(जयप्रकाश नारायण इमरजेंसी के दौरान जब चंडीगढ़ पीजीआई के गेस्ट हाउस में नजरबंद थे तो उनकी निगरानी की जिम्मेदारी चंडीगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी एमजी देवसहायम को दी गयी थी। देवसहायम इसी ड्यूटी के चलते जेपी के करीब आए और जेपी से उनकी खुलकर बातचीत होने लगी, जिसके आधार पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है – ‘जेपी मूवमेंट : इमरजेंसी एंड इंडियाज सेकेंड फ्रीडम’। यहां देवसहायम का एक साक्षात्कार दिया जा रहा है, जो इमरजेंसी लागू होने के बाद के दौर में जेपी को जानने-समझने के लिए बहुत अहम है। देवसहायम से यह बातचीत की है एजाज़ अशरफ़ ने।)
प्रश्न- 1 जुलाई 1975 को दिल्ली से चंडीगढ़ लाये जाने के बाद जब आप पहली बार जेपी से मिले थे, तो क्या वे परेशान दिख रहे थे?
उत्तर- भारतीय वायु सेना के एयरोड्रम पर रात करीब 10 बजे जब जेपी का विमान आया, तब एसएसपी एमएल भनोट के साथ मैं वहां मौजूद था। उन्होंने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना हुआ था। वे बिल्कुल चकित दिख रहे थे, जैसे उन्हें पता ही नहीं कि उनके साथ क्या हो रहा है।
प्रश्न – क्या वे बीमार लग रहे थे?
उत्तर – नहीं, उनकी चाल बिलकुल सामान्य थी। औपचारिकताएं पूरी होने के बाद, भनोट और मैं एक कार में जेपी के साथ बैठे और पीजीआई के गेस्ट हाउस पहुंचे। वे इतने चकित थे कि जब भनोट और मैंने उनसे विदा मांगी, तो उन्होंने हमसे पूछा कि क्या मैं दिल्ली लौट रहा हूं?
प्रश्न – क्या हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने कुछ पूछताछ नहीं की?
उत्तर – जब मैं घर लौटा तो आधी रात हो चुकी थी। मेरी पत्नी ने कहा कि बंसीलाल के कई फोन आए थे। मैंने तत्काल उनको फोन किया। जिन्होंने कहा, ‘ये साला अपने आपको हीरो समझता है। उसे वहीं पड़े रहने दो। किसी से मिलने या टेलीफोन करने की सुविधा बिलकुल नहीं देना।’
प्रश्न – जेपी के प्रति आपका रवैया क्या था?
उत्तर – मैं भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक बच्चा था, जब जेपी हजारीबाग जेल की दीवार फांदकर देश के नायक बन गए थे। मुझसे 15 साल बड़े मेरे भाई अक्सर जेपी के बारे में बातें करते थे, इस तरह जेपी मेरे बचपन के हीरो बन गये थे। आप उनके प्रति मेरे रवैये को अच्छी तरह समझ सकते हैं। आपातकाल से पहले दो साल तक मैं उस आंदोलन को करीब से देख रहा था, जिसका नेतृत्व जेपी कर रहे थे और जिसे उन्होंने संपूर्ण क्रांति कहा था। वे देश की अंतरात्मा के रखवाले बन गए थे। भले ही मैं एक सिविल सर्वेंट था, लेकिन देश का एक नागरिक भी था। मैं आपातकाल के पक्ष में नहीं था। मुझे लगता था कि वही एकमात्र व्यक्ति हैं, जो लोकतंत्र को फिर से पटरी पर ला सकते हैं।
प्रश्न – क्या इसी कारण आप जेपी से नियमित रूप से मिलने लगे?
