— रमाशंकर सिंह —
भिंड जिले में स्थित मेरे पैतृक गॉंव से ‘नेताजी‘ की सैफई की दूरी बहुत नहीं है, कौवा उड़े तो पचास किमी से भी कम। बीच में पड़ती हैं कुँवारी, चंबल और यमुना नदियॉं। और इन नदियों को करीब बीस किमी के बीहड़ जिन्हें शहरी मूढ़ पत्रकारों ने ‘चंबल की घाटी’ के नाम से प्रचारित कर रखा है।
मुलायम सिंह अपने गॉंव सैफई में तो पहले से ही नेताजी थे लेकिन हम लोगों के लिए मुलायम सिंह ही थे जब तक कि वे पूरे यूपी में नेताजी के नाम से मशहूर न हो गये। मैं अपने गाँव में तो नेताजी कहलाया पर चंबल में भाई साब बना रहा और बाहर नाम से जाना जाता रहा।
जब नेताजी 1977 में यूपी में मंत्री बने तो उसी समय नियति ने मुझे भी दिल्ली से उठाकर मप्र से चुनाव लड़वाकर मंत्रिपरिषद में बिठा दिया था। जनता पार्टी टूटी तो नेताजी और मैं दोनों ही लोकदल में थे और चौ.चरण सिंह हमारे सर्वमान्य नेता! नेताजी पर लिखने को बहुत कुछ है पर आज नहीं!
श्री मुलायमसिंह यादव यानी नेताजी को राजनीति में सिर्फ यह सहूलियत मिली थी कि उनका जन्म यादव परिवार में हुआ था जो यूपी में एक सशक्त मध्यमवर्णीय और बड़ी आबादी की जाति है, शेष सब उन्होनें अर्जित किया था और मात्र मेहनत से। यह वह समय था जब कांग्रेस के जनाधार और नेहरू की चट्टानी छवि में डा. लोहिया दरार डाल चुके थे। कांग्रेस ने बड़े ही प्रयासपूर्वक खुद को एक उच्चतम जाति का दल बना लिया था और शेष समाज की नियति बन चुकी थी कि वे पिछलग्गू ही रहेंगे। नेताजी से पहले रामसेवक यादव और रामनरेश यादव, दो नेता हो चुके थे लेकिन रामसेवक जी अपनी सोशलिस्ट वैचारिक प्रतिबद्धता और सैद्धांतिक राजनीति के कारण व्यावहारिक न हो सके जबकि रामनरेश यादव में वो बात नहीं थी जो उन्हें यूपी का नेता बना सकती, हालांकि मुख्यमंत्री के नाते उन्हें अवसर मिल चुका था। पिछड़ों को राजनीतिक नेतृत्व दिये जाने का आंदोलन डा. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी जोरदार ढंग से उठाकर फैला चुकी थी और पिछड़ी आबादी में सुगबगाहट हो चुकी थी कि अब हमें नेतृत्व खुद करना है।
ये नेताजी ही थे जिन्होंने पूरे उप्र के गॉंव गॉंव में दिन रात की परवाह किये बिना कम साधनों जैसे मात्र एक जीप या अम्बैसेडर कार द्वारा घूम घूमकर अपने कार्यकर्ता बनाये, उनके सुख-दुख में ऐसा साथ दिया जिसका आज तक इस राज्य में कोई सानी न हो पाया। जब पिछड़े विशेषकर यादव इकट्ठे हुए तो मुसलमान भी साथ आने की तैयारी करने लगे कि कांग्रेस ने एकमुश्त हिंदू वोट लेने के लिए मुसलमानों का चुनी हुई जगहों पर पुलिस द्वारा नरसंहार और कुछ स्थानों पर प्रायोजित हिंदू मुसलमान दंगे भी करवाये जिसमें पीएसी (यूपी की सशस्त्र पुलिस) की भूमिका खुलेआम चुन-चुन कर मुसलमानों को मारने, आतंकित करने की रही। मुसलमान पूरी तरह तैयार थे कि कांग्रेस का साथ छोड़ना है। कुछ विशेष क्षेत्रों में गूजर, काछी और गडरिया आदि जैसी गरीब छोटी जातियॉं भी नेताजी ने अपने राजनीतिक गठजोड़ में जोड़ीं और कई स्थानों पर मजबूत स्थानीय उम्मीदवार भी।
चौ. चरण सिंह के नेतृत्व में विशेष तौर पर पश्चिमी उप्र के जाट और मुसलमान किसान भी कांग्रेस-विरोध में खड़े हुए थे। नेताजी ने सबसे अधिकतम समन्वय कर पूरे प्रदेश में एक विकल्प खड़ा कर दिया और कांग्रेस धराशायी हो गई। कांशीराम व बामसेफ का दलित आंदोलन भी गति पकड़ चुका था जिसकी मुखिया मायावती बनायी गयी थीं। एक गठबंधन यह भी हुआ जब नेताजी की सपा और कांशीराम की बसपा मिली तो ऐतिहासिक जीत हुई। काश कि यह गठजोड़ बना रह सकता कि इससे अधिक मजबूत सामाजिक समीकरण संभव ही नहीं हो सकता था। पर हिंदुत्व की ताकतें ऐसे कैसे मैदान छोड़ सकती थीं? बसपा-सपा गठबंधन बिखरा, कांग्रेस शून्य की ओर बढ़ी और मंदिर आंदोलन ने जोर पकड़ा।
