छह साल बाद भी नोटबंदी का दुष्प्रभाव

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— अरुण कुमार —

ह साल पहले आठ नवंबर को नोटबंदी लागू की गई थी। देश के लिए यह तगड़ा नीतिगत झटका था। ठीक-ठाक चल रही अर्थव्यवस्था अचानक ठप हो गई। सबसे बुरा असर उस तबके पर हुआ जो मुश्किल से अपनी रोजी-रोटी कमा पाता है। ज्यादातर ये लोग असंगठित क्षेत्र से जुड़े थे। यही क्षेत्र 94 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता है। इनका रोजी-रोजगार नगदी पर आधारित होता है, क्योंकि ये काफी साधारण लोग होते हैं और इनके लिए बैंक इत्यादि की प्रक्रिया पूरी करना कठिन होता है। कम से कम दो महीने तो नगदी की कमी गंभीर बनी रही और यह स्थिति साल भर तक चलती रही। इस क्षेत्र के पास कार्यशील पूँजी बहुत कम होती है। एक बार काम-धंधा ठप हुआ तो यह पूंजी चुक गई। यदि ये एक सप्ताह के लिए भी बंद हो गए तो इन्हें दोबारा शुरू करना कठिन हो गया। अपना कारोबार शुरू करने के लिए वे अनौपचारिक बाजार पर निर्भर हो गए और उन्हें इसके लिए ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ा। फलस्वरूप उनकी कम आय और कम हो गई और वे अधिक गरीब हो गए।

काले धन पर कोई असर नहीं

नोटबंदी के साथ एक गलत धारणा यह फैली कि ‘नगद मतलब काला धन’। यदि यह सही था तो अर्थव्यवस्था से नगद की निकासी के बाद काला धन खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन नगद काला धन का एक प्रतिशत से भी कम है। इसलिए यदि यह माना जाए कि सारा काला नगद बैंक में वापस आ गया, तब भी यह नहीं कह सकते कि काले धन को कोई खास नुकसान पहुँचा। लेन-देन के कम या अधिक इन्वायस से काला धन पैदा होता है, और यह बना ही रहा। यदि काली कमाई बनी रहती है तो काली नगदी फिर से बाजार में आ जाएगी। बहरहाल पूरा नगद वापस आ गया, इसलिए एक प्रतिशत काले धन पर भी असर नहीं हुआ। वास्तव में यह नए नोटों में बदल गया। ताजा आंकड़ों से यह जाहिर है कि अर्थव्यवस्था में नगदी फिर से बढ़ गई।

सरकार यदि यह चाहती थी कि काला धन इकट्ठा करने के लिए नगद की उपलब्धता कम रहे, तो फिर दो हजार मूल्य का नोट जारी करना समझ से परे है। बाद में इसने चुनावी (इलेक्टोरल) बांड जारी किया, जो सत्ताधारी दल को व्हाइट में  घूस देने का माध्यम बन गया। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में काले धन के प्रभाव को कम करने में मदद नहीं मिली और उसका प्रभाव बना ही रहा, जबकि इस गलत नीति की बहुत ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी।

अर्थव्यवस्था को झटका

सकल घरेलू उत्पाद के सरकारी आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र के योगदान का डाटा अलग से नहीं दिया जाता है। फिर भी गैरकृषि असंगठित क्षेत्र के योगदान को देखने के लिए संगठित क्षेत्र के आंकड़े का उपयोग किया जाता है। यहाँ तक कि कृषि के लिए भी माना जाता है कि लक्ष्य पूरे हो गए। सही मायने में अर्थव्यवस्था को झटका देनेवाले नोटबंदी जैसे कदम के बाद सकल घरेलू उत्पाद के आकलन की पुरानी पद्धति बेकार हो गई। इस दौरान संगठित क्षेत्र तो इलेक्ट्रानिक साधनों के माध्यम से काम करता रहा, लेकिन असंगठित क्षेत्र में स्पष्ट रूप से तेज गिरावट देखी गई, और यह सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में प्रतिबिंबित नहीं होता है।

कोई आश्चर्य नहीं कि सरकारी आंकड़े के अनुसार नोटबंदी के वर्ष (2016-17) में दूसरे दशक की सबसे ऊंची वृद्धि दर दर्ज की गई। वर्ष 2016-17 के डाटा में जो त्रुटि थी, वह आगामी वर्षों में बनी रही। असंगठित क्षेत्र तब से उबर नहीं पाया, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद के डाटा में यह परिलक्षित नहीं हुआ। इसलिए संक्षेप में कहें तो सकल घरेलू उत्पाद के सरकारी आंकड़े त्रुटिपूर्ण हैं।

