— आनंद कुमार —
विदेशी गुलामी से स्वतंत्रता हासिल करने के 75वें वर्ष का उत्सव मनाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य है। इस उत्सव वर्ष में इसको याद करना भी हमारी ही जिम्मेदारी है कि आजादी के दीवानों के लिए स्वराज का क्या अर्थ था? ब्रिटिश राज के खात्मे के समय स्वराज-रचना के लिए जरूरी राष्ट्रनिर्माण की क्या शर्तें थीं? क्या समस्याएँ और क्या संभावनाएँ थीं?
इस उत्सव प्रसंग में यह याद कराना प्रासंगिक होगा कि गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को हासिल आजादी को एक सीमित राजनीतिक सफलता बताया था और सचेत किया था कि स्वराज के आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पक्ष को पूरा करने का कठिन काम बाकी है। इसके बिना ‘पूर्ण स्वराज’ का संकल्प साकार नहीं होगा। सत्य और अहिंसा पर आधारित नव-निर्माण नहीं हो सकेगा। इसलिए 1. आर्थिक समानता, 2. सांप्रदायिक एकता, 3. ग्राम-स्वराज, 4. दरिद्रता और बेरोजगारी निर्मूलन, 5. स्त्री-पुनरुत्थान, 6. स्वच्छता-स्वास्थ्य-शिक्षा सुधार, 7. भाषा-स्वराज, 8. विकेंद्रीकरण और 9. देश-दुनिया में शांति के लिए प्रभावशाली कदम उठाना विदेशी राज से मुक्ति हासिल करने में सफल भारत की नयी जिम्मेदारी है। इसीलिए स्वतंत्रता के 75 बरस पूरे होने की ख़ुशी के देशव्यापी अभियान में इस नौ सूत्री जिम्मेदारी के बारे में आत्म-मूल्यांकन भी उत्सव कार्यों का एक हिस्सा होना चाहिए। इसीलिए आज गांधीजी के सपनों, विशेषकर 1946 में ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के रूप में प्रकाशित दिशा-निर्देशिका और कट्टरपंथियों द्वारा 30 जनवरी 1948 को सर्वधर्म सद्भाव की प्रार्थना सभा के लिए जाते हुए की गयी शर्मनाक ह्त्या के तीन दिन पहले 27 जनवरी को तैयार और तीन दिन बाद 2 फरवरी को प्रकाशित ‘वसीयतनामा’ की नयी प्रासंगिकता है (देखें : रचनात्मक कार्यक्रम – गांधीजी (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद; 2015. ‘महात्माजी की अंतिम इच्छा और वसीयतनामा’, हरिजन, 2 फरवरी ’48).
इस बारे में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक महानायक, संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वाधीनता के बाद के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने गांधी विचार के एक महत्त्वपूर्ण संकलन के प्राक्कथन में 8 अगस्त 1947 को ही लिखा कि “हमने जो स्वतंत्रता प्राप्त की है उसके फलस्वरूप हमारे ऊपर गंभीर जिम्मेदारियाँ आ पड़ी हैं- हम चाहें तो भारत का भविष्य बना सकते हैं और चाहें तो बिगाड़ भी सकते हैं। हमारी यह स्वतंत्रता अधिकांश में महात्मा गांधी के ही महान नेतृत्व का फल है। सत्य और अहिंसा के जिस अनुपम हथियार का उन्होंने उपयोग किया आज दुनिया को उसकी बड़ी आवश्यकता है; इस हथियार के द्वारा ही वह उन सारी बुराइयों से त्राण पा सकती है जिनसे आज वह पीड़ित है…जिस तरह हमारी लड़ाई का हथियार अनुपम था उसी तरह स्वतंत्रता की प्राप्ति ने हमारे सामने जो संभावनाएँ खोल दी हैं वे भी अनुपम हैं।” (देखें :‘प्राक्कथन’, मेरे सपनों का भारत – गांधीजी (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद) पृष्ठ iv)
