल न हो जायं। उनका लक्ष्य विफल हो जाता यदि कुशाग्र-बुद्धिसंपन्न चतुर पत्नी ने ऐन मौके पर उनके जीवन में प्रवेश न किया होता। खदीजा स्वयं धनी व्यापारी थी और उसमें लौकिक चतुराई थी, जिसने अपने पति के मानसिक तनाव के आध्यात्मिक मूल्य को समझा था। उसने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि उनके मानसिक तनाव और प्रचलित बातों से भिन्न सत्य पागलपन के लक्षण नहीं हैं, वरन् वह अल्लाह के आदेश अथवा ‘आयतें’ हैं। हजरत मुहम्मद के मनो-शारीरिक लक्षणों के आधार पर उसने उनमें यह विश्वास उत्पन्न किया कि अल्लाह के देवदूतों ने उन्हें ईश्वर का संदेश दिया और वे उन देवदूतों को साक्षात रूप में देख सके थे।
निस्संदेह रूप से इस प्रकार का नाटक अज्ञान, पाखंड और भ्रांतियों के आधार पर रचा जा सकता है जिसके मुख्य पात्रों में उनकी सत्यता की भ्रांति में विश्वास उत्पन्न हो जाता है। लेकिन सभी धर्मों का जन्म इसी प्रकार होता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि इस्लाम कोई अपवाद था। वह अपवाद इसी रूप में था कि उसने अपने धर्म के लिए दैवी आधार खोज लिया और उसमें धार्मिक अंधविश्वास और आध्यात्मिक अनुमान कम थे और गंभीर राजनीतिक विचार और प्रगतिशील सामाजिक सिद्धांत तथा व्यक्तिगत आचरण की प्रशंसनीय संहिता का आधार अधिक सुदृढ़ था। ‘हजरत मुहम्मद ने निरर्थक आध्यात्मिक बातों से अपने को अलग रखा और अपने लोगों की सामाजिक स्थिति सुधारने की ओर अधिक ध्यान दिया और उनके लिए व्यक्तिगत शारीरिक सफाई, गंभीरता, रोजा, उपवास और इबादत के नियमों पर जोर दिया। उन्होंने अन्य सभी बातों से अधिक दान देने और पुण्य करने पर जोर दिया। अपनी उदारता की शिक्षा से, जो उस समय लुप्त हो गई थी, उन्होंने कहा कि मोक्ष अथवा पापों से मुक्ति किसी भी धर्म को माननेवालों को मिल सकती है बशर्ते वे सद्गुणों से संपन्न हों।’
(ड्रापर- हिस्ट्री ऑफ दि इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप)
कुरान किसी बुद्धिमान व्यक्ति की कृति नहीं है, अतः उसमें कुछ अपरिपक्व विचार और काल्पनिक अनुमान हैं। उसकी कमजोरियाँ उसके एक महान धर्म के प्रेरणास्रोत होने के गुण को आच्छादित कर लेती हैं। लेकिन हजरत मुहम्मद का धर्म कठोर एक-ईश्वरवाद था और उस मसले पर वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करता है और अपनी इसी विशिष्ता के कारण वह अन्य सभी धर्मों से अधिक श्रेष्ठ धर्म बन गया। दार्शनिक रूप से ईश्वर का विचार इस धर्म का आधार है। उस विचार को सभी प्रकार की भ्रांतियों से मुक्त नहीं किया जा सकता जब तक कि यह विचार स्वीकार न किया जाय कि संसार की उत्पत्ति शून्य से हुई। यूनान के प्राचीन दार्शनिकों और भारत के दार्शनिकों ने विवेकवाद पर जोर दिया, जिसने इस कल्पना को दूर कर दिया था। उसके परिणामस्वरूप उस प्रारंभिक विवेकवाद की पृष्ठभूमि से उत्पन्न धर्म ईश्वर के मौलिक विचार को प्रमाणित करने में सफल नहीं हुए थे। इसके परिणामस्वरूप सभी महान धर्मों में– हिंदू, यहूदी और ईसाई सभी में– अंत में बहुदेववाद की स्थापना हुई जिनसे तार्किक आधार पर धर्म का ही खंडन हो जाता है। बहुदेववाद में संसार की विभिन्न शक्तियों के देवताओं को ईश्वर के समकक्ष प्रतिष्ठित किया जाता जिससे ईश्वर के विचार पर संदेह उत्पन्न हो जाता है। उससे सृष्टि-रचना और ईश्वर का विचार भी खत्म हो जाता है। यदि संसार सनातन काल से अपने-आप स्थित है तो उसके निर्माता की कल्पना करना आवश्यक नहीं है। और यदि ईश्वर संसार का निर्माता नहीं है तो उसको स्वयंसिद्ध मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
हजरत मुहम्मद के धर्म ने उक्त पेचीदी गाँठ को खोल दिया। उसने ईश्वर के विचार को प्रारंभिक विवेकवाद की कठिनाई से मुक्त करके इस बात पर जोर दिया कि अल्लाह ने शून्य से संसार की सृष्टि की। इस विवेकेतर विचार पर उसमें जोर दिया गया। अल्लाह (ईश्वर) अपने सर्वशक्तिमान और तेजस्वी रूप में स्वीकार किया गया। उसमें एक सृष्टि क्या, अनेक सृष्टियों की रचना करने की शक्ति है, जो उसके सर्वशक्तिमान होने का प्रमाण है। सर्वशक्तिमान ईश्वर– अल्लाह- की भावना की स्थापना पुरानी बातों और धर्मान्धता के आधार पर की गई, यह हजरत मुहम्मद के लिए श्रेय की बात है। इसी श्रेय के आधार पर उन्हें इतिहास के पवित्रतम धर्म का संस्थापक स्वीकार किया गया है। चूंकि इस्लाम विवेकेतर धर्म है, यही कारण है उसने सभी उन धर्मों पर विजय प्राप्त की जिनमें उच्च आध्यात्मिक कल्पनाएँ और धर्म की बारीकियाँ थीं और जिनमें उच्च दार्शनिक दावे किए जाते थे, वे सभी इस्लाम से पराजित हो गए और उनके धर्मों की सच्चाई को दोषपूर्ण और झूठा सिद्ध कर दिया गया।
(जारी)