
— रामस्वरूप मंत्री —
कभी अपने परिवार से भी विद्रोह कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में जाना और पांच साल प्रशिक्षक तक का सफर तय करने के बाद ऐसा क्या हुआ जो भंवर मेघवंशी को इस संगठन से घृणा हो गई, घृणा भी ऐसी हुई कि उन्होंने न केवल आरएसएस से नाता तोड़ा बल्कि रा.स्व. संघ की देशतोड़क प्रवृत्ति से दो-दो हाथ करने की भी मन में ठान ली। यूं तो आत्मकथा अनेक लिखी जाती हैं लेकिन भंवर मेघवंशी की आत्मकथा न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे देशभक्ति का दम भरने वाले संगठन की पोल खोलती है, बल्कि दलितों, आदिवासियों का इस संगठन के सवर्ण नेतृत्वकर्ता किस तरह दुरुपयोग करते हैं वह भी बताती है। प्रकाशन संस्थान नवारुण ने उनकी आत्मकथा को प्रकाशित कर देश के आदिवासियों, दलितों और सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष करने वाले लोगों के संघर्ष के औचित्य को और पुष्ट किया है तथा एक नई दृष्टि दी है।
अपनी आत्मकथा मैं एक कारसेवक था में वे लिखते हैं मेरे मन में आज भी यह सवाल उठता है कि जब मेहतर समाज के आदिपुरुष वाल्मीकि ऋषि के हाथ में रामायण रचने वाली कलम थी तो आज तक उनके वंशजों के हाथ में झाड़ू और सिर पर कचरे की टोकरी क्यों है। पर संघी दुष्प्रचार के सामने कौन टिक सकता है? तमाम दलित जातियों को यह समझाने के प्रयास हो रहे हैं कि तुम्हारी इस दुर्दशा के लिए मुगल, यवन, पठान जैसे मुसलमान जिम्मेदार हैं, क्योंकि इनके आने से पहले भारत में जाति तो थी मगर जातिगत भेदभाव नहीं था। सारे गंदे काम मुस्लिम शासकों की देन हैं, जिसकी वजह से समाज में दलितों का स्थान सीमित हो गया है।

मतलब यह कि हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था उनके द्वारा विगत 5000 साल से किये जा रहे शोषण और गुलाम बनाकर रखने की मनुवादी ब्राह्मणवादी अमानुष व्यवस्था का दोष जातिवादी हिंदुओं पर नहीं है। सभी दलितों को यह बता दिया गया है कि उनके पूर्वज बहुत ही महान शक्तिशाली योद्धा थे जो जमकर लड़े, जब हार गए तो मुगलों ने उन्हें गुलाम बना लिया। संघ के मुताबिक सारी जातिगत प्रताड़ना का कारण विधर्मी मुस्लिम हैं ना कि घोर जातिवादी सवर्ण हिंदू। इनकी चालाकी देखिए कि कैसे साफ साफ बरी हो गए! जिनकी जिम्मेदारी थी उन्होंने किसी और को जिम्मेदार ठहरा दिया। इससे बड़ी धूर्तता और क्या हो सकती है? पर क्या किया जा सकता है! 1925 में रोपी गई विषबेल अब खूब फल-फूल रही है, आज भी दलितों का विकृत इतिहास रचा जा रहा है।
पुस्तक में भंवर मेघवंशी ने आरएसएस के संगठन तंत्र, विचारधारा, हिंदू राष्ट्र की कल्पना, मनुवादी समाज व्यवस्था, का समर्थन, मुस्लिम समाज के प्रति घृणा तथा अन्य प्रगतिविरोध की वकालत आदि का बहुत विस्तार से अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक केवल दलित-आदिवासी बच्चों को ही नहीं बल्कि हर एक भारतीय युवक युवती को पढ़नी चाहिए ताकि वे जान सकें कि एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए ऐसी मानसिकता का ना होना अनिवार्य है। भंवर ने कलम को हथियार बनाकर दलितों आदिवासियों को जागृत करने का संकल्प दोहराया है। संघ पर भंवर के सवाल महज किसी बहसबाजी या सैद्धांतिक जुगाली वाले नहीं हैं, ये तो अनुभवजनित हैं, ठोस और जमीनी हैं, असलियत और आम लोगों के सरोकारों से भरे हुए हैं। आखिर संघ का हिंदुत्व क्या है, किसके लिए है, भारत के बारे में उसका क्या स्वप्न है, क्या संघ की विचारधारा और राजनीति से भारत का भला होगा । इन सब सवालों का जवाब इस पुस्तक में है। संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों की राजनीति बेइंतहा नफरत, साजिश, छल, प्रपंच और विभाजनकारी सोच को इस किताब ने बड़े विश्वसनीय ढंग से बेपर्दा किया है।
आत्मकथाओं की सूची में ‘मैं एक कारसेवक था’ एक और आत्मवृत्तांत भर नहीं है। भंवर मेघवंशी ने दलित दासता का वर्तमान उपस्थित किया है। जाति तंत्र के वर्चस्व की गुत्थी समझनी हो तो यह किताब बड़े काम की है।
संघ का असली चेहरा क्या है इसे समझने के लिए इस किताब को पढ़ना जरूरी है। यह किताब दलित नौजवानों के लिए दिशानिर्देश का काम भी करती है। इस आत्मकथा का सबसे अहम पहलू यह है कि देश को परम वैभव के पथ पर ले जाने का दावा करनेवाले आरएसएस की कथित सांस्कृतिक सोच और जाहिल, जहरीले राजनीतिक मंसूबों की परत दर परत असलियत खोलती है। किताब संघ परिवार के मनुष्य के बारे में दो नजरिए और अमल को तथा एक कार्यकर्ता की आपबीती भी बयां करती है ।
भरत मेघवंशी की इस किताब को मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के राष्ट्रीय महासचिव संदीप पांडेय ने मुझे भेंट किया और किताब की भूमिका पढ़ने के बाद मैं इसे पूरी पढ़े बगैर नहीं रह सका। वास्तव में किताब आरएसएस के छुपे चेहरे बेनकाब करती है और इस किताब को हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो देश को समझना चाहता है तथा देश में धर्मनिरपेक्षता को कायम रखना चाहता है। उन्हें भी पढ़नी चाहिए जो यह जानना चाहते हैं कि वास्तव में आरएसएस देश को किधर ले जाना चाहता है। किस तरह से गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार 2002 के दंगों के समय मूकदर्शक बनी रही, उसके बाद राजस्थान में विहिप ने त्रिशूल बांटकर राजस्थान में भी वही सब दोहराने की कोशिश की और प्रवीण तोगड़िया हों या विहिप के अन्य नेता, जिनके जहरिले भाषणों को रोकने के लिए भंवर जी ने प्रयास किए, इन सब बातों का खुलासा इस किताब में हुआ है। बधाई भरत मेघवंशी जी को और प्रकाशन संस्थान नवारुण के संचालकों को।
किताब – मैं एक कारसेवक था
लेखक – भंवर मेघवंशी
प्रकाशक – नवारुण, बी 303, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर -9, वसुन्धरा, गाजियाबाद
कीमत – 250 रुपए
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