(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
इस्लाम और भारत
यद्यपि जिस समय भारत में इस्लाम का प्रवेश हुआ उस समय तक उसकी प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो चुकी थी और उसके नेतृत्व पर विद्वान और सुसंस्कृत अरबों के नेतृत्व के स्थान पर दूसरे लोगों का अधिकार हो गया था, लेकिन इसके झंडे पर उसके आरंभ के नारों का ही उल्लेख था और यदि इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो भारत में मुसलमानों की विजय में फारस और ईसाई देशों की भांति यहां के निवासियों ने भी सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाया था। कोई बड़ा राष्ट्र, जिसका सुदीर्घ इतिहास हो और पुरानी सभ्यता हो, आसानी से विदेशी आक्रमणकारी के सामने घुटने नहीं टेक देता है जब तक कि आक्रमणकारी के साथ विजोत देशों की जनता की सहानुभूति और समर्थन न हो। ब्राह्मण व्यवस्था की कठोरता ने बौद्ध क्रांति को भारत में 11वीं और 12वीं शताब्दी में अभिभूत कर दिया था और बहुत से लोगों को नास्तिक और धर्म-विरोधी मान कर उन्हें समाज से निकाल कर उनको पदच्युत कर दिया था, उन लोगों ने इस्लाम के संदेश का स्वागत किया।
मुहम्मद बिंकासिम ने भ्रमण शासकों द्वारा पीड़ित जाटों और अन्य जातियों की सहायता से सिंध को जीता था। सिंध को जीतने के बाद उसने आरंभिक विजेताओं की नीति का अनुसरण किया था। ‘उसने देश में शांति स्थापना के उद्देश्य से ब्राह्मणों को सरकारी नौकरियों में नियुक्त किया। उसने उन्हें अपने मंदिरों की मरम्मत करने और अपने धर्म का अनुसरण करने की इजाजत दी। भूमि राजस्व वसूली का काम भी उन्हें सौंपा गया और उनके सहयोग से परंपरागत ढंग से स्थानीय नागरिक प्रशासन में उनको बनाए रखा।‘ (इलिएट- हिस्ट्री ऑफ इंडिया)। जब ब्राह्मण लोग भी, कम से कम कुछ लोग भी, म्लेच्छों का समर्थन करने को तैयार हो गए तो उस समय देश की सामाजिक स्थिति को सामान्य नहीं कहा सकता। स्पष्टतः उस समय समाज इतना विघटित हो गया था और उसमें इतनी अशांति थी कि सबसे अधिक अधिकार संपन्न वर्ग के लोग भी अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करते थे। ऐसा संभवतः प्रतिक्रांति के कारण हुआ था। विभिन्न विरोधी शक्तियों के समर्थन से क्रांति को पराजित किया जा सकता है, लेकिन विजयी प्रतिक्रांति की शक्तियाँ क्रांति से उत्पन्न सामाजिक विघटन के कारणों को मिटा नहीं सकतीं।
भारत में बौद्ध क्रांति को पराजित नहीं किया गया था, उसका पतन उसकी आंतरिक कमजोरियों के द्वारा हुआ था। क्रांति समर्थक सामाजिक शक्तियाँ इतनी सुदृढ़ नहीं थीं कि वे क्रांति को सफल बनातीं। इसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का पतन हो गया और देश में आर्थिक विनाश, राजनीतिक दमन और बौद्धिक अराजकता तथा आध्यात्मिक संकट उत्पन्न हो गया। व्यावहारिक रूप से संपूर्ण समाज पतन और विघटन की दुखदायी प्रक्रिया से त्रस्त था। यही कारण है कि केवल शोषित और पीड़ित लोग ही इस्लाम के झंडे के नीचे नहीं गए, जिन्हें वहां सामाजिक और राजनीतिक समानता के अधिकार दिए गये, वरन उच्च वर्गों के लोगों ने अपने स्वार्थ-साधन के लिए अपनी सेवाएं इस्लाम के सेनापतियों को प्रदान कीं। इससे यह प्रकट होता है कि जनसामान्य पूरी तरह से निराश था और उच्च वर्ग के लोग पूरी तरह भ्रष्ट हो चुके थे।
हिंदू संस्कृति के प्रबल समर्थक हावेल ने, जिनके विरुद्ध मुसलमानों का प्रशंसक होने का आरोप नहीं है, भारत में इस्लाम के प्रचार के संबंध में लिखा है – ‘जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार लिया उन्हें मुसलमान नागरिकों के सभी अधिकार अदालतों में मिले, जिनमें कुरान के आधार पर नियम-कानून चलते थे और उनमें आर्यों के कानून और परंपराओं के आधार पर विवादों पर विचार नहीं किया जाता था। हिंदुओं की उन नीची जातियों में इन बातों का बड़ा प्रभाव पड़ा, जिन्हें ब्राह्मण व्यवस्था के कानूनों के द्वारा पीड़ित किया गया था और उन जातियों को अस्पृश्य, अपवित्र और शूद्र कह कर तिरस्कृत किया जाता था।‘
