जगन्नाथ दास कृत सुन्दरकाण्ड

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— योगेन्द्र नारायण —

सुन्दरकाण्ड की हस्तलिखित प्रति सामने है। प्रति वषों से मेरे पास है, परन्तु हस्तलिखित होने की वजह से पढ़ने में हो रही कठिनाइयों के कारण जोड़तोड़ कर थोड़ा पढ़ लेने के बाद उसे वापस रख देता हूं। शब्द मिला कर लिखे गये हैं। अक्षर को समझने में भी दिक्कत। भाषा टूटी-फूटी। शब्दों का अर्थ सही सही समझ पाने की समस्या, परन्तु यही समस्या इस प्रति को पढ़ने और समझने के लिए प्रोत्साहित भी करती रही है। कोई पाण्डुलिपि विशेषज्ञ तो हूं नहीं, इसलिए ‘खत के मजनू भांप जाते हैं लिफाफा देख कर’ जैसी स्थिति नहीं। फिर भी ठानी तो पूरी प्रति पढ़ गया और यथाशक्ति समझने का प्रयास भी किया।

सुन्दरकाण्ड सुन्दर कथा। सुन्दर सिया रघुनाथ।।
सुन्दर अनुज लछन संग। सुन्दर हनिवत साथ।।

बाल्मीकि, कम्ब, कृतिवास, तुलसीदास आदि कवियों ने राम कथा प्रसंगों के वर्णन में कथा का विभाजन जिस प्रकार काण्डों में किया है और काण्डों का नामकरण किया है, जैसे बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड आदि। इस कवि ने भी कथा प्रसंग के वर्णन में इस नामकरण को स्वीकार कर लिया है और थोड़ा आगे-पीछे से सुन्दरकाण्ड की कथा में राम-हनुमान मिलन और अशोक वाटिका में सीता की खोज, लंका दहन और विभीषण का राम के पास आने तक की कथा शामिल की है, उसी प्रकार इस कवि ने राम कथा के इसी प्रसंग को सुन्दरकाण्ड में चुना है।

इस कथा प्रसंग का सुन्दरकाण्ड ही नाम क्यों? बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में राम के बाल्यकाल और राज्याभिषेक के बाद की राम कथा अंकित है।

अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड और लंकाकाण्ड में कथा का विभाजन स्थान के आधार पर है, परन्तु सुन्दरकाण्ड की कथा? कुछ कवियों ने सुन्दरकाण्ड नामकरण को भी स्थानवाची माना है। इसके लिए उनका तर्क है कि लंका में तीन पर्वत शिखर थे। सुवैल पर्वत- जिसके मैदान में युद्ध हुआ, दूसरा नील पर्वत- जिस पर राक्षस योद्धाओं के महल थे और तीसरा- सुन्दर पर्वत। सुन्दर पर्वत पर ही अशोक वाटिका थी, जो इस काण्ड की कथा की आधारभूमि थी। बात ठीक लगती है, परन्तु जमती नहीं। वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक के सभी बड़े कवियों ने इन तीनों पर्वतों को कोई महत्ता नहीं दी है। यहां तक कि नामोल्लेख भी नहीं किया है, फिर इस काण्ड का नामकरण सुन्दरकाण्ड ही क्यों?

राम कथा का मूल है राम की लोक यात्रा। लोक के साथ राम का जुड़ाव और अन्याय का प्रतिकार पूरी कथा में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और अन्तिम परिणति राम राज्य के रूप में सामने आती है, जिसमें राजा की नहीं लोक की महत्ता ही सर्वोपरि है। सुन्दरकाण्ड में हनुमान और सुग्रीव का राम से मिलन पूरी कथा का मध्य है। इस काण्ड में हनुमान का राम से मिलन और हनुमान की महत्ता का विकास केवल उनकी महत्ता का ही विकास नहीं बल्की अति साधारण समझे जानेवाले वानर और भालुओं की महत्ता का भी विकास है, जिसका प्रतिफलन समुद्र पर सेतु का निर्माण, अहंकार की लंका का दहन और व्यक्ति केन्द्रित व्यवस्था का अंत है। इस पूरी कथा में राम और हनुमान अभिन्न रूप से जुड़ जाते हैं। यह जुड़ाव सत्ता का लोक के साथ अभिन्न जुड़ाव है। सुन्दरकाण्ड में हुआ यह जुड़ाव इस काण्ड को सुन्दर बना देता है और हर विपत्ति में हनुमान यानी लोक की आराधना को प्रतिष्ठापित कर देता है।