उत्तर – चंडीगढ़ में उनकी अगवानी के एक हफ्ते बाद मैं उनसे दूसरी बार मिला। मैंने उन्हें जेल के नियम समझाए, वे किसको पत्र लिख सकते हैं, किससे मिल सकते हैं आदि। मैंने उनसे कहा कि वे जो-जो अखबार पढ़ना चाहें, मैं उनका इंतजाम कर सकता हूं। लेकिन एक-दो दिन बाद उन्होंने अखबार पढ़ना बंद कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि खबरें सेंसर की जा रही हैं।
कुछ दिन बाद उन्होंने शिकायत की कि उन्हें आइसोलेशन में क्यों रखा जा रहा है। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या शहर में कोई जेल नहीं है? मैंने कहा कि चंडीगढ़ में एक उप-जेल है, लेकिन उसमें उनके कद और व्यक्तित्व के अनुरूप सुविधा नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं एक कैदी हूं, मुझे विलासिता नहीं चाहिए। कोई साथी चाहिए, जिससे मैं बातचीत कर सकूँ। मैंने अथॉरिटीज़ से बात की कि क्या उन्हें चंडीगढ़ उप-जेल में स्थानांतरित किया जा सकता है? लेकिन मुझसे कहा गया कि उन्हें पीजीआई में ही रहना है। इन हालात में मैं अकेला ही था, जो उन्हें कंपनी दे सकता था। मैंने हर दूसरे दिन, एक या दो घंटे के लिए उनसे मिलने का एक पूरा प्लान बना डाला था।
प्रश्न – क्या वे इंदिरा गांधी के प्रति कटुता और क्रोध से भरे हुए थे?
उत्तर – नहीं, इंदिरा गांधी के प्रति उनमें कभी कटुता नहीं थी। वे अक्सर बुदबुदाते थे कि विडंबना ही है कि 20वीं सदी के सबसे महान लोकतंत्रवादियों में से एक, जवाहरलाल नेहरू की बेटी ने लोकतंत्र को नष्ट कर दिया था। वे इस हद तक कहने लगे थे कि वह देश की प्रधानमंत्री बनने के लायक ही नहीं हैं।
प्रश्न – आपके साथ जेपी और क्या-क्या बातें करते थे?
उत्तर – शुरुआत में उनकी मनोदशा अशांत थी। मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की। मैंने कहा कि आप अकेले नहीं हैं, बहुत लोग लोकतंत्र के पटरी से उतरने के खिलाफ हैं। उन्हें उम्मीद है कि जब उपयुक्त समय होगा, तो वे सारे लोग इस आपातकाल के खिलाफ उतरेंगे। मैंने कहा कि आपको भी उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।
प्रश्न – आप जेपी के काउंसलर की भूमिका भी निभा रहे थे?
उत्तर – हां, मैं उनकी काउंसलिंग कर रहा था। उन्होंने मुझसे सवाल पूछने शुरू किये कि आपातकाल की घोषणा कैसे की गई? जो कुछ हुआ था, उससे वे बेखबर थे। मैंने उनसे कहा कि आपातकाल की घोषणा पर 25 जून-26 जून की रात को राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए थे, कैबिनेट ने इसे मंजूरी देने के लिए सुबह 6 बजे बैठक की। जेपी ने मुझसे पूछा कि क्या संसद ने आपातकाल की घोषणा को मंजूरी दी थी? मैंने कहा कि इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है। उन्होंने राज्यों की भूमिका के बारे में पूछताछ की। मैंने कहा, तमिलनाडु की डीएमके सरकार को छोड़कर सभी राज्य समर्थन में आ गए हैं।
जब संसद ने आपातकाल की घोषणा को मंजूरी दी, तो मैंने उन्हें इसकी जानकारी दी। जेपी बहुत परेशान थे। मैंने उन्हें संविधान में हुए 38वें और 39वें संशोधनों के बारे में बताया, जो मौलिक अधिकारों को निलंबित करने वाली आपातकालीन घोषणाओं और अध्यादेशों की न्यायिक समीक्षा के साथ-साथ प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव पर रोक लगाते हैं। उनकी उम्मीदें धराशायी हो गईं, उन्होंने कैद में ही आमरण अनशन पर जाने का फैसला लिया।
प्रश्न – शायद यह निर्णय उन्होंने संसद द्वारा 39वें संशोधन को अपनाने के तीन दिन बाद 10 अगस्त, 1975 को लिया था?
उत्तर – बिलकुल सही। 10 अगस्त को रविवार था। उनके साले एसएन प्रसाद कलकत्ता से उनसे मिलने आए थे। मैंने उनकी मुलाकात पूर्वाह्न 11 बजे निर्धारित की थी। कार्यपालक दंडाधिकारी महेंद्र सिंह को वहां उपस्थित रहना था। जेपी से मिलने के बाद प्रसाद चंडीगढ़ के वकील पीएन लखनपाल से मिलने चले गए, तो महेंद्र सिंह मेरे आवास पर आए। मैं खाना खाने बैठा था। सिंह की निगाह घबराई हुई थी। मैं उन्हें एक तरफ ले गया और पूछा कि मामला क्या है। उन्होंने जेपी द्वारा इंदिरा गांधी को लिखे पत्र की मेरे नाम की प्रतिलिपि मेरे हाथ में रखते हुए कहा कि इसे पढ़िए।
प्रश्न – महेंद्र सिंह ने वह पत्र आपको कैसे और क्यों दिया?