(हावेल – आर्यन रूल इन इंडिया)
जो लोग ब्राह्मण-व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण मानते हैं उनके लिए उक्त आलोचना प्रशंसात्मक नहीं कही जाएगी। जो भी हो, यह स्पष्ट है कि मुसलमानों के आक्रमण के समय भारत में ऐसे बहुत-से लोग थे जो हिंदू धर्म और कठोर ब्राह्मण-परंपरा के प्रति निष्ठावान नहीं थे और इस्लाम के समानता वाले कानूनों को पाने के लिए अपनी विरासत को छोड़ने के लिए तैयार थे। इस्लाम ने विजयी हिंदू प्रतिक्रिया के अत्याचारों से पीड़ित लोगों को संरक्षण प्रदान किया।
एक अन्य स्थल पर हावेल ने अरब मसीहा हजरत मुहम्मद की शिक्षाओं के आध्यात्मिक मूल्यों की निन्दा की है, लेकिन भारत में उसके प्रचार के संबंध में महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया है। ‘इस्लाम के दर्शन के कारण नहीं, उसके सामाजिक कार्यक्रम के कारण भारत में बहुत-से लोगों ने उसे स्वीकार लिया।’ निस्संदेह सामान्य जनता को उसके दर्शन से अधिक सरोकार नहीं था। वे उसके सामाजिक कार्यक्रम की ओर आकृष्ट हुए जिसने उनके जीवन को सुधारने का अवसर प्रदान किया। कोई खराब दर्शन अर्थात् प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का संबंध ऐसे सामाजिक कार्यक्रम से नहीं हो सकता जो पीड़ित जनता का समर्थन प्राप्त कर सके। ऐसा इसलिए हुआ कि इस्लाम के सामाजिक कार्यक्रम के पीछे उसका दर्शन था जो हिंदू दर्शन से अच्छा था। हिंदू दर्शन सामाजिक विघटन और अराजकता के लिए जिम्मेदार था और इस्लाम ने भारतीय पीड़ित जनता को उससे निजात दिलायी। इस वक्तव्य के द्वारा हावेल ने यह स्वीकार किया। 13वीं और 14वीं शताब्दी में जब इस्लाम को भारत में सफलता मिली और जब वह अपनी मूल क्रांतिकारी भूमिका छोड़ चुका था उस समय भी अपने सामाजिक क्रांतिकारी स्वभाव के कारण उसने भारत में अपनी जड़ें जमा लीं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी पतनावस्था में भी इस्लाम ने आध्यात्मिक, सैद्धांतिक और सामाजिक प्रगति का प्रतिनिधित्व किया, जो हिंदुओं के अनुदारवाद की तुलना में अधिक प्रगतिशील था।
हावेल भारतीय-यूरोपीय संस्कृति के प्रशंसक के रूप में विख्यात है, वह इस संस्कृति को संपूर्ण मानव-चेतना का सर्वोत्कृष्ट रूप मानता है। दूसरी ओर मुसलमानों के प्रति वह कटु आलोचक था। उसके विचारों के विरुद्ध यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि वह हिंदुओं के विरुद्ध था। यथार्थ यह है कि वह हिंदुओं का पक्षपाती था। इस कारण जब इतिहासकार के रूप में उसे भारत के अतीत में ऐसी घृणात्मक बातें मिली और जिस समय देश की परिस्थितियां खराब थीं तो उसने उनकी कड़ी भर्त्सना नहीं की। उसने लिखा है : ‘भारत में इस्लाम की विजय के कारण बाहरी नही थे। उनका कारण मुख्यतः यह था कि आर्यावर्त में राजनीतिक पतन की वह स्थिति थी जो हर्ष की मृत्यु के बाद यहां व्याप्त थी।
“इस्लाम के मसीहा के सामाजिक कार्यक्रम में….इस्लाम पर विश्वास लाने वाले लोगों को समान आध्यात्मिक स्तर दिया गया – इससे इस्लाम ने राजनीतिक और सामाजिक सामंजस्य स्थापित किया और उससे उसका साम्राज्यवादी लक्ष्य पूरा हुआ। इस्लाम में, जीवन के व्यवहार से औसत आदमी को खुशी प्रदान करने के लिए पर्याप्त व्यवस्था थी, उसके अंतर्गत उसे संतोष मिला था। भारत में इस्लाम उस समय चरम सीमा में प्रकट हुआ जब बौद्ध दर्शन और अनुसार ब्राह्मणवाद के संघर्ष के कारण देश में संकट उत्पन्न हो गया था। उनके कारण संपूर्ण उत्तर भारत में राजनीतिक मतभेद उत्पन्न हो गए थे।”
(हावेल- आर्यन रूल इन इंडिया)