— श्रवण गर्ग —
मोरबी से कौन जीतने वाला है? क्या भाजपा ही जीतेगी या मतदाता उसे इस बार हराने वाले हैं? प्रधानमंत्री अगर साहस दिखा देते कि दर्दनाक पुल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए भाजपा मोरबी से अपना कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी तो मतदान के पहले ही मोदी गुजरात की जनता की सहानुभूति अपने पक्ष में कर सकते थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया। प्रधानमंत्री भावनाओं में बहकर राजनीतिक फैसले नहीं लेते। वर्तमान के क्रूर राजनीतिक माहौल में इस तरह के नैतिक साहस की उम्मीद किसी भी राजनीतिक दल से नहीं की जा सकती।
यह स्थापित करने के लिए कि केबल पुल की देखरेख और उसका संचालन करने वाली कंपनी के प्रबंधकों के साथ पार्टी के बड़े नेताओं की कोई साँठगाँठ नहीं थी, मोरबी सीट जीतने के लिए भाजपा अपने सारे संसाधन दांव पर लगा देगी। कंपनी का एक मैनेजर पहले ही दावा कर चुका है कि हादसा ‘ईश्वर की मर्जी’ से हुआ है। पार्टी की जीत का श्रेय प्रधानमंत्री के नेतृत्व को दिया जाने वाला है, ईश्वर की मर्जी को नहीं।
भाजपा ने मोरबी से छह बार के विधायक और पिछले (2017 के) चुनावों के पहले कांग्रेस से भाजपा में भर्ती हुए बृजेश मेरजा की जगह कांतिलाल अमृतिया को टिकट दिया है। मोरबी का 140 साल पुराना पुल अमृतिया के सामने ही ध्वस्त हुआ था। दुर्घटना के समय के वायरल हुए एक वीडियो में एक शख्स को ट्यूब पहनकर मच्छू नदी से लोगों की जानें बचाते हुए देखा गया था। बाद में बताया गया कि वह शख्स अमृतिया ही थे। भाजपा ने अब अमृतिया के कंधों पर मोरबी सीट को बचाने की जिम्मेदारी डाल दी है। अमृतिया का वीडियो अगर वायरल नहीं हुआ होता तो मोरबी से चुनाव लड़ने के लिए भाजपा को उम्मीदवार ढूँढ़ना मुश्किल हो जाता।
लोगों की जानें बचाने वाले को तो भाजपा ने टिकट देकर पुरस्कृत कर दिया पर सरकार द्वारा उन लोगों को दंडित किया जाना अभी बाकी है जिनके कारण सैकड़ों मौतें हुईं और अनेक घायल हुए। मोरबी के भयानक हादसे में 55 बच्चों सहित 143 लोगों की जानें गयी हैं और सैकड़ों अभी भी घायल बताए जाते हैं। न्यूज पोर्टल ‘द प्रिंट’ ने गुलशन राठौड़ नामक एक महिला की मार्मिक कथा जारी की थी जिसमें बताया गया था कि इस गरीब माँ ने घटना के तुरंत बाद किस तरह बदहवास हालत में घर की रोजी-रोटी चलाने वाले अठारह और बीस साल की उम्र के अपने दो बेटों की हरेक जगह तलाश की थी।
‘मैं जब कई घंटों तक उन्हें कहीं और नहीं ढूँढ़ पायी तो मोरबी सिविल अस्पताल के मुर्दाघर पहुँची जहां पाया कि दोनों बेटे लावारिस लाशों की कतार के बीच बेसुध पड़े हुए हैं और उनकी साँसें अभी चल रही हैं। मैंने तुरंत दोनों को पास के एक निजी अस्पताल में इलाज के लिए पहुँचाया। दोनों की रीढ़ की हड्डियों में चोट पहुँची है। मुझे पता नहीं अब हम क्या तो खाएँगे और कैसे मकान का भाड़ा चुकाएँगे’’, गुलशन ने खबर में बताया था।
साल 1984 में दिसंबर 2 और 3 की दरम्यानी रात भोपाल में दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से जहरीली गैस (MIC) लीक हो जाने की हुई थी। इस दुर्घटना के कोई एक महीना पहले ही (31 अक्टूबर) प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नयी दिल्ली में हत्या हो गयी थी और लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी गयी थी। दिसंबर अंत में देश के साथ भोपाल लोकसभा सीट के लिए भी मतदान होना था। भोपाल का चुनाव स्थगित नहीं किया गया।