इस प्रसंग में यह निर्विवाद है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के नायकों-नायिकाओं की शानदार श्रृंखला में मोहनदास करमचंद गांधी (1869-1948) का अद्वितीय स्थान है। इसी कारण कविवर टैगोर और स्वामी श्रद्धानंद ने उन्हें ‘महात्मा’, नेताजी सुभाष ने ‘राष्ट्रपिता’ और अनगिनत स्वतन्त्रता सेनानियों ने ‘बापू’ कहा था। गांधी ने स्वराज को एक निर्गुण आदर्श से सगुण सच बनाने में 1893 से 1948 के बीच के छह लम्बे दशकों के दौरान विचार और कर्म के स्तर पर असाधारण योगदान किया। उनके सपनों, प्रयासों और सिखावन ने देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया। यह भी याद रखना चाहिए कि उनके व्यक्तित्व और चिंतन के निर्माण में तीन धर्मों – हिन्दू धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म – के अनुयायियों के सत्संग का असर था। तीन महाद्वीपों – एशिया, अफ्रीका और यूरोप – के ताजा इतिहास का संगम था। ब्रिटेन में बिताए विद्यार्थी-जीवन की अवधि (1888-1892) और दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) में जिए संघर्षमय जीवन के प्रयोगों, अनुभवों और रुझानों का बहुत प्रभाव था। उन्होंने स्वयं अपने मार्गदर्शकों में जैन साधक श्रीमद् राजचंद्र, रूसी चिन्तक लियो ताल्स्तॉय, अमरीकी दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो और ब्रिटिश विचारक जॉन रस्किन को गिनाया है। गांधी द्वारा प्रवर्तित विमर्श को ‘सर्वोदय’ की संज्ञा दी गयी है। सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए कत्ल और कानून के सहारे चलनेवाली दुनिया के लिए करुणा और अहिंसा की राह बनाना उनकी जीवन यात्रा का सारांश था और सत्याग्रह मानव समाज को उनकी सबसे बड़ी देन है।
गांधीजी की ‘हिन्द स्वराज’ (1909), दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास (1924), सत्य के प्रयोग (1924), अनासक्ति योग (1930) और रचनात्मक कार्यक्रम (1946) जैसी बहुचर्चित पाँच पुस्तकें हैं। इनमें से किस रचना का सर्वोच्च स्थान है? गांधी-विचार के विशेषज्ञों में ‘हिन्द स्वराज’ और ‘सत्य के प्रयोग’ की विशेष महत्ता है। लेकिन गांधीजी का मानना अलग था। गीता सम्बन्धी संस्कृत से गुजराती में अनूदित किताब ‘अनासक्ति योग’ के बारे में गांधीजी ने लिखा था कि “इस अनुवाद के पीछे अड़तीस वर्ष के आचार के प्रयत्न का दावा है। इसलिए मैं अवश्य चाहता हूँ कि प्रत्येक गुजराती (भारतीय) भाई और बहन, जिन्हें धर्म को आचरण में लाने की इच्छा है, इसे पढ़ें, विचारें और इसमें से शक्ति प्राप्त करें।”
गांधी मूलत: आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और ‘गीता’ को माता का दर्जा देते थे। राजनीति का ‘आध्यात्मिकरण’ गांधी का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान कहा गया है। उन्होंने लिखा है कि “गीता आध्यात्मिक ग्रन्थ है। उसके अनुसार आचरण में निष्फलता रोज आती है, पर वह निष्फलता हमारा प्रयत्न रहते हुए है। इस निष्फलता में सफलता की फूटती हुई किरणों की झलक दिखाई देती है। (साबरमती आश्रम में सक्रिय) यह नन्हा-सा जन-समुदाय जिस अर्थ को आचार में परिणत करने का प्रयत्न करता है, वह इस अनुवाद में है। इस अनुवाद की कल्पना स्त्रियों, वैश्य और शूद्र-सरीखे ऐसे लोगों के लिए है जिनका अक्षर ज्ञान थोड़ा ही है, जिन्हें मूल संस्कृत में गीता समझने का समय नहीं है, इच्छा नहीं है, परन्तु जिन्हें गीता रूपी सहारे की आवश्यकता है।” (देखें : मो. क. गांधी (1930/2014) – अनासक्ति योग : श्रीमद्भगवदगीता, अनुवाद सहित (सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नयी दिल्ली; पृष्ठ 5-6)
