— नारायण देसाई —
गांधी की सबसे बड़ी धर्म-सेवा यह थी कि उन्होंने सच्चाई, सादगी और त्याग जैसे व्यक्तिगत गुणों को सामाजिक मूल्य बनाने की कोशिश की। सामाजिक संदर्भ में अमल के बिना ये गुण अर्थहीन हैं। धर्म के वैयक्तिक नियम-कायदे उन्हें व्यक्तिगत आचरण तक सीमित कर देते हैं। गांधी ने इन गुणों को सामाजिक आधार दिया और दैनंदिन के जीवन में उनका मूल्य आँका। उन्होंने इन मूल्यों को किताबी या धार्मिक साधना तक सीमित नहीं रहने दिया, उन्हें जमीन पर उतारा, उन्हें आम लोगों के जीवन से जोड़ा।
यह सही है कि जब भी उन्होंने रूढ़िवाद-विरोधी विचार रखे, प्रायः उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। छुआछूत के खिलाफ उनके अभियान के दौरान उनकी हत्या के प्रयास किए गए। कभी-कभी उनका सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार भी किया गया। पर आजीवन सत्याग्रही गांधी के लिए वह खेल का हिस्सा था, जो अपने विचारों पर अमल के बदले में मिलने वाले कष्ट झेलने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। मैं वह वाकया कभी नहीं भूल सकता जब गांधी ने मेरे पिताजी को इस बात के लिए डाँटा था कि उन्होंने कस्तूरबा और मेरी माँ को पुरी के जगन्नाथ मंदिर जाने से क्यों नहीं रोका, जहाँ अछूतों का प्रवेश वर्जित था। मैंने इस प्रसंग का वर्णन अपनी पुस्तक ‘अग्निकुंड में खिला गुलाब’ (नवजीवन प्रकाशन, अमदाबाद) में किया है।
गांधी मानते थे कि कुछ शाश्वत सिद्धांत होते हैं जिनको लेकर समझौता नहीं किया जा सकता, और उन पर अमल करने के दौरान अपना जीवन कुर्बान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मानवता जिस दिन आदर्शों में विश्वास करना बंद कर देगी, वह गिरकर पशुता के स्तर पर चली जाएगी।
अंतःकरण के अपने पैमाने से धर्मग्रंथों की व्याख्या करने में गांधी को कभी हिचक नहीं हुई। उनकी सबसे प्रसिद्ध पुनर्व्याख्या उऩकी आध्यात्मिक प्रेरणा के मुख्य स्रोत गीता पर उनकी टीका है। वे मानते थे कि ‘महाभारत’ कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध का कोई ऐतिहासिक वर्णन नहीं है, बल्कि मनुष्य के हृदय में निरंतर चलने वाले युद्ध का एक रूपक है। गीता के अठारह अध्यायों में प्रस्तुत कृष्ण और अर्जुन के संवाद के पीछे ऐसा क्षुद्र उद्देश्य नहीं हो सकता कि गुरु शिष्य को युद्ध में शामिल होने के लिए उकसाए। यह ऐसा संवाद है जिसने कम से कम तीन हजार सालों से विद्वानों और साधारण लोगों, दोनों को समान रूप से प्रेरित किया है, क्योंकि यह ऐसे विषय पर प्रकाश डालता है जो हर सदाशयी व्यक्ति से संबंध रखता है।
