— डॉ सुरेश खैरनार —
शायद मेरे किताबों के पढ़ने के क्रम में, 2022 में सबसे हैरान करने वाली किताब में मुझे इसका समावेश करना होगा ! इसलिए पश्चिम बंगाल एनएपीएम के राज्यस्तरीय कार्यक्रम में जब मुझे मुख्य वक्ता के रूप में बोलने के लिए विशेष रूप से कहा गया था तो मैंने पहली बार इस किताब के बारे में, और वर्तमान समय में भारत किस तरह के लोगों के हाथों में चला गया है और इसे मुक्त कराना हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिए यही बताने की कोशिश की ! सत्ता के नशे में कुछ लोग किस हद तक जा सकते हैं, यह इस किताब को पढ़ने के बाद समझ में आता है। और उन सत्ताधारियों के सामने हमारे देश के पचहत्तर साल पुराने सभी सांविधानिक संस्थान कैसे असहाय बने हुए हैं?
ऐसे समय जब भारत में खोजी पत्रकारिता का लोप हो चला है, निरंजन टकले जैसे लोग आशा की किरण हैं। वह चंद ऐसे पत्रकारों में हैं जिनका जमीर कायम है।
करियर की परवाह किए बिना निरंजन बता चुके हैं कि तथाकथित वीर सावरकर दरअसल कितने डरपोक थे ! वर्तमान समय के सत्ताधारी सत्ता के लिए किस हद तक जा सकते हैं, इसकी तस्वीर, निरंजन टकले ने अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की परवाह न करते हुए, पेश की है। इस किताब (“हू किल्ड जस्टिस लोया?”) के लिए तथ्यों को एकत्रित करने में उन्होंने जो कष्ट उठाए हैं और जिस साहस का परिचय दिया है उसके लिए वह पत्रकारिता का विश्व का सर्वोच्च सम्मान पाने के हकदार हैं !
निरंजन ने मराठीभाषी लोगों की लाज रखने का प्रयास किया है ! अन्यथा संघ की स्थापना से लेकर हिंदू महासभा, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना, नाथूराम गोडसे और उसे तैयार करने वाले सावरकर भी महाराष्ट्रियन ही थे। निरंजन! आप सभी की तरफ से प्रायश्चित करने का प्रयास कर रहे हो! इसलिए मैंने विशेष रूप से आपका अभिनंदन करने के लिए आनेवाले समय में भारत के कोने-कोने में इस किताब को ले जाने की शुरुआत की है!
शायद तब मैं आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा, उस समय भूगोल के मेरे शिक्षक बी.बी. पाटील के आग्रह पर, मैंने कुछ दिनों तक, आरएसएस की शाखा में जाना शुरू किया था। शाखा में बताया जाता था कि मुस्लिम बादशाह कितने हृदयहीन होते थे ! अपने पिता तथा भाई-बहनों से लेकर, सत्ता के मार्ग में आने वाले हरेक व्यक्ति की हत्या या, जेल में बंद कर देते थे। ऐसे किस्से-कहानियां सुनकर, और बंटवारे के समय हिंदुओं के ऊपर किए गए अत्याचारों के एकतरफा वर्णन सुनकर मुस्लिम समुदाय के बारे में बहुत ही खराब छवि बन जाती थी। और मैं शाखा से घर आने के पहले जान-बूझकर मुस्लिम मोहल्ले में जाकर कुछ गाली-गलौज करके ही वापस आता था। लेकिन हमारे गाँव के सभी मुस्लिम परिवारों के जीवनयापन की स्थितियां वैसी ही थीं जैसी दलितों, आदिवासियों की। हमारे जैसे जमीन-जायदाद वाले लोगों पर निर्भर होने के कारण, वे मुझे टुकुर-टुकुर देखने के अलावा कुछ नहीं करते थे।
आज पूरे देश में कमोबेश यही आलम है ! हिंदू अस्सी प्रतिशत से अधिक हैं और ज्यादातर उच्च स्तरीय संपूर्ण समाज के ऊपर अपना नियंत्रण रखते हैं। और इसीलिए बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर ने दलितों को गांव छोड़कर शहरों की तरफ चलने का आह्वान किया था ! दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय सभी को सवर्ण समाज की कृपा पर ही जीना पड़ता है। और इसी बात का फायदा उठाकर संघ, बहुजन समाज के लोगों पर, अपनी विचारधारा थोपता रहता है। शाखाओं में नफरत फैलाने वाले किस्से-कहानियां, तथाकथित बौद्धिक और खेल तक मुस्लिम विरोधी होते हैं ! और उसी शाखा से कोई नरेंद्र या अमित उम्र के सत्रह साल में जाकर इस विष को अपने भीतर भरकर जीवन की दिशा तय करता है तो उससे कोई और उम्मीद कैसे करें? यह तो नब्बे साल पहले के जर्मनी के एसएस का भारतीय संस्करण हुआ!