यह तो लगता है विषयान्तर हो रहा है। मैं तो जिस हस्तलिखित सुन्दरकाण्ड की चर्चा कर रहा था, उससे दूर हट रहा हूं। राम कथा है तो उसमें रमने से थोड़ा विषयांतर तो चल जाएगा। जिस कवि ने यह सुन्दरकाण्ड लिखा है, उनका नाम जगन्नाथ है। पूरी पाण्डुलिपि  में कवि ने अपना परिचय कहीं जगन्नाथ, कहीं जगन्नाथदास और कहीं  जन जगन्नाथ के रूप में दिया है। कवि अपने आवास का भी परिचय देता है –
नगर खरवपुर सुंदर देसा।
सोग रोग नहिं होत कलेसा।
नदी वहै ताहा मन मनिआरी।
सुंदर तीर नीर उजिआरी।
चारी वीर ताहा वसै भारी।
औ ताहा वसै छत्री सो जाती।
छत्रीपति तहा वसै सिध ते राजा।
महाराज राजन सिरताजा।
महा परताप महारवि जैसा।
सुंदर सुवुधि उदार नरेसा।
।।दोहा।।
रन मह वरतन्ह मह। अचल महले तन जंघ।।
वेद विनोद भेद मह। त्रीरपती ताह वा सींघ।।
।।छपै।।
न्रीपति तहा वल सीध काज सीध स जानीवो।
व्रजा सकल प्रतिपाल दुरजन सभ भाजिआ।
धन पान पकवान विधि सो अमृत रस रूख गुर।
जन जग्रनाथ सुखवास घर सो उत्तिम नग्र खर्गपुर।

कवि कथा में प्रवेश वंदना से करता है। पहले, दस पंक्तियों में चैपाई फिर दोहा और झुलना छंद में सीता, लक्ष्मण और हनुमान सहित राम की वंदना के बाद दिल्ली के बादशाह औरंगजेब की वंदना-
।।चौपाई।।
वादसाह दिलीपति भारी। औरंगसाह साह अधिकारी।।
देह तेग मो अचल अपारा। प्रीथिवी डरै चढ़ै रनसुरा।।
अमल अंदल दुवो सजोरा। दसोदिसा कीन्हे बहोरा।।
डरही नृपति चढ़पति कंपै। डोलै मही जल चढ़े रथ चंपें
एक अछत पुहमी सभ कीन्हा। सिंधु तीर धरती सभ लीन्हा।।
।।छपै।।
अस्वपति रनपति और गजपति कहावै। छत्रपती छत्रपती छत्रगहि छत्रगहि गहावै।।
देस देस मह अनमन जस तपै अकासहि। एक सं… चहुओर सुन गढ़पति औसाहि।।
कर लं… वल हमाउकाकवर जो भए। जहांगीर सुत साह जो जै जै औरगसाह।।

इसके बाद स्थानीय राजा की वंदना के बाद अपना परिचय और उसके बाद कथा का आरंभ –

अब रघुवर गुन करौ प्रगासा। अति आनंद मन होए हुलासा।।
पावन पति नाम रघुवीरा। कलि विख हरन दोष पर पीरा।।
सीताराम नाम सुखदाता। आदि अंत सो एक विधाता।।
अनुज समेत बसहु हिए मोरा। तुह गुन अगम मोर मति थोरा।।
राम जननी नेकु मोहि हेरो। होहु दयाल हरहु दुख मेरो।।

प्रति पृष्ठ 23 पंक्तियों में कुल 226 पृष्ठों पर, हाथ से बने कागज पर जगन्नाथदास कृत इस सुन्दरकाण्ड की समाप्ति संवत 1889 फाल्गुन शुक्ल पक्ष भृगुवार को हुई।