अर्जुन सिंह तब अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। डॉ शंकर दयाल शर्मा निवर्तमान लोकसभा में भोपाल से कांग्रेस के सांसद थे। कांग्रेस ने डॉ शर्मा के स्थान पर केएन प्रधान को भोपाल से अपना उम्मीदवार बनाया था। त्रासदी के बीच ही चुनाव प्रचार भी सम्पन्न हो गया, मतदान भी हो गया और कांग्रेस ने भोपाल सहित प्रदेश की सभी चालीस सीटें भी जीत लीं। डॉ शर्मा गैस कांड के तीन साल बाद पहले उपराष्ट्रपति और फिर राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए।
गैस कांड में जान देने वालों का सरकारी आँकड़ा 2,259 का और गैर-सरकारी आठ हजार से ऊपर का है। अपुष्ट आँकड़े बाईस से पच्चीस हजार मौतों के हैं। कोई पाँच लाख से अधिक लोग घायल और हजारों स्थायी रूप से अपंग हो गये थे। मानवीय चूक के कारण हुई इस त्रासदी में मारे गए हजारों लोगों की मौत पर इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति भारी पड़ गई थी और कांग्रेस को देशभर में ऐतिहासिक जीत हासिल हुई थी।
भोपाल गैस त्रासदी के लिए अगर यूनियन कार्बाइड प्रबंधन के साथ-साथ अर्जुन सिंह सरकार भी जिम्मेदार थी तो मोरबी हादसे के लिए गिनाए जा रहे कारण ‘भगवान की मर्जी’ के अलावा गुजरात सरकार और घड़ी बनाने वाली ओरेवा कंपनी के प्रबंधकों के बीच साँठगाँठ की ओर भी इशारा करते हैं।
मोरबी जिले में विधानसभा की तीन सीटें हैं। इनमें मोरबी और वांकानेर के अलावा टंकारा की वह सीट भी है जहां आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ था।
मोरबी की दुर्घटना के बाद भोपाल गैस त्रासदी का हवाला देते हुए चेताया गया था कि लोगों की याददश्त कमजोर होती है, वे सब कुछ भूल जाएंगे! मोरबी में पुल टूटने की घटना और गुजरात में मतदान के बीच भी समय 1984 दिसंबर जितना ही रहने वाला है। तो क्या गुजरात में मतदान सम्पन्न होने तक भोपाल की तरह ही मोरबी का भी सब कुछ भुला दिया जाएगा? गुलशन राठौड़ और उनके जैसी सैकड़ों कहानियों समेत !
भोपाल गैस त्रासदी अगले महीने की दो और तीन तारीख को अपने आतंक के अड़तीस साल पूरे कर लेगी। त्रासदी के चार महीने बाद मार्च 1985 में जब अर्जुन सिंह के नेतृत्व में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए थे तो राज्य में फिर से कांग्रेस की हुकूमत कायम हो गई थी।
मंत्री बदल गए थे पर दलाल वैसे ही कायम रहे। त्रासदी के लिए दोषी किसी भी बड़े आरोपी को सजा नहीं मिली। उसके कुछ गुनहगारों की आज भी तलाश की जा सकती है। हो सकता है मोरबी की कंपनी में बनने वाली घड़ियों की सुइयाँ साल बदलती रहें और भोपाल की तरह ही पुल दुर्घटना के असली गुनहगारों को भी कानून ढूँढ़ता रह जाए!
राजनीति तो संवेदनहीन हो ही चुकी है, क्या मानवीय संवेदनाओं से मतदाताओं के सरोकार भी खत्म हो गए हैं? अगर यही सत्य है तो फिर लोकतंत्र को भूलकर उस व्यवस्था के लिए तैयार रहना चाहिए जिसकी ओर मोरबी के पुल की देखरेख और संचालन करने वाली कंपनी के प्रमुख ने अपनी गुजराती पुस्तक ‘समस्या अने समाधान’ में इशारा किया है : ‘चीन की तरह ही देश में चुनाव बंद कर योग्य व्यक्ति को 15-20 साल का नेतृत्व दीजिए जो हिटलर की तरह डंडा चलाए।’
आपने बड़ी सटीकता एक कालखंड को एक दूसरे में संयुक्त किया है ,,
मुझको अंतिम पंक्ति थोड़ी सी अटपटी लग रही है
क्यों की यदि 15-20 साल तक कोई एक पार्टी नेतृत्व करे तो मौजूदा हालात इससे भी बुरा हो जायेगा ,,