उत्तर – मेरी मंजूरी के बिना जेपी का कोई भी पत्र बाहर नहीं जा सकता था। उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से लिखा था कि मैंने लोकतंत्र बहाल होने की सभी उम्मीदें खो दी हैं, इसलिए आपातकाल वापस लेने और सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई तक आमरण अनशन पर जाने का फैसला लिया है। उन्होंने कहा कि वे नमक भी नहीं लेंगे। सिंह ने मुझे यह भी बताया कि जेपी ने प्रसाद को अपने फैसले के बारे में प्रधानमंत्री को सूचित करने के लिए कहा था। मैं दंग रह गया था।
प्रश्न – क्या उस समय जेपी उत्तेजित दिखे?
उत्तर – नहीं, इसके उलट वे खुश नजर आ रहे थे। उन्होंने टिप्पणी की कि देवसहायम जी, क्या हुआ? अभी यहाँ कैसे आए? यह तो हमारे आपके मिलने का समय नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने उपवास पर जाने का फैसला क्यों किया। उनका उत्तर था कि मुझे लोकतंत्र और स्वतंत्रता के बिना जीने का मन नहीं है। और हम बहस करने लगे।
प्रश्न – क्या बहुत गर्मागर्म बहस हुई?
उत्तर – हां, यहाँ तक कि मैंने उन्हें कायर भी कह दिया। मैंने कहा कि आप जैसे लोगों के बिना, भारत एक स्थायी आपातकाल और निरंकुशता की स्थिति में भी जा सकता है। जब देश को आपकी जरूरत है, आप आमरण अनशन की बात कैसे कर सकते हैं? वे मुझे फटकारते रहे।
प्रश्न – लेकिन अंततः वे आमरण अनशन पर तो नहीं गये, आपने उन्हें कैसे मनाया?
उत्तर – कोई दलील तो कारगर थी नहीं मेरी, तो मैं उनकी भावनाओं से खेल गया। मैंने उन्हें बताया कि मैं खुद भी इंटेलिजेंस ब्यूरो की निगरानी में हूं। सबको मालूम है कि सिर्फ मैं ही आपसे मिलता-जुलता हूं। ज्यों ही यह पत्र प्रधानमंत्री को मिलेगा, उनको पता चल जाएगा कि जेपी को यह सूचना किसने दी। अब आपके उपवास से लोकतंत्र की बहाली हो या नहीं, पर मेरी नौकरी तो पक्का चली जाएगी। फिर मैं आपकी देखभाल भी नहीं कर पाऊंगा।
भावनात्मक पिच काम कर गई। वे अनशन पर जाने के अपने फैसले को वापस लेने के लिए तैयार हो गए। मैंने पत्र को फाड़ दिया, लेकिन टुकड़ों को रद्दी की टोकरी में फेंकने के बजाय, मैंने उनके अभिलेखीय मूल्य के लिए उन्हें अपनी जेब में रख लिया। मैंने महेंद्र सिंह को भी एसएन प्रसाद को बुला लाने के लिए कहा, जो दिल्ली जाने के लिए एक बस में सवार होने वाले थे। प्रसाद को बताया गया कि जेपी ने अनशन पर जाने के अपने फैसले को रद्द कर दिया है। इसके बाद भी उन्होंने कुछ लोगों को जेपी के अनशन की सूचना दे दी। कुछ दिन बाद एक आईबी अधिकारी मेरे कार्यालय में पूछताछ करने आया। मैंने उसे बताया कि जेपी अनशन पर जाना चाहते थे, क्योंकि वे उन्हें परोसे जाने वाले खराब भोजन से परेशान थे।
प्रश्न – क्या जेपी के पीजीआई में रहने के दौरान उनके इंदिरा गांधी के बीच संवाद का प्रयास नहीं किया गया?
उत्तर – मैं अक्सर उनसे पूछता था कि क्या लोकतंत्र की खातिर प्रधानमंत्री के साथ मेल-मिलाप करना उनके लिए संभव है? उन्होंने कहा कि अगर उनकी तरफ से पहल होती है, तो हम विचार के लिए तैयार हैं। हम चर्चा करने लगे कि सुलह प्रक्रिया को गति देने के लिए कौन व्यक्ति सही हो सकता है। उन्होंने शेख अब्दुल्ला का उल्लेख किया, जो जेपी और इंदिरा गांधी दोनों के करीबी थे। ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे। एक कॉमन फ्रेंड के जरिए मैं उनसे मिला।
प्रश्न – क्या जैल सिंह ने इस विचार का समर्थन किया?