ग्रन्थ की समाप्ति के इस संवत् से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। संवत्1889 के अनुसार ईश्वी सन् 1832 होता है। ग्रन्थ में वर्णित बादशाह औरंगजेब की वंदना का इस हिसाब से तुक नहीं बैठता, क्योंकि औरंगजेब की मृत्यु सनृ 1707 में हो चुकी थी। जगन्नाथ रचित सुन्दरकाण्ड की एक प्रति नागरी प्रचारिणी सभा में है। प्रति के कुल 110 पृष्ठ ही हैं। प्रति का अन्तिम पृष्ठ है, परन्तु उसमें रचना काल का उल्लेख नहीं है। तो क्या यह प्रति किसी अन्य जगन्नाथ की लिखी हुई है। मेरे पास की प्रति जिस प्रकार दोहा, चौपाई, अरिल, छप्पै, झुलना आदि छन्दों में लिखी गयी है, सभा की प्रति में भी इन्हीं छन्दों का प्रयोग किया गया है। दोनों प्रतियों का मिलान करने से भी यही सिद्ध होता है कि दोनों प्रतियां एक ही व्यक्ति की लिखी हैं। जैसे सभा की प्रति में-
दरवानी सौ लछुमन कहा। जाए कहहु सुग्रीव सैते।।
चैमासा बरखा गएउ सो। बोला ही रघुवीर तुरंत ते।।
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वदूत जाए कहा महाराज जाहा। रघुवर साहेव बोलावते हैं।।
लछुमन खरेहही आप……………सीता बोलावते हैं।।

यही प्रसंग मेरी प्रति में-
दरवानी सो लखन कहा। जाए कहो सुग्रीव।।
चैमासा वरखा गए। वोलाए रघुवीर।।
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दुत जाए कहा जहा महाराज बैठा रघुवीर साहेव वोलाबते है।
द्वारे लखन खडे आपुसीते उठो भूपजी आप लोते हैं।।

इससे तो यह सिद्ध हुआ कि दोनों रचना एक ही व्यक्ति की है, परन्तु रचना के समय का ज्ञान नहीं हो सका । इस सन्दर्भ में और खोजबीन से पता चला कि जगन्नाथ की कुछ रचनाएं राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर के हस्तलिखित ग्रन्थों में सुरक्षित हैं। जिनमें 1. गुरु महिमा है जो संवत् 1760 की लिखी है। 2. गुरु महिमा की दूसरी प्रति,जिसमें संवत् नहीं दिया गया है। 3.मोह मरद राजा की कथा, पत्र संख्या चार। 4. पतिबरता कथा। 5. मोह मरद राजा की कथा, रचना काल संवत् 1776। 6. मोह मरद राजा की कथा, रचना काल 1754।

औरंगजेब की मृत्यु सन् 1703 यानी संवत 1760 में हुई और जगन्नाथ की सबसे पुरानी रचना की प्रति 1754 और 1760 की मिली है इससे साबित होता है कि जगन्नाथ औरंगजेब के समय के थे। जोधपुर की प्रतियों के रचयिता जगन्नाथ को गोस्वामी तुलसीदास का शिष्य बताया गया है। तुलसीदास का निधन संवत् 1680 माना गया है। इस हिसाब से तो यह माना जा सकता है कि जगन्नाथ तुलसीदासजी के शिष्य हो सकते हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा को जगन्नाथदास की सुन्दरकाण्ड की प्रति गाजीपुर जिला के कंडेसर गांव के राम सुदीष्ट मिश्र से मिली है। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से लेकर जोधपुर तक जगन्नाथदास की रचनाओं को पाये जाने से लगता है कि इनकी रचनाओं की काफी प्रतियां हुईं और प्रतिलिपि करने वाले ने सुन्दरकाण्ड की कथा में कोई फेर बदल न करके केवल प्रतिलिपि तैयार करने का काल रचना काल की जगह दे दिया।

नागरी प्रचारिणी सभा के पास उपलब्ध आंशिक ‘सुन्दरकाण्ड’ में लिपिकाल और रचनाकाल दोनों नहीं हैं, परन्तु मेरे पास उपलब्ध पूर्ण सुन्दरकाण्ड में रचनाकाल की जगह लिपिकाल दिया है और रचनाकाल औरंगजेब के समय का है। यह स्पष्ट हो जाता है। हालांकि बिल्कुल सही संवत् अज्ञात ही है। इसी के साथ कवि के निवास की वर्तमान स्थिति भी नहीं स्पष्ट हो पा रही है। कवि ने अपने सुखवास का स्थान खर्वपुर और खरगपुर लिखा है। यह दोनों नाम एक स्थान के हो सकते हैं। इनके निवास स्थान के पास मनियारी नदी बहती है। खरगपुर तो कई हैं, परन्तु मनियारी नदी छत्तीसगढ़ में विलासपुर के पास बहती है। यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि इस नदी के पास खरगपुर नाम का स्थान है भी या नहीं। जगन्नाथदास की रचनाओं का उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक पाये जाने से लगता है कि इनका स्थान छत्तीसगढ़ में मनियारी नदी के किनारे कहीं रहा होगा।

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