उन्होंने लेखों, पत्रों, भाषणों, साक्षात्कार और वक्तव्यों के जरिये लगातार लोकशिक्षण और जनमत निर्माण किया और उनकी संकलित रचनाएँ 110 खंडों में प्रकाशित हुई हैं। विश्व भर में अनेकों अहिंसा अध्ययन और प्रशिक्षण केंद्र बनाये गए हैं। दुनिया भर में गांधी की आत्मकथा को एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक का दर्जा दिया गया है। उनके कर्म और विचार पर देश-विदेश की विभिन्न भाषाओँ में 300 से ज्यादा किताबें छप चुकी हैं और यह विवेचना क्रम बना हुआ है।
- गांधी विमर्श के बारे में कुछ मर्यादाएँ
सत्य और अहिंसा गांधीजी की जीवन व्यवस्था के दो मूल आधार थे। उनकी ईश्वर में आस्था थी और ‘आत्म-साक्षात्कार’ को व्यक्ति के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते थे। उन्होंने अपने को ‘सनातनी हिन्दू’ माना और ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये जे पीर पराई जाणे रे!’ को अपना जीवन दर्शन बनाया। सर्वधर्म समभाव उनकी आध्यात्मिकता की आधारशिला थी। आत्म साक्षात्कार और मानवता के उत्थान के परस्पर-निर्भर लक्ष्यों के लिए उन्होंने स्वराज, एकादश व्रत, रचनात्मक कार्यक्रम, स्वावलंबन, स्वदेशी और सत्याग्रह की एक षड्मुखी जीवन-पध्दति का प्रवर्तन किया। वह‘आचरण की कसौटी’ को सर्वोच्च महत्त्व देते थे।
वह राज्यसत्ता और बाजार शक्ति की तुलना में समुदाय-शक्ति को ज्यादा महत्त्व देते थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए लोकशक्ति के आधार पर रचनात्मक कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और स्वावलंबी समुदाय निर्माण को स्वराज का पर्यायवाची बनाया। लेकिन गांधी ने युगान्तरकारी चिंतकों की किताबों का अध्ययन करते हुए भी ठोस कार्यों से मिले अनुभवों को ही अपने सपनों और विचारों का आधार बनाया। उनके चिंतन में देश-काल-पात्र का महत्त्व था। कबीर की तरह उनका आधार जनसाधारण के बीच काम करने से मिली सीख थी :
‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी।’
वैसे भी गांधी के सपनों और आदर्शों को समझने के लिए उनकी 1933 में दी इस हिदायत का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि ‘मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन करनेवालों और उनमें दिलचस्पी रखनेवालों से मैं यह कहना चाहता हूँ मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है। सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नै बातों मैं सीखा भी हूँ। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आंतरिक विकास होना बंद हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बंद हो जाएगा। मुझे एक ही बात की चिंता है, और वह है प्रतिक्षण सत्य-नारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता। इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।’ (हरिजनबन्धु, 30 अप्रैल, ’33)