उत्तर – जैल सिंह बंसीलाल के प्रतिद्वंद्वी थे। उन्होंने शेख अब्दुल्ला से संपर्क किया, जो मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए सहमत हुए। उन्होंने जेपी और इंदिरा गांधी के बीच सुलह की वकालत करते हुए एक बयान जारी किया। इसे द ट्रिब्यून ने पहले पन्ने पर छापा था। सबकुछ व्यवस्थित था। मैं अखबार लेकर जेपी के पास गया। उन्होंने अब्दुल्ला को एक पत्र लिखा कि यदि प्रधानमंत्री को दिलचस्पी हो, तो मैं सुलह के लिए तैयार हूं।
मैंने पत्र सीधे शेख को न भेजकर, गृह मंत्रालय को भेजा, जहां से इसे प्रधानमंत्री कार्यालय ले जाया गया। यहीं पर संजय गांधी इस खेल में दाखिल हुए, जबकि इंदिरा गांधी सुलह के पक्ष में थीं और उन्होंने अपने प्रमुख सचिव पीएन धर से इसके लिए रास्ता खोजने को कहा था, संजय ने पत्र को अब्दुल्ला के पास जाने से रोक दिया। इसके बजाय, उनका दूत चंडीगढ़ आया। दूत के हाथ उन्होंने वह पत्र वापस भेजा था, जो जेपी ने अब्दुल्ला को लिखा था।
प्रश्न – तो सुलह की सम्भावना अभी बनी हुई थी?
उत्तर – इंदिरा गांधी ने सुलह के प्रयास किए। उदाहरण के लिए ब्रिटेन के लेबर सांसद फेनर ब्रोकवे ने जेपी को एक पत्र लिखा, जो उन्होंने पढ़ने के लिए मुझे दिया। ऐसा लग रहा था कि पत्र प्रधानमंत्री की ओर से सुलह की याचना कर रहा था। पांच-छह दिन बाद मैंने उनसे पूछा कि क्या लेबर सांसद को उनका जवाब तैयार है। जेपी ने कहा कि कल तक उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और जब उन्होंने पत्र की तलाश की तो वह मिला नहीं। हमने पत्र की तलाश की, लेकिन वह नहीं मिल सका। उसकी चोरी हो चुकी थी।
अब तक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी थी। उनके चेहरे पर सूजन आने लगी थी, शरीर में खुजली होने लगी थी, वे हर समय खुद को खुजलाते रहते थे। एक आम आदमी के रूप में मैं देख सकता था कि वे बुरे दौर से गुजर रहे थे। ठीक से सो और खा भी नहीं पा रहे थे।
प्रश्न – आपने क्या किया?
उत्तर – मैंने पीएमओ को एक संदेश भेजा। यह वह समय था जब उनके भाई राजेश्वर प्रसाद आए थे। हमने उनके माध्यम से एक पत्र भी भेजा था। हमारे सारे संवाद इस बात से शुरू होते थे, ‘अगर जेपी जेल में मर गए…तो?’ यह दिल्ली को हरकत में लाने के लिए था। दिल्ली के मुख्य सचिव जेके कोहली 12 नवंबर को विशेष विमान से चंडीगढ़ पहुंचे।
प्रश्न – जेपी को रिहा कर दिया गया, है न?
उत्तर – अरे, इतना आसान नहीं था। फिर भी एक और तरकीब आजमाई गई। कोहली दो आदेश लेकर आए थे- एक उन्हें बिना शर्त पैरोल देना और दूसरा उन्हें बिना शर्त जमानत देना। कोहली ने कहा कि अगर जेपी ने बिना शर्त जमानत लेने से इनकार कर दिया, तो उन्हें गृह राज्यमंत्री ओम मेहता से बात करनी होगी। यह ऐसा था, जैसे वे उम्मीद कर रहे थे कि जेपी जमानत से इनकार कर देंगे, क्योंकि उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया था। मैंने जेपी को बिना शर्त जमानत आदेश स्वीकार करने की सलाह दी। उन्होंने वही किया और 12 नवंबर को उन्हें रिहा कर दिया गया।
अब वे आजाद थे, लेकिन अब पीजीआई के मरीज थे। पीजीआई के निदेशक शहर से बाहर थे। जब वे 14 नवंबर को चंडीगढ़ लौटे, तो जेपी अस्पताल से डिस्चार्ज हुए। उन्होंने 16 नवंबर को दिल्ली के लिए उड़ान भरी थी।
प्रश्न – शिक्षाविद ज्ञान प्रकाश ने अपनी पुस्तक, इमरजेंसी क्रॉनिकल्स : इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसीज टर्निंग पॉइंट में लिखा है कि आप बाद में उन आलोचकों से सहमत हुए, जिन्होंने जेपी के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने की साजिश या उनकी चिकित्सीय उपेक्षा का आरोप लगाया। आपको ऐसा क्या लगा?
