— सुज्ञान मोदी —
विवेक एक दिव्य दृष्टि है। इसे साधना से जागृत करना पड़ता है। यह दृष्टि जागृत हो जाए तो सारे निर्णय सही होने लगते हैं। विवेक के अभाव में ही मनुष्य से गलतियाँ होती हैं। इसलिए ज्ञानी सत्पुरुषों ने विवेक अर्जित करने पर इतना बल दिया है।
अपने 17वें वर्ष में श्रीमद् राजचंद्र ने जब ‘मोक्षमाला’ की रचना की तो उसके शिक्षापाठ में गुरु-शिष्य के बीच एक सुंदर संवाद के माध्यम से यह समझाने की कोशिश की है कि ‘विवेक क्या है?’ यह पूरा प्रसंग इस प्रकार है—
लघु शिष्य—भगवन्! आप हमें स्थान-स्थान पर कहते आए हैं कि विवेक महान श्रेयस्कर है। विवेक अंधकार में पड़े हुए आत्मा को पहचानने का दीपक है। विवेक से धर्म टिकता है। जहाँ विवेक नहीं वहाँ धर्म नहीं, तो विवेक किसे कहते हैं? यह हमें कहिए।
गुरु—आयुष्मानो! सत्यासत्य को अपने-अपने स्वरूप से समझना, इसका नाम विवेक है।
लघु शिष्य—सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कहना तो सभी समझते हैं। तब महाराज! वे धर्म के मूल को पा गए ऐसा कहा जा सकता है?
गुरु— तुम जो बात कहते हो उसका एक दृष्टांत भी तो दो।
लघु शिष्य—हम स्वयं कड़वे को कड़वा ही कहते हैं, मधुर को मधुर कहते हैं, जहर को जहर और अमृत को अमृत कहते हैं।
गुरु— आयुष्मानो! ये सब द्रव्य पदार्थ हैं। परंतु आत्मा को कौन-सी कटुता और कौन-सी मधुरता, कौन-सा विष और कौन-सा अमृत है, इन भावपदार्थों की इससे क्या परीक्षा हो सकती है?
लघु शिष्य—भगवन्! इस ओर तो हमारा लक्ष्य भी नहीं है।
गुरु—तब यही समझना है कि ज्ञानदर्शनरूप आत्मा के सत्य भावपदार्थ को अज्ञान और अदर्शनरूप असत् वस्तु ने घेर लिया है। इसमें इतनी अधिक मिश्रता हो गई है कि परीक्षा करना अति अति दुष्कर है। आत्मा ने संसार के सुख अनंत बार भोगे फिर भी उसमें से अभी तक मोह दूर नहीं हुआ और उसे अमृत जैसा माना यह अविवेक है; क्योंकि संसार कड़वा है, कड़वे विपाक को देता है। इसी प्रकार वैराग्य जो इस कड़वे विपाक का औषध है, उसे कड़वा माना; यह भी अविवेक है। ज्ञान, दर्शन आदि गुणों को अज्ञान और अदर्शन ने घेरकर जो मिश्रता कर डाली है उसे पहचानकर भाव अमृत में आना, इसका नाम है। अब कहो कि विवेक कैसी वस्तु ठहरी?
लघु शिष्य—अहो! विवेक ही धर्म का मूल और धर्मरक्षक कहलाता है। यह सत्य है। आत्मस्वरूप को विवेक के बिना पहचाना नहीं जा सकता, यह भी सत्य है। ज्ञान, शील, धर्म सब विवेक के बिना उदय को प्राप्त नहीं होते, यह आपका कहना यथार्थ है। जो विवेकी नहीं है वह अज्ञानी और मन्द है। वही पुरुष मतभेद और मिथ्यादर्शन में लिपटा रहता है। आपकी विवेक संबंधी शिक्षा का हम निरंतर मनन करेंगे।
मनुष्य केवल मनुष्यदेह की वजह से विशेष नहीं है, बल्कि वह वास्तव में अन्य जीवों की अपेक्षा इस रूप में विशेष है कि उसे विवेक अर्जित करने की शक्ति प्राप्त है। मोक्षमाला के शिक्षापाठ-4 में इसे स्पष्ट करते हुए श्रीमद् कहते हैं—
“तुम पूछोगे कि सभी मानवों को मोक्ष क्यों नहीं हो जाता? इसका उत्तर भी मैं कह दूँ। जो मानवता को समझते हैं वे संसारशोक से पार हो जाते हैं। जिनमें विवेकबुद्धि का उदय हुआ हो उनमें ही विद्वान मानवता मानते हैं। उससे सत्यासत्य का निर्णय समझकर परम तत्त्व, उत्तम आचार और सद्धर्म का सेवन करके वे अनुपम मोक्ष को पाते हैं। शरीर के रूप में मनुष्य दिखने मात्र से विद्वान उसे मनुष्य नहीं कहते; बल्कि उसके विवेक के कारण उसे मनुष्य कहते हैं। जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो होंठ और एक नाक हों उसे मनुष्य कहना, ऐसा हमें नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा समझें तो फिर बन्दर को भी मनुष्य मानना चाहिए। उसने भी तदनुसार सब प्राप्त किया है। उसके तो विशेषरूप से एक पूँछ भी है। तब क्या उसे महामनुष्य कहें? नहीं, जो मानवता समझे वही मानव कहलाए।”
शिक्षापाठ-27 में श्रीमद् कहते हैं कि विवेक के साथ-साथ हमें उसपर प्रयत्नपूर्वक और सचेत रहकर दृढ़ता से आचरण भी करना होता है। इसे ही ज्ञानियों ने यत्ना कहा है। श्रीमद् के शब्द हैं—“जैसे विवेक धर्म का मूल तत्त्व है, वैसे ही यत्ना धर्म का उपतत्त्व है। विवेक से धर्मतत्त्व को ग्रहण किया जाता है और यत्ना से वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है। …प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक करना, यह विवेकी श्रावक का कर्तव्य है।”
‘मोक्षमाला’ में शामिल अपने अत्यंत भावपूर्ण काव्य ‘सामान्य मनोरथ’ में भी श्रीमद् अपनी युवावस्था में ज्ञान, विवेक और विचार को ही नित्य बढ़ाते जाने का मनोरथ रखते हुए कहते हैं—
ते त्रिशलातनये मन चिंतवि, ज्ञान, विवेक, विचार वधारुं,
नित्य विशोध करीं नवतत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चारुं;
संशयबीज ऊगे नहीं अन्दर, जे जिननां कथनो अवधारुं,
राज्य सदा मुज ए ज मनोरथ, धार, थशे अपवर्ग, उतारुं।।