शील, करुणा और मैत्री का त्रिवेणी संगम है भारत का स्वधर्म

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— योगेन्द्र यादव —

स लेख की पिछली दो कड़ी में देश की वर्तमान अवस्था को भारत के स्वधर्म की रौशनी में परखने का आग्रह किया गया है। आज जो हो रहा है वह सही है या गलत, गर्व का विषय है या शर्म का, इसका फैसला हम अपने-अपने आग्रह-दुराग्रह के आधार पर नहीं कर सकते। इसे हम केवल किसी बनी-बनायी या उधार ली विचारधारा की कसौटी पर नहीं कस सकते, किसी ग्रन्थ या ईष्टदेवता के शब्दों से नहीं नाप सकते। किसी देश की यात्रा को जॉंचने परखने का पैमाना उसका स्वधर्म ही हो सकता है। पहले धर्म और स्वधर्म की व्याख्या के बाद लेख की पिछली कड़ी इस निष्कर्ष पर पहुॅंची थी कि भारत गणराज्य का स्वधर्म न तो प्राचीन भारतीय ग्रंथों में है, न ही यूरोप की आधुनिक विचारधाराओं में। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हमारी सभ्यता की धरोहर और पश्चिमी विचारों के बीच संवाद और संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया से भारत गणराज्य का स्वधर्म निर्मित हुआ।

अब हम पूछ सकते हैं कि इस प्रक्रिया से उपजा भारत का स्वधर्म आखिर है क्या? अगर सार रूप में कहें तो भारतीय सभ्यता के शाश्वत मूल्यों में से तीन – शील, करुणा और मैत्री – के त्रिवेणी संगम में भारत का स्वधर्म खोजा जा सकता है।

जिस भारतीय गणतंत्र का उदघाटन 26 जनवरी 1950 को हुआ था, उसकी जड़ें उस दिन अंगीकृत किये गए आधुनिक संविधान या औपनिवेशिक राज के दौरान आधुनिक पश्चिम के विचारों तक सिमटी हुई नहीं हैं। भारतीय गणतंत्र के आदर्शों में कम से कम तीन हजार साल की हमारी विचार परंपरा से उपजे तीन आदर्श प्रतिबिंबित होते हैं। लेकिन यह तीनों आदर्श अपने प्राचीन स्वरूप में हमारे संविधान में दोहरा नहीं दिए गए हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान इन आदर्शों की सफाई की गयी, और आधुनिक यूरोप के तीन आदर्शों से इनका गहरा संवाद हुआ। फ्रांसीसी क्रांति के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के उदघोष को भारतीय मानस ने अपने तरीके से सुना। बीसवीं सदी की उदारवाद, समाजवाद और सेकुलरवाद की विचारधाराओं को अपनी वैचारिक छलनी से छाना। इस मंथन से लोकतंत्र, कल्याणकारी राज्य और सर्वधर्म समभाव की देसी लेकिन आधुनिक समझ बनी। इस खांटी हिंदुस्तानी आधुनिकता में रचे बसे हैं भारतीय गणतंत्र के स्वधर्म के तीन बुनियादी सूत्र।

मैत्री की अवधारणा का स्पष्ट निरूपण बुद्ध धर्मदर्शन में हुआ है। मैत्री महज दोस्ती या स्नेह नहीं है। मैत्री का सौहार्द तृष्णावश नहीं होता, बल्कि परोपकार के लिए होता है। मैत्री का स्नेह मोहवश नहीं होता किन्तु ज्ञानपूर्वक होता है। मैत्री का स्वभाव अद्वेष है और यह अलोभ-युक्त होता है। जीवों का उपकार करना, उनके सुख की कामना करना, द्वेष और द्रोह का परित्याग, इसके लक्षण हैं। यह केवल व्यक्तिगत आदर्श नहीं है, इस आदर्श को हमारी परंपरा में राजधर्म का रूप दिया गया।

अशोक और अकबर के राज में सभी धर्मावलम्बियों के प्रति समभाव की परंपरा इसी मैत्री के आदर्श से प्रेरित है। बाबासाहब आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि उनके लिए बंधुत्व का आदर्श बुद्ध दर्शन में मैत्री की अवधारणा से प्रेरित था।

भारत के संविधान के मूल विचार में आया सर्वधर्म समभाव का विचार (और बाद में इसे दिया गया “सेकुलरवाद” या पंथ निरपेक्षता का नाम) दरअसल पश्चिम के सेकुलरिज्म का अनुवाद नहीं है। हमारे संविधान निर्माता जानते थे कि चर्च-राज्य सम्बन्ध की समस्या यूरोप की है, हमारी नहीं। आधुनिक भारत की समस्या है अलग अलग धर्मावलम्बियों के बीच सौहार्द बनाये रखने की। हमारे देश में विविध तरह की धार्मिक विविधता है। यहाँ अनेक पंथ या मजहब हैं, और अलग अलग तरह के पंथ या मजहब हैं। हमारी जनता की गहरी धार्मिक आस्था है। सभी धार्मिक समुदाय सार्वजनिक रूप से धार्मिक आस्था का व्यवहार और प्रदर्शन करते हैं। इनमें से कई समुदायों का एक दूसरे से सौहार्द के साथ साथ झगड़े का इतिहास रहा है।