उत्तर – मैंने पीजीआई का डिस्चार्ज डॉक्युमेंट पढ़ा, जिसमें कहा गया था कि जेपी किडनी की समस्या से पीड़ित थे। यह मैं पहली बार सुन रहा था। चंडीगढ़ में रहने के दौरान, उन्हें कभी नेफ्रोलॉजिस्ट के पास नहीं भेजा गया। मैंने गेस्ट हाउस की लॉगबुक भी चेक की, डॉक्टरों की टीम में कोई नेफ्रोलॉजिस्ट नहीं था, जो नियमित रूप से उसकी जाँच करता हो।
प्रश्न – ज्ञान प्रकाश ने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि आपने जेपी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके राजनीतिक मोर्चे जनसंघ को इंदिरा गांधी को हराने के लिए एक नई पार्टी में शामिल करने की उनकी योजना पर चुनौती दी थी?
उत्तर – जेपी, जैसा कि सर्वविदित है, इंदिरा गांधी से मुकाबले के लिए एक संयुक्त पार्टी बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक संगठनों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे। पीजीआई कैद के दौरान वे मुझे बेटा कहकर बुलाने लगे थे। जब उन्होंने मुझे बताया कि वे जनसंघ को नई पार्टी में शामिल कर रहे हैं, तो मैंने उन्हें आरएसएस पर उनके दृष्टिकोण के बारे में याद दिलाया। मैं उनके पास 1968 में उनके द्वारा लिखे गए एक लेख का एक अंश लेकर आया था। इसमें उन्होंने आरएसएस को एक फासीवादी संगठन कहा था।
उनका ताजा दृष्टिकोण यह था कि इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को नष्ट कर दिया था। देश को सबसे पहले इनसे मुक्ति चाहिए। मैंने कहा कि उन्हें उन कम्युनिस्टों को साथ लेना चाहिए, जिनके साथ उनका वैचारिक लगाव था। लेकिन कम्युनिस्टों से उनका मन कड़वा था, क्योंकि वे इंदिरा गांधी के साथ सहयोग कर रहे थे।
प्रश्न – लेकिन केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सहयोग किया था, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने तो नहीं?
उत्तर – आप सही हैं। लेकिन सीपीआई (एम) उत्तर भारत में मजबूत नहीं थी। जेपी ने नानाजी देशमुख और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका के प्रभाव के कारण जनसंघ को भी शामिल किया। उन्होंने बालासाहेब देवरस, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की इस प्रतिज्ञा पर विश्वास किया कि जनसंघ के सदस्य नई पार्टी बनने के छह महीने के भीतर आरएसएस से अपने संबंध तोड़ लेंगे। जब जनता पार्टी बनी, तो उसने दोहरी सदस्यता को अस्वीकार कर दिया, यानी इसके सदस्य किसी अन्य संगठन से संबंधित नहीं हो सकते थे। जेपी ने कहा कि उनके पास इन दिग्गजों पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। वैसे, उन्होंने के कामराज को संयुक्त पार्टी का नेतृत्व करने के लिए संभावित उम्मीदवार के रूप में सोचा था, लेकिन कामराज की 2 अक्टूबर को मौत हो गई।
प्रश्न – क्या आप जनसंघ-आरएसएस के सदस्यों को नई पार्टी में शामिल करने के जेपी के तर्क से राजी हो गए थे?
उत्तर – नहीं, जिला मजिस्ट्रेट के रूप में आरएसएस के साथ मेरा एक कड़वा अनुभव रहा है। वे लोग कानून का उल्लंघन करते थे। उन्होंने व्यापारियों की रक्षा की और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के कर्मियों के साथ मारपीट की।
प्रश्न – लेकिन वे आपातकाल के तो विरोध में अडिग थे, है न?