इस त्रुटिपूर्ण सरकारी आंकड़े में भी यह दिखता है कि आर्थिक वृद्धि दर 2017-18 की चौथी तिमाही में 8 प्रतिशत की तुलना में 2019-20 की चौथी तिमाही में 3.1 प्रतिशत रह गई। आर्थिक वृद्धि दर में यह कमी संगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट को ही दिखाती है। नोटबंदी(और जीएसटी) का असर मांग पर पड़ रहा है। यदि 94 प्रतिशत कामगारों के रोजगार और आय में कमी होगी तो इसका असर मांग और आर्थिक वृद्धि पर पड़ेगा ही।

संगठित क्षेत्र की क्षमता के उपयोग में कमी से भी मांग में कमी का पता चलता है। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार यह करीब 72 प्रतिशत रहा। इसका प्रभाव निवेश पर भी पड़ा। 2012-13 में निवेश सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 36 प्रतिशत था, जो अब घटकर 32 प्रतिशत रह गया है। 2019 में कार्पोरेट टैक्स में भारी कटौती किए जाने के बावजूद अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा निवेश नहीं हो पाया। जब मांग घट जाती है तो कंपनियां अपने अतिरिक्त लाभ का उपयोग निवेश की जगह कर्ज चुकाने में करती हैं।

असंगठित क्षेत्र की अनदेखी

सरकार केवल संगठित क्षेत्र पर आधारित सरकारी आंकड़ों पर निर्भर रहती है। इस डाटा में अर्थव्यवस्था में भारी उछाल का दावा किया जा रहा है, इसलिए यह जरूरी नहीं लगता कि असंगठित क्षेत्र के सामने आए संकट को हल करने के लिए किसी विशेष अभियान की पहल की जाए। नीतियों में कोई सुधार नहीं किया गया और संकट बना हुआ है।

कोई आश्चर्य नहीं कि बेरोजगारी इतनी बढ़ गई है, खासतौर से युवाओं के लिए। सरकारी आंकड़ों को ही लें, तो यह महामारी के पहले ही 45 वर्षों में सबसे ज्यादा दर्ज की गई। 15 से 29 वर्ष के युवाओं के समूह में यह सबसे ज्यादा है। ज्यादा शिक्षित व्यक्ति माने ज्यादा बेरोजगारी। कुछ समय से मजदूरों की संख्या में महिलाओं की हिस्सेदारी कम हो रही है। रोजगार एवं आय में इस कमी से परिवारों में गरीबी बढ़ रही है, क्योंकि परिवार के कुछ ही सदस्य काम पा रहे हैं।

सरकारी आंकड़ों को ही देखें तो आर्थिक वृद्धि दर में कमी का अर्थ है, आय में कम से कम दस लाख करोड़ रुपए की कमी। यदि असंगठित क्षेत्र में आई हुई कमी के थोड़े हिस्से को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो आर्थिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत की बजाय नकारात्मक हो जाएगी। असंगठित क्षेत्र की आय में कमी इस आंकड़े से बहुत ज्यादा है। इसलिए इस नोटबंदी नीति से कमजोर तबके का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। नोटबंदी के बाद से इस तबके ने जो पीड़ा झेली है, जो नुकसान उठाया है, उसे देखते हुए सरकार द्वारा दिया जा रहा लाभ या समर्थन बहुत कम है।

निष्कर्ष

क्या असंगठित क्षेत्र की कीमत पर काली अर्थव्यवस्था के ‘सफल’ उन्मूलन के लिए की गई नोटबंदी को जायज ठहराया जा सकता है? असंगठित क्षेत्र की आय, आयकर सीमा से बहुत कम होती है, इसलिए इस तबके से काला धन उत्पन्न नहीं होता है। लेकिन नोटबंदी का ऐसे लोगों पर बुरा असर हुआ, काले धन के निर्माण में जिनका योगदान नहीं है, और इससे उन्हें लाभ हुआ, जिनसे काले धन का निर्माण होता है। काला धन लोकतंत्र को कमजोर करता है, लेकिन काले धन के खिलाफ सरकार द्वारा विपक्ष के चुनिंदा लोगों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई से लोकतंत्र कमजोर ही हो रहा है। काली अर्थव्यवस्था के खिलाफ हमारी लड़ाई के ये अनिच्छित परिणाम हैं और इससे बचा जाना चाहिए।

अनुवाद : संजय गौतम

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