तमाम शंकाओं और आलोचनाओं के बावजूद ‘देह छूटने के बाद भी’ सत्य-अहिंसा-स्वराज-स्वदेशी-सर्वोदय-सत्याग्रह आधारित विमर्श के विकास की निरंतरता की भविष्यवाणी देश-दुनिया में विस्मयकारी रूप से सच साबित भी हुई है। अमरीका में डा. मार्टिन लूथर किंग, पकिस्तान में ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान, तिब्बत में दलाई लामा, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला और यूरोप में ‘ग्रीन मूवमेंट’ इसके आकर्षक उदाहरण रहे हैं। दुनिया के देशों के वैश्विक संगठन संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी 2007 से गाँधी जन्मतिथि 2 अक्टूबर को पूरी दुनिया में ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने का वन्दनीय कार्य शुरू किया है।
भारत में सर्वोदय के गांधी-मन्त्र को आचार्य विनोबा भावे ने भूदान-ग्रामदान-ग्राम स्वराज अभियान के जरिये ‘साकार’ किया। उन्होंने 1951 से 13 साल तक अखंड पदयात्रा के जरिये अभूतपूर्व क्रांतियज्ञ संपन्न किया। बाद में आयु की मर्यादा का ध्यान रखते हुए साढ़े चार बरस तक वाहन-यात्रा की। लगभग 5000 स्त्री-पुरुषों को राष्ट्र-निर्माण और क्रांति के अहिंसक मार्ग से जोड़ा। राष्ट्रनिर्माण के लिए पंचशक्तियों के परस्पर सहयोग का प्रयोग किया– जनशक्ति, सज्जन शक्ति, विद्वद्जन शक्ति, महाजन शक्ति और शासन शक्ति। इसमें जनशक्ति और सज्जनशक्ति को सबसे ज्यादा ताकतवर और शासनशक्ति को सबसे कम ताकतवाला बताया। भारत जैसे भूमि-समस्या ग्रस्त देश में स्वराज के शुरुआती 25 बरसों में बने तमाम सरकारी कानूनों की तुलना में भूदान आन्दोलन ज्यादा सफल हुआ। लगभग 40 लाख एकड़ भूमि स्वैच्छिक दान द्वारा प्राप्त हुई और उसमें से 18 लाख एकड़ भूमि का देशभर में फैले 4 लाख 60 हजार भूमिहीन परिवारों में वितरण हुआ। जयप्रकाश नारायण के शब्दों में, ‘मुझे तो विचार आता है कि अगर विनोबा ने इस तरह का एक क्रांतिकारी आन्दोलन शुरू न किया होता, तो हमलोग अभी भी वहीं के वहीं होते – चरखा चलाते, गांधीजी का फोटो घर में रखते, जन्माष्टमी-रामनवमी की तरह गांधी-जयंती के दिन उपवास करते। किन्तु अहिंसक क्रांति का विचार बिलकुल भूल ही गये होते। और सर्वोदय बाजी हार गया होता…’. ( देखें : बीता इतिहास या भविष्य का सपना (भूदान-ग्रामदान आन्दोलन की समीक्षा) – जयप्रकाश नारायण व कान्ति शाह (सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी. 2001; पृष्ठ 37)
जब आचार्य विनोबा (1895 – 1981) ने 1973 में 78 बरस की आयु हो जाने पर अपने कार्यक्षेत्र को पवनार आश्रम (वर्धा) में ब्रह्मसाधना तक सीमित कर लिया तो जयप्रकाश नारायण (1902 – 1979) ने स्वराज के गांधी विमर्श के नए अध्याय के रूप में ‘सहभागी लोकतंत्र’ और ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की तरफ देश की नयी पीढ़ी को मोड़ा। इसमें सर्वोदय की 1951 से 1973 की उपलब्धियों और समस्याओं से उत्पन्न निष्कर्षों का आधार था और जयप्रकाश और उनके सर्वोदयी सहयोगियों की निर्मलता का नैतिक बल था। आज गांधी-विनोबा-जयप्रकाश की इस अद्भुत परम्परा का मूल्यांकन समकालीन भारत की समझ के किसी भी प्रयास का एक अनिवार्य तत्त्व है। (देखें : नॉन-वायलेंट रेवोल्यूशन इन इंडिया – जेफरी ओस्तर्गार्द (गांधी पीस फाउंडेशन, नयी दिल्ली, 1985; भूमिका)