उत्तर – वे आपातकाल के अपने विरोध में उतने दृढ़ नहीं थे, जितना वे खुद को बताते हैं। उनमें से कुछ ने तो इंदिरा गांधी को माफी-पत्र भी लिखा। चंडीगढ़ में हमने उनमें से लगभग आठ-नौ को मीसा के तहत गिरफ्तार किया था। लेकिन केवल एक शख्स के लिए सभी ने माफीनामा दे दिया। आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को माफी के लिए दो पत्र लिखे, समर्थन की पेशकश की और उनसे अपने संगठन से प्रतिबंध हटाने का अनुरोध किया था।
प्रश्न – जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद क्या आप जेपी से मिले थे?
उत्तर – चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद 29 जुलाई, 1979 को मैं जेपी से मिलने पटना गया था। कदमकुआं स्थित अपने घर की दूसरी मंजिल पर उनका डायलिसिस चल रहा था। जेपी रो पड़े और बोले, ‘देवसहायम, मैं फिर फेल हो गया।’ मैंने भयावह अनुभव पाए हैं। यह हालिया इतिहास का एक सर्फ पन्ना है। स्वतंत्रता आंदोलन के शीर्ष क्रांतिकारी नेताओं में से एक, तेजतर्रार और जीवट वाले संत राजनीतिज्ञ जेपी को लग रहा था कि वे असफल हो गए हैं।
आप क्या कहना चाहते थे, बताएं। मैंने पूछा तो वे खुल गये। उन्होंने कहा कि जैसे ही जनता पार्टी सत्ता में आई, उन्होंने चंद्रशेखर को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया और उन्हें यह सुनिश्चित करने के एकसूत्री एजेंडे के साथ जनता पार्टी का प्रमुख बना दिया कि दोहरी सदस्यता समाप्त हो जाए और सत्ताधारी पार्टी वास्तव में देश पर शासन करने वाली लोकतांत्रिक पार्टी हो। जेपी ने मुझे बताया कि आरएसएस ने उन्हें धोखा दिया है, इसीलिए जनता पार्टी की सरकार गिर गई है।
प्रश्न – कुछ आवाजें आ रही हैं कि जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता को समाप्त करने का संकल्प आरएसएस के नेताओं ने केवल इसलिए लिया था, क्योंकि वे महात्मा गांधी की हत्या के लिए अनुकूल माहौल बनाने के कलंक से खुद को साफ करने के लिए वे आपातकाल का फायदा उठाना चाहते थे?
उत्तर – उन्होंने न केवल आपातकाल का, बल्कि जेपी का भी शोषण किया। जेपी की वजह से आरएसएस ने सम्मान हासिल किया, फिर धोखा उन्हें दिया और अंततः छोड़ दिया।
प्रश्न – क्या आपको लगता है कि समाजवादियों के पतन ने आरएसएस को आपातकाल विरोधी आंदोलन की स्मृतियों का एकमात्र संरक्षक बनने में सक्षम बनाया?
उत्तर – जेपी के हार्डकोर अनुयायी दूसरी पार्टियों में चले गए। नीतीश कुमार ने भी बीजेपी के साथ गठबंधन किया। बिहार के किसी भी नेता लालू यादव, नीतीश कुमार या रामविलास पासवान ने जेपी की स्मृति को बनाए रखने और इसके संरक्षक बनने की कोशिश ही नहीं की। इसने आरएसएस को अपने लिए आपातकाल विरोधी आंदोलन को उपयुक्त बनाने में सक्षम बनाया है।
प्रश्न – क्या आप बीजेपी-आरएसएस को लोकतंत्र का झंडाबरदार मानते हैं?
उत्तर – नहीं, मैं नहीं मानता। पिछले कुछ सालों में हालात आपातकाल के मुकाबले ज्यादा खराब हो गए हैं।
प्रश्न – सचमुच?
उत्तर – आपातकाल में लोग कम से कम जानते थे कि उनका दुश्मन कौन है। आज तो सारे संस्थान नष्ट हो रहे हैं। अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासन है और संघीय सिद्धांत का क्षरण हो रहा है। यह एक राष्ट्र, एक चुनाव क्या है? यह लोकतांत्रिक भावना नहीं है। विमुद्रीकरण नीति के बारे में क्या? उनके आर्थिक एजेंडे ने तबाही मचा दी है। यहां तक कि 2019 के चुनाव के बाद कई लोगों को चुनाव की निष्पक्षता पर संदेह पैदा हुआ है। वे निश्चित रूप से लोकतंत्र के ध्वजवाहक नहीं हैं।
(सर्वोदय जगत से साभार)