इसलिए हमारे सामने चुनौती है अलग अलग मत और धर्मावलम्बियों के बीच समभाव स्थापित करना, घृणा और हिंसा को रोकना, धार्मिक संस्थाओं का नियमन करना और धार्मिक समुदाय में अंदरूनी कुरीतियों का सुधार करना। इसलिए आस्थाहीन या अनीश्वरवादी सेकुलरवाद हमारी समस्या का समाधान नहीं है।

भारत के स्वधर्म में है एक सर्वधर्मिता की देशज दृष्टि जो धार्मिकता का सम्मान करती है, सभी पंथों के प्रति समभाव रखती है, जो मैत्री भाव से पैदा होती है और देशधर्मी है। मैत्री के विचार की इस आधुनिक व्याख्या के चलते हमारे संविधान में कोई राज धर्म नहीं है, सभी धर्मावलम्बियों को समान नागरिकता दी गयी है, धार्मिक स्वतंत्रता के तहत उपासना, धार्मिक आचार-व्यवहार का अधिकार प्राप्त है, प्रत्येक धार्मिक समुदाय को अपनी धार्मिक व्यवस्था और संस्थाएं बनाये रखने का अधिकार है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष सुरक्षा दी गयी है।

इसी तरह करुणा का विचार हमारे संविधान में वर्णित सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक समता के मूल में है।

सामान्यतः समता या साम्य के विचार की जड़ें आधुनिक यूरोप के समाजवाद या साम्यवाद में तलाशी गयी हैं। पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि प्राचीन भारतीय चिंतन में बराबरी या साम्य का विचार है ही नहीं। ईश्वर के सामने सब समान हैं, यह विचार तो था लेकिन सांसारिक वस्तुओं और धन दौलत के बॅंटवारे के मामले में समता का विचार बिलकुल नहीं था। लेकिन अगर हम गहरे उतरें तो पाएंगे कि करुणा का विचार हमारी परंपरा में व्याप्त है। विनोबा भावे कहते थे “जैसे राम की माता कौशल्या और कृष्ण की माता यशोदा थीं, उसी तरह साम्य की माता करुणा हैं।” करुणा के अवतार बुद्ध हैं। इस समझ में करुणा का मतलब दया नहीं है। पराये दुख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय का जो कम्पन होता है उसे ‘करुणा’ कहते हैं। “करुणा की प्रवृत्ति जीवों के दुख का अपनय करने के लिए होती है।”

आधुनिक काल में करुणा की प्रवृत्ति एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक सामूहिक आदर्श का रूप लेती है। शेष दुनिया की तरह हमारे देश में भी करुणा की व्याख्या आधुनिक समाजवाद के विचार और रूसी क्रांति के असर में हुई। समता का विचार एक आदर्श समाज के निर्माण का केंद्रीय विचार बना। समता केवल एक आध्यात्मिक सिद्धांत की जगह भौतिक जगत में बॅंटवारे की समानता की तरह अभिव्यक्त हुई। इसलिए समता की जिम्मेवारी किसी एक व्यक्ति नहीं बल्कि राज्य व्यवस्था पर डाली गयी। समता का विचार केवल आर्थिक समानता तक सीमित नहीं रहा बल्कि सामाजिक क्षेत्र में जातिगत समानता और मर्द-औरत समानता का विचार भी इसी बीज से पैदा हुआ। महात्मा गांधी के असर से भारतीय समाजवाद दुनिया के बाकी देशों के समाजवाद से अलग स्वरूप ले पाया।

मैत्री और करुणा की तरह शील भी एक व्यक्ति के गुण की तरह देखा गया है। शीलवान यानी उत्तम आचरण वाला व्यक्ति। भारतीय परंपरा में अनेक किस्म के शील की व्याख्या की गयी है।

लेकिन यह अवधारणा हमें राजतंत्र में राजा और गणतंत्र में गण यानी प्रजा के गुणों की ओर भी ले जाती है। बेशक लोकतंत्र का विचार आधुनिक है, और इसकी संस्थाएं पश्चिमी व्यवस्था से उधार ली गयी हैं, लेकिन प्राचीन भारत में राजधर्म और सल्तनत और मुगल काल में सुलतान के गुण-दोष की व्याख्या हमारे आधुनिक लोकतंत्र की समझ का आधार है। आधुनिक अर्थ में गणतंत्र का अर्थ वह नहीं है जो प्राचीन भारतीय गणतंत्र में था, लेकिन स्वयं बाबासाहब आंबेडकर ने आज की व्यवस्था के लिए प्राचीन गणतंत्र के अनुभव की प्रासंगिकता को रेखांकित किया था। इसीलिए भारतीय लोकतंत्र ने पश्चिमी लोकतंत्र की काया को तो अपना लिया लेकिन उसमे अपने प्राण फूॅंके। भारतीय लोकतंत्र का शील संस्थाओं या प्रक्रियाओं से ज्यादा लोक कल्याण, लोक लाज और लोकमत से परिचालित है। अहंकार और मत भिन्नता का दमन भारतीय लोकतान्त्रिक संस्कार के खिलाफ है।

अब हम आखिरी सवाल की ओर बढ़ सकते हैं : क्या पिछले कुछ वर्षों में भारत का बदलता स्वरूप हमारे इस स्वधर्म के अनुरूप है?

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