केशव शरण की चार ग़ज़लें

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1.

यही हम सोचते हैं तुम अधिक कपड़े बदलते हो
कि अवसर देख कपड़ों से अधिक चेहरे बदलते हो

हमारी राह लम्बी और हम हैं दूर मंज़िल से
अजब रहबर हमारे जब कभी रस्ते बदलते हो

दुखी नाराज़ जन विश्वास करके माफ़ कर देते
क़सम खाते हुए आराम-से क़िस्से बदलते हो

बदलते ही नहीं हालात घर-बाज़ार के अपने
पुराने नाप-पैमाने सहित सिक्के बदलते हो

लगाकर आग बन सकता कि धोकर पाँव चल सकता
सियासत की निगाहों से दिली रिश्ते बदलते हो

पुरानी चाल वाले ही तुम्हारी टीम में होते
अगर नूतन ज़रूरत के लिए बंदे बदलते हो

कभी बन्दूक़ की अपनी सफ़ाई भी न की होगी
चलाने के लिए हर बार तुम कंधे बदलते हो

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

2.

जहाँ अफ़वाह को ये ज़ोर होगा
भला इंसान बच्चाचोर होगा

पुलिस के बाद बारी है उसी की
लगाता गश्त आदमखोर होगा

परस्पर पंथ टकराते रहेंगे
क़दम सरकार का कमज़ोर होगा

पुरानी तंग गलियाँ ख़त्म होंगी
अहातेदार कॉरीडोर  होगा

कि जिसके काम पर है मौन छाया
उसी के नाम का सब शोर होगा

गला काटे मगर तू चीन की ही
पतंगों में लगाये डोर होगा

वहाँ क्या शेर होगा दुम उठाये
यहाँ क्या रक़्स करता मोर होगा

3.

तरीक़ा बाग़बां का तो खुला है
चमन बरबाद करने पर तुला है

नहाया रक्त से क्या नृप नहीं था
मगर जयगान ! गोरस से धुला है

नई हर रोज़ दिल की घोषणाएँ
सनम अगले दिवस देता भुला है

चुना था आब-पानी ठीक रखने
नुमाइंदा गरल देता घुला है

जहाँ जन चार होते हैं इकट्ठा
वहीं हाकिम पुलिस लेता बुला है

4.

अगर कर रहे हैं मगर कर रहे हैं
हुई रात लम्बी सहर कर रहे हैं

अभी और ठहरो जहाँ हो वहीं पर
अभी और चिकनी डगर कर रहे हैं

वही क्यों मसीहा दवा दे रहा है
अगर कुछ न नुस्ख़े असर कर रहे हैं

अभी रहबरों की उसी रहबरी में
लुटे क़ाफ़िले सब सफ़र कर रहे हैं

उन्हें क्यों न देते प्रगति कार्य कोई
अगर मुफ़्त में वो गुज़र कर रहे हैं

ज़बर हो उठे हैं नये आज हिटलर
वहीं बुद्ध-गाँधी सबर कर रहे हैं

मरे जा रहे हैं यहाँ भक्तगण भी
महाराज ख़ुद को अमर कर रहे हैं

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