- गांधीजी की इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन
गांधी विचार के प्रामाणिक अध्येता समाजवैज्ञानिक प्रो. निर्मल कुमार बोस (1972) (देखें; स्टडीज़ इन गान्धीज्म (नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद) के अनुसार यह ध्यान में रखना जरूरी है कि गांधीजी की एक निश्चित इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन थ। उनकी मान्यता थी कि अबतक के मानव इतिहास में, कुछ अपवादों को छोड़कर, जीव-जगत में बुनियादी एकता की तरफ प्रगति हुई है और मानव समुदायों के बीच अवरोध घटे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य इस सार्वभौमिक एकता में अपनी जीवन पद्धति से वृद्धि करना है। हमें मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और एकता की प्रगति के ऐतिहासिक दायित्व में अपना योगदान करना है। परस्पर सहयोग के जरिये जीवन निर्वाह की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकेन्द्रित उत्पादन प्रक्रिया के अंतर्गत शरीर-श्रम जीवन का प्रथम नैतिक नियम है। इससे धरती पर मानव अस्तित्व का निर्वाह होगा और राष्ट्र-राज्यों द्वारा निर्मित आधुनिक बाधाओं के बावजूद स्वराज और समता आधारित मानव सभ्यता संभव हो सकेगी।
हिंसा हमारी आत्मरक्षा का सही उपाय नहीं है। इससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है और बड़े हथियारी समूहों पर निर्भरता बढ़ती है। इसकी बजाय अहिंसक तरीकों के अपनाने से समुदायों की आत्म-सुरक्षा की क्षमता में वृद्धि हो सकती है जिससे एक छोटे समूह में भी आत्म-रक्षा की शक्ति आ जाएगी। क्योंकि अहिंसक परिवेश में एक उचित उद्देश्य के लिए कष्ट उठाने की क्षमता का महत्त्व होता है। इस प्रकार से रची स्वतंत्रता हर समुदाय को दूसरे समुदायों से बराबरी के आधार पर सहयोग करने में मदद करेगी और स्वराज आधारित लोकतान्त्रिक विश्व महासंघ की नींव बनाएगी।
निर्मल कुमार बोस द्वारा ही यह इंगित किया गया है कि गांधी चिंतन में दो विशिष्ट प्रवृत्तियाँ दीखती हैं – (क) किसी भी प्रश्न के सन्दर्भ में आत्म-समीक्षा (‘टर्निंग लाइट इन्वर्ड्स’) और इससे जुड़े ‘आतंरिक’ सुधार और ‘व्यवस्थागत’ परिवर्तन का आग्रह, और (ख) समस्या की तात्कालिक तस्वीर और सत्य आधारित समाधान की संभावना की तलाश (‘मेरे लिए एक कदम ही काफी है’)। पहली प्रवृत्ति के कारण ही गांधी ने भारत की पराधीनता का कारण देशी राजाओं की परस्पर फूट की बजाय भारतीयों में ‘चाँदी के सिक्कों के लोभ’ और विदेशी शासकों के भय को बताया। इस आधार पर दरिद्रनारायण की सेवा का रचनात्मक कार्य, विदेशी शासन से असहयोग और सत्य–अहिंसा आधारित सत्याग्रही निडरता के समन्वय से स्वराज पाने का अचूक उपाय सिखाया। इस दूसरी प्रवृत्ति के कारण एक ही समस्या के लिए दो भिन्न दशाओं में गाँधी द्वारा दो अलग अलग समाधान अपनाना आलोचना का कारण रहा। जबकि गांधी इस फर्क के लिए सत्य के निरंतर विस्तृत होते रूप को आधार बताते थे।