यही समय था जब नेताजी की राजनीतिक परीक्षा हुई और वे सचमुच ही नेता साबित हुए। अलोकप्रियता के डर से उन्होंने वह सब नहीं किया जो कि एक आम राजनीतिक व्यक्ति कर सकता था। भाजपा का उदय हुआ और सरकारें बनीं। बहिन जी अरबों खरबों के चक्कर में फँसती रहीं और एक समय ऐसा भी आया जब अमर सिंह नाम के कुख्यात दलाल ने नेताजी के पूरे परिवार पर अपनी काली साया डाल दी। नेताजी मुलायम सिंह का बृहद परिवार भी अमर सिंह के कारण बदनाम होना शुरू हुआ और इस सब का फायदा उठानें में भाजपा ही सक्षम थी और उसने चूक नहीं की। इसमें एकमात्र अपवाद नेताजी के पुत्र अखिलेश और उनकी बहू डिंपल थी जो अमर सिंह के चंगुल से दूर रह पाये।
यदि किसी भी तरह यूपी में नेताजी सभी पिछड़ों का नेतृत्व करने में सफल होते तो 17 फीसद अल्पसंख्यक मिलाकर वे सदैव बहुमत लाने में सफल होते रहते लेकिन नेताजी को यह समझ नहीं आया कि दीर्घकालिक लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं है बल्कि राजनीतिक + सांस्कृतिक है। संस्कृति पक्ष उनकी लड़ाई का हिस्सा नहीं बन सका जबकि संघ व भाजपा ने इसी आधार पर अपना बुनियादी जनाधार विस्तृत कर लिया और करते चले गये। आज भी कर रहे हैं। सांस्कृतिक मुद्दों की समझ आमतौर पर आज के राजनीतिज्ञों को नहीं होती जबकि डा लोहिया के समाजवाद की अवधारणा में सांस्कृतिक और रचनात्मक कामों का पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण है। नेता लोग यदि महीने में एक दिन भी बुद्धिजीवियों, कवियों, साहित्यकारों की संगत कर लें तो उनकी दृष्टि परिपूर्ण हो सकती है लेकिन यह तो आज की वास्तविकता है कि राजनीतिज्ञ समझते हैं कि उनके साथ बैठने का मतलब है वक्त बर्बाद करना।
खैर ! नेताजी जी जैसा जीवट का व्यक्ति, एक लक्ष्यभेदी, सबसे मेहनती, दिन के चौबीस घंटों में वक्त पड़ने पर 20-22 घंटे तक काम करना, अपने कार्यकर्ताओं की जी-जान से मदद करनेवाला, इतनी दूर तक व्यावहारिक कि लगने लगे कि सिद्धांत पीछे छूट गये पर लपक कर फिर से नीति पर कायम हो जाना, हर जिले की चुनावी नब्ज समझने वाला, जीत को ही प्राथमिकता पर रखना, शत्रु को कभी माफ न करना खासतौर पर कमजोर शत्रु को और शक्तिशाली शत्रु से समझौते भी कर लेना आदि आदि तमाम ऐसे विरले गुण थे जिससे मिलकर नेताजी का व्यक्तित्व बना था। वे सबसे संवाद बनाये रखते थे, चाहे राजीव गांधी हों या अटल बिहारी या आडवाणी या कॉमरेड सुरजीत और मोदी हों या कोई और?
1977 से 1983 तक मेरे उनके खट्टे-मीठे संबंध बने रहे और उसके बाद 2003 तक कोई संवाद नहीं हुआ। 2003 में नेताजी ने अमरसिंह की मध्यस्थता में मप्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री के अनुरोध को स्वीकार कर मेरे आखिरी चुनाव के दिन करीब 250 जीपों में लदे सशस्त्र एक हजार कार्यकर्ता यूपी की सीमा पर भेजकर, पुलिस व प्रशासन की खुली मदद से तीन दर्जन बूथों को लूटकर मुझे मामूली अंतर से हराकर अपना बदला ले लिया। यह एकदम नेताजी की कार्यशैली थी, अंतिम समय तक छोड़ना नहीं किसी को, जो कभी भी आपके आड़े आया हो या कि ऐसा भ्रम भी हो।
अब संपूर्ण विरासत को अखिलेश को संभालना है जिन्हें नेताजी ने दस साल का समय दिया, खुद पीछे हटकर नई पीढ़ी को सीखने और अपनी गलतियों से सबक सीखने का। नेताजी का एक तरीका भी यदि अखिलेश अपना लें कि सबसे खुलकर मिलें और बात करें। जहॉं संभव हो मदद करें। और बृहत्तर पिछड़ा वर्ग की एकता जिसके पीछे अल्पसंख्यक जरूर जुड़ेंगे। पर शुद्धत: राजनीतिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक + सांस्कृतिक + रचनात्मक + संघर्ष की राह से।
नेताजी! आपको मेरा ससम्मान पूरी मोहब्बत से अंतिम प्रणाम कि आपने हिंदी प्रदेश की राजनीति को बदला। एक झोंपड़ी से उठकर तमाम अवरोधों के होते हुए कभी भी हिम्मत न हारते हुए आप मुख्यमंत्री बनते और बनाते रहे। मैं उम्मीद करता हूँ कि शायद आपके उत्तराधिकारी पुत्र आपके एक सपने को साकार कर सकें कि राष्ट्रीय स्तर पर एक सोशलिस्ट पार्टी का गठन हो जिसका फैलाव बिहार, मप्र, राजस्थान, छग, बंगाल, कर्नाटक आदि कुछ प्रदेशों तक हो। यह आज भी संभव किया जा सकता है यदि संकल्प लिया जाए तो।