गुजरात में वर्ष 2000 के बाद का दशक गुजरात के लिए काला अध्याय माना जाएगा ! 2002 का दंगा, 2003 में पूर्व गृहमंत्री हरेन पंड्या की हत्या ! और 2003 से 2006 इन तीन सालों के भीतर बाईस हत्याएं ! जिनके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने “एक्स्ट्रा ज्युडिशियल किलिंग्ज” जैसी संज्ञा का इस्तेमाल किया है।
इन बाईस हत्याओं में सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसरबी और साथीदार तुलसी प्रजापति इन तीन हत्याओं का भी समावेश है ! सोहराबुद्दीन के भाई बुरहाउद्दीन के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को लिखे पत्र के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात पुलिस को आंतरिक जांच (इंटर्नल इन्क्वायरी) का आदेश दिया, और फिर गुजरात सरकार ने गीता जौहरी नामक एक महिला अधिकारी को आंतरिक जांच करने को कहा ! और उन्होंने 2006 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में इन हत्याओं के लिए अमित शाह पर उंगली उठाई थी। और इन हत्याओं के सिलसिले में 2007 में कई पुलिस अफसरों को जेल जाना पड़ा!
आखिरकार 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को यह मामला सौंपा ! लेकिन उसके पहले ही जुलाई 2010 में अमित शाह को जेल जाना पड़ा। (यह अलग बात है कि तीन महीने के अंदर ही वह जमानत पर बाहर आ गए !) और सीबीआई स्पेशल कोर्ट में सबसे पहले जिस जज को इस केस की जिम्मेदारी सौंपी गई थी जून 2014 में उनका तबादला हो गया, जो कि सर्वोच्च न्यायालय के 2012 के आदेश का उल्लंघन था! सर्वोच्च न्यायालय का आदेश था कि एक ही न्यायाधीश की देखरेख में वह मामला चलना चाहिए था ! जस्टिस बृजगोपाल लोया को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी, और वह 1 दिसंबर 2014 की सुबह, नागपुर के सरकारी अधिकारियों के अतिथियों के लिए विशेष रूप से बनाये गये रविभवन नाम के अतिथिगृह में मृत पाए गए।
जज लोया की जगह पर नये जज एम.बी. गोसावी ने 15 दिसंबर को केस को अपने हाथ में लेकर दो दिन के भीतर अंतिम फैसला दे दिया ! जबकि कि सौ से अधिक गवाह थे, और दस हजार से अधिक पन्नों का आरोपपत्र ! और सैकड़ों टेलिफोन कॉल रेकॉर्डो का भी संज्ञान नहीं लिया गया। 48 घंटों के भीतर फैसला सुनाने का मतलब क्या हो सकता है? 30 दिसंबर 2014 के दिन अमित शाह को राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार बताकर सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया ! और 19 अप्रैल 2018 को हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय ने जस्टिस लोया की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत के कारणों की जांच-पड़ताल की मांग को कचरे के डिब्बे में डाल दिया। आरोपी के निर्दोष होने की बात पर मुहर लगा दी।
आपातकाल के चालीस साल (2015) के उपलक्ष्य में एक साक्षात्कार में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि “हम लोग पिछले एक साल से अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं !” और आज आठ साल से अधिक समय हो रहा है ! श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल का समय, सिर्फ 19 महीनों का था ! यह आठ साल छ महीनों का हो रहा है ! जिस तरह से 1977 के समय, सभी लोकतांत्रिक दलों से लेकर, सिविल सोसाइटी के लोगों ने मिलकर, संयुक्त रूप से विरोध किया था आज वैसी ही एकजुटता की फिर से जरूरत है, इन फासिस्ट ताकतों का मुकाबला करने के लिए!