गांधी की कार्यपद्धति की यह भी विशेषता थी कि अपने किसी विचार और सुझाव को व्यवहार में लाने के लिए नयी संस्थाएँ बनाने की बजाय उपलब्ध असरदार संगठनों को ही माध्यम बनाते थे। यदि नयी संस्थाएँ बनाना जरूरी भी हुआ तो उसको किसी पूर्वस्थापित संगठन के अंतर्गत सहमति बनाकर निर्मित करते थे जिससे नयी संस्था को एक अनुकूल परिवेश में विकसित किया जाए।
यह भी सच था कि किसी भी प्रसंग में गांधीजी काफी सोच-समझकर अपना मंतव्य प्रकट करते थे और अपने दृष्टिकोण के प्रति प्रबल आग्रह रखते थे। उनके विचारों में परिवर्तन कठिन था। लेकिन वह अपने से असहमत व्यक्तियों से बहुत दूर नहीं जाते थे।‘मतभेद’ को ‘मनभेद’ और सम्बन्ध-विच्छेद की दिशा में नहीं बढ़ने देते थे।
आलोचनाओं और भ्रांतियों के बावजूद अपने विरोधियों से संवाद करना उनकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल था। इसके उल्लेखनीय उदाहरणों में (1) 1922 में ‘असहयोग आन्दोलन’ का वापस लेना और चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू सरीखे वरिष्ठ आलोचकों द्वारा 1923 में ‘स्वराज पार्टी’ का बनाना (‘प्रो-चेंजर’ बनाम ‘नो-चेंजर’ विवाद), (2) कांग्रेस के युवा पक्ष द्वारा नेहरू–सुभाष की अगुवाई में 1929 के लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वाधीनता’ को कांग्रेस का लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव पारित कराना, (3) 1932 में दलितों के सशक्तीकरण के लिए ब्रिटिश प्रस्ताव के मुकाबले एक वैकल्पिक योजना के लिए आमरण अनशन और पूना समझौता, (4) ‘राष्ट्र-निर्माण’ के रचनात्मक कार्यों, विशेषकर अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए, अपने को समर्पित करते हुए ‘बुद्धिजीवियों’ के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ 1934 में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा, (5) 1939 और 1943 के बीच गांधीजी से गंभीर मतभेद के बावजूद 1944 में सुभाष बोस द्वारा ‘देश के नाम सन्देश’ में गांधीजी को‘राष्ट्रपिता’ के रूप में आदर देते हुए आशीर्वाद माँगना, (6) 1942 के‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के बारे में कांग्रेस नेतृत्व की असहमति को समर्थन में बदलना, (7) कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ 1934 में स्पष्ट सैद्धांतिक मतभेद से शुरू संवाद को 1942 के ‘अंग्रेजो, भारत छोडो!’ आन्दोलन के दौरान उन्मुक्त सहयोग में बदलना, (8) 1944 में मुस्लिम अलगाववाद के समाधान के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से कई बार वार्ता के बाद की असफलता और आलोचना, और (9) 1946-47 में भारत-विभाजन के विरुद्ध नेहरू-पटेल-आजाद की दृष्टि से मतभेद के बावजूद कांग्रेस प्रस्ताव के साथ सहयोग इसके कुछ बहुचर्चित उदाहरण हैं।
- गांधीजी की राजनीति की प्राथमिक पाठशाला
गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 1919 से सक्रिय हिस्सेदारी शुरू की और पाँच बरस बाद ही, 1921 के ऐतिहासिक ‘असहयोग आन्दोलन’ की असफलता के बावजूद, 1924 में उसके अध्यक्ष बने। कांग्रेस की अध्यक्षता के दौरान उन्होंने इसका कायाकल्प कर दिया। इसके बाद 1947 में भारत के स्वाधीन होने तक कांग्रेस के साथ उनका सम्बन्ध कई उतार-चढ़ाव से गुजरा लेकिन उन्होंने इसे अपना मुख्य माध्यम बनाए रखा।