गांधी के कुछ ईसाई प्रशंसकों और कुछ मिशनरियों ने हमें इस पर कायल करने की कोशिश की है कि गांधी ने अपनी सारी प्रेरणा ईसाइयत से ली थी। गांधी ने खुद बेहिचक यह स्वीकार किया कि वे विभिन्न धर्मों के ऋणी हैं। बाइबिल में वे खासकर ‘सरमन ऑन द माउंट’ से बहुत प्रभावित थे, ऐसा उन्होंने एक बार नहीं, कई बार कहा है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि बाइबिल य़ा खासकर ‘सरमन ऑन द माउंट’उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत था। जब उन्होंने पहली बार बाइबिल पढ़ी, इंग्लैंड में, जहां वे विद्यार्थी थे, वे ‘सरमन’ से प्रभावित हुए थे। लेकिन उनके लिए ‘सरमन’ बचपन में पढ़ी शामल भट्ट की पंक्तियों को ही प्रतिध्वनित करता था : ‘जो बुराई का बदला भलाई से देता है, वही इस दुनिया में वास्तव में विजेता है।’ जब ईसाइयों ने उन्हें अपने धर्म में दीक्षित करना चाहा, उन्होंने श्रीमद् राजचंद्र से सलाह माँगी। राजचंद्र ने कहा कि वे स्वयं निर्णय लें, पर पहले अपने धर्म के बारे में अध्ययन जरूर कर लें। गांधी को गीता प्रेरित करती थी और धर्मान्तरण उन्हें एक पुराना पड़ चुका खयाल जान पड़ता था।
गांधी का जीवन में अंतिम लक्ष्य था मोक्ष, और उनका प्रयास था कि स्वयं को शून्य़वत बना लें ताकि संपूर्ण जीवन-जगत के साथ एकमेक हो जाएँ। ‘यंग इंडिया’के 3 अप्रैल 1924 के अंक में उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इस नाशवान ऐहिक राज्य की कोई अभिलाषा नहीं है। मैं तो ईश्वरीय राज्य- मोक्ष- को पाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अपने इस ध्येय की सिद्धि के लिए मुझे गुफा में जाकर बैठने की कोई आवश्यकता नहीं है। गुफा तो मैं अपने साथ ही लिये फिरता हूं। अलबत्ता इसकी प्रतीति-भर हो जाए।…मेरे लिए तो मुक्ति का मार्ग है अपने देश और उसके द्वारा मनुष्य जाति की सेवा के निमित्त सतत परिश्रम करना। मैं संसार के प्राणिमात्र से अपना तादात्म्य कर लेना चाहता हूँ।’’
चीनी लेखक लिन यु तांग ने कहा था कि भारत धर्म का नशेड़ी देश है। बचपन से लेकर मृत्यु तक गांधी का पूरा जीवन धार्मिकता से ओत-प्रोत था, पर वे कभी भी धर्मोन्मत्त नहीं थे। हालांकि जो भाषा वे बोलते थे वह धार्मिकता का पुट लिये हुए होती थी, पर हमेशा उनके चित्त में धर्म का वही अर्थ होता था जो सभी धर्मों का आधार है- दूसरे शब्दों में, वे असल में आध्यात्मिकता की बात करते थे।
‘यंग इंडिया’ के 19 सितंबर 1929 के अंक में उन्होंने लिखा : ‘‘रामराज्य़ से मेरा अभिप्राय हिंदू राज से नहीं है। रामराज्य से मेरा अभिप्राय है दैवी राज्य अर्थात ईश्वर का साम्राज्य। मेरी दृष्टि में राम और रहीम एक ही हैं। मैं एक ही ईश्वर को जानता हूँ और वह है सत्य तथा सदाचार का ईश्वर।’’
2 मई 1934 को ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में छपी खबर के मुताबिक उन्होंने कहा था कि ‘मेरे सपने के रामराज्य में राजा और रंक को समान अधिकार हासिल होंगे।’ यह भी गौरतलब है कि हालांकि वे स्वयं पूरी तरह धार्मिक इंसान थे, अपने देश के लिए ऐसी सरकार चाहते थे जो सभी नागरिकों से, उनके धर्म का खयाल न कर, समान व्यवहार करे। 1931 में कराची कांग्रेस में मौलिक अधिकारों से संबंधित जो प्रस्ताव पास हुआ उसे गांधी का अनुमोदन हासिल था। इस प्रस्ताव में यह घोषित किया गया था कि ‘राज्य सभी धर्मों की बाबत तटस्थता बरतेगा’, और इस बात को आखिरकार स्वतंत्र भारत के संविधान में जगह दी गयी