2022 के मई माह में, औरंगाबाद के धम्म गंगा पब्लिकेशन्स से प्रकाशित, Who Killed Judge Loya नामक निरंजन टकले की किताब 315 पेज की है। अगले ही महीने यानी जून में इसका दूसरा संस्करण छापना पड़ा। इसका मराठी अनुवाद हो चुका है, और अब गुजराती, हिंदी, कन्नड़ तथा बांग्ला में अनुवाद हो रहे हैं।
यह सीबीआई स्पेशल कोर्ट के जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की 30 नवंबर और 1 दिसंबर की दरमियानी रात में नागपुर में हुई उनकी मृत्यु को लेकर फैले विवाद पर लिखी गई किताबों में से एक है।
30 नवंबर को जज लोया अपने अन्य जज मित्रों के साथ किसी जज की बेटी के विवाह समारोह के लिए विशेष रूप से मुंबई से आए थे ! नागपुर के रविभवन नाम के शासकीय गेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे ! उनकी उम्र 47 साल थी ! और सबसे हैरानी की बात कि तीस नवंबर को उन्होंने अपनी पत्नी के साथ रात के 11. 45 तक बातचीत की थी ! और बारह बजे के बाद उन्हें तबीयत खराब होने के नाम पर नागपुर के रविनगर स्थित एक साधारण से अस्पताल में ले जाया गया, वह भी आटोरिक्शा से ! जबकि रविभवन के दो तीन किलोमीटर के दायरे में कोई भी आटोरिक्शा स्टैंड नहीं था !
और नागपुर आने के एक सप्ताह पहले, उनकी जेड प्लस सिक्युरिटी हटाने का फैसला किसने और क्यों लिया था?
नागपुर में एक विवाह समारोह के लिए, जस्टिस लोया को कुलकर्णी और मोडक नाम के दो लोगों द्वारा जबरदस्ती न्यायालय से ही सीधे मुंबई-नागपुर दुरंतो ट्रेन पर ले जाने की बात भी काफी संदिग्ध लगती है ! क्योंकि एक जज को विवाह समारोह का पहले से न्योता न हो, अचानक ही न्योता मिला हो, यह बात गले नहीं उतरती (अगर उन्हें पहले से खबर होती तो उन्होंने अपनी पत्नी को कहा होता कि मुझे फलां दिन नागपुर जाना है ! लेकिन अचानक ही उन्होंने अपने घर हाजी अली से फोन करके अपना बैग भरकर सीधा अपने सामान को मुंबई रेलवे स्टेशन पर मुंबई-दुरंतो ट्रेन के छूटने के पहले बुला लिया !) मतलब अचानक ही मोडक और कुलकर्णी नाम के लोगों ने उन्हें एक तरह से आग्रह करते हुए, ऐन समय पर कहा ! तभी तो उन्हें अपने घर पर फोन करके अपने प्रवास के लिए सामान मॅंगा लेने की जरूरत पड़ी !
और यही कुलकर्णी और मोडक जो उन्हें आग्रह करके नागपुर ले गए थे वही 30 नवंबर की रात में लोया साहब को आटोरिक्शा से रविनगर चौक के दंडे अस्पताल में ले गए, नागपुर में दो सरकारी मेडिकल कॉलेज, दो प्राइवेट मेडिकल कॉलेज तथा व्होकार्ट और हृदय रोग से संबंधित अन्य अस्पताल मौजूद रहते हुए ! दंडे अस्पताल जैसे एक सामान्य अस्पताल में ले जाने का फैसला भी काफी सवाल खड़े करता है ! इस कारण, उनके उनके रिश्तेदारों में से एक उनकी बड़ी बहन, धुलिया के सिविल अस्पताल में डाक्टर, अनुराधा बियानी ने उनके शव पर संदिग्ध निशान देखते हुए दोबारा पोस्टमार्टम की मांग की थी ! लेकिन उनकी मांग अनसुनी कर दी गयी, और आधी रात के अंधेरे में, मीडिया की नितांत अनुपस्थिति में चुपचाप अंतिम संस्कार कर दिया गया!
निरंजन टकले की किताब में इन सब सवालों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है जिसे पढ़ने के बाद मै हैरान हूँ कि हमारे देश के वर्तमान सर्वोच्च पदों पर बैठे हुए लोग कितने खतरनाक हो सकते हैं? और सबसे संगीन बात, इनके हाथों में 140 करोड़ लोगों के लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है!
जिस देश में एक जज को इस तरह अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है वहां आम आदमियों की क्या बिसात? इससे हमारे संसदीय जनतंत्र की दशा और दिशा का बोध होता है!