यह उल्लेखनीय है कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश-वापसी के बाद के अपने पहले राजनीतिक प्रयास में गांधीजी पूरी तरह असफल थे क्योंकि अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्थापित सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसायटी में 1916 में प्रवेश की उनकी दरखास्त अस्वीकार कर दी गयी थी। उन्हें 1917 से एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक द्वारा आरम्भ होमरूल लीग की बम्बई प्रेसिडेंसी इकाई में जरूर जोड़ा गया लेकिन वह संतोषजनक अनुभव नहीं था। उन्हें सदस्यता के साथ ही जिन्ना की जगह अध्यक्ष पद भी सौंपा गया था। गांधी ने ऑल इण्डिया होमरूल लीग का नाम बदल कर ‘स्वराज्य सभा’ करा दिया और उसकी कार्यपद्धति में ‘कानूनी तरीकों को ही अपनाने’ की बजाय ‘प्रभावशाली शांतिपूर्ण तरीकों से गैरकानूनी उपाय अपनाने’ का प्रावधान करा दिया। उन्होंने होमरूल लीग के विधान में सुधार के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विधान में भी ऐसा ही सुधार 1920 में करवाया।
तब की राजनीति कैसी थी? 1. राष्ट्रीयता, 2. मुस्लिम सम्प्रदाय के मुद्दे, 3. जाति और वर्ग, और 4. उग्र राष्ट्रवाद गांधी के भारतीय सार्वजनिक जीवन में प्रवेश काल के मुख्य सरोकार थे। तब के भारतीय सार्वजनिक जीवन में (क) हिन्दू-मुसलमान, (ख) शिक्षित–अशिक्षित, और (ग) सुधारवादी (‘लिबरल’) और राष्ट्रवादी की खेमेबंदियाँ और दरारें थीं। ‘स्वराज’ की कल्पना को लेकर‘नरमपंथी’ और ‘गरमपंथी’ गुटबंदी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश राज ने ‘स्वदेशी’ की आवाज़ को पूरी तरह से दबा दिया था। गांधी की अपनी किताब ‘हिन्द स्वराज’ (1909) के छपने और बेचने पर प्रतिबन्ध था। ऐसे बिखराव के माहौल में उन्होंने खादी, नशाबंदी, अस्पृश्यता निवारण और देशी भाषाओं (हिन्दुस्तानी) के लिए रचनात्मक सेवाकार्य और जरूरत पड़ने पर राज्यसत्ता की सविनय अवज्ञा के जरिये नयी एकता का निर्माण करके जनसाधारण की हिस्सेदारी के लिए असहयोग और सत्याग्रह (सिविल नाफ़रमानी) की राह बनायी। इस सन्दर्भ में 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय के निमंत्रण पर काशी विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में दिए गए उनके भाषण को ‘स्वराज का रणघोष’ भी माना जाता है।
वस्तुत: उनकी सत्याग्रही राजनीति को 1917 से 1922 के बीच के सात आन्दोलनों की सफलताओं और असफलताओं ने आकार दिया था – 1. चंपारण का किसान आन्दोलन (1917), 2. खेड़ा का किसान आन्दोलन (1918), 3. अहमदाबाद श्रमिक आन्दोलन (1918), 4. रौलट सत्याग्रह (1919), 5. जलियांवाला बाग़ हत्याकांड (1920), 6. खिलाफत आन्दोलन (1920) और 7. असहयोग आन्दोलन (1921-22)। इन आन्दोलनों से मिले पाठ ने गांधी के विचारों में ‘हिन्द स्वराज’ (1909) से आगे की सूत्रबद्धता पैदा की और सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, सर्वोदय, सर्वधर्म समभाव और सत्याग्रह आधारित स्वराज-रचना के नायक और प्रवक्ता के रूप में उनकी देशव्यापी पहचान बनी।
(लेख की दूसरी किस्त कल)