बस्तर में मौतों का जिम्मेदार कौन; अज्ञात बीमारी, अंधविश्वास या फिर सरकार?

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14 अक्टूबर। पिछले हफ्ते छत्तीसगढ़ के बस्तर में अज्ञात बीमारी से मौतों की खबर आई। यहाँ के कई गाँवों में दहशत का माहौल बन गया। यहाँ के सुकमा और नारयणपुर जिले की कई ग्राम पंचायतों में किसी अज्ञात बीमारी से एक के बाद एक मौत की खबरें आईं। अगस्त महीने में भी खबर मिली, कि सुकमा जिले में ही रेगड़ागट्टा गाँव में 6 महीने के भीतर कम से कम 61 लोगों की मौत किसी अज्ञात बीमारी से हो गई। हालांकि इन खबरों से जनमामस पर कोई खासा असर नहीं पड़ा। असर न पड़ने की एक वजह ये भी है, कि क्योंकि खबरें स्थान विशेष तक सीमित रह गयीं।

सुकमा के मुख्य चिकित्सा अधिकारी यशवंत ध्रुव ने MBB न्यूज से बताया, कि आदिवासी इलाकों में जो मौतें हुई हैं वो किसी अज्ञात बीमारी से नहीं हुई हैं, बल्कि इलाज के प्रति उदासीनता, अज्ञानता और अंधविश्वास की वजह से हुई हैं। उनकी यह बात बेहद दुखद और गैरजिम्मेदाराना है। यह सही है कि आदिवासी आज भी बीमार पड़ने पर स्वस्थ होने के लिए अपने देवी देवताओं की प्रार्थना करते हैं। इसके अलावा वो परंपरागत इलाज करने वाले समुदाय के ओझा या वैद्य पर निर्भर रहते हैं। आदिवासी इलाकों में आज भी जंगली जड़ी-बूटी और झाड़-फूंक के भरोसे इलाज होता है।

इन सबके बावजूद एक तथ्य यह भी है कि आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की दूर दूर तक पहुंच नहीं है। गैरआदिवासी इलाकों की तुलना में आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहद कम हैं। आदिवासी आबादी में शिशु मृत्यु दर अभी भी काफी ज्यादा है। 2011 की जनगणना में बताया गया है, कि आदिवासी बच्चों में जन्म से 5 साल के भीतर हर साल लगभग 1 लाख 46 हजार बच्चों की मौत हो जाती है। आदिवासियों में कुपोषण, मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियां तो हैं ही, इसके अलावा पर्यावरण पर बढ़ते दबाव और शहरीकरण के साथ ही कैंसर जैसी बीमारी भी आदिवासियों के लिए काल बनी है।

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