— तीस्ता सीतलवाड़ —
खुद भारत की संसद भारत के संविधान को ईंट दर ईंट ध्वस्त करने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। कानूनों में संशोधन और नए कानून धड़ाधड़ पास किये जा रहे हैं, बहस और विचार-विमर्श की बारीकी में गए बिना, और संसद की स्थायी समितियों की तो कतई परवाह ही नहीं की जाती। 2019 में 10 दिसंबर की आधी रात को, जिस दिन मानवाधिकार दिवस था, संसद ने भेदभावपूर्ण नागरिकता (संशोधन) कानून, 2019 पास किया, 80 मतों के मुकाबले 311 के बहुमत से। इसी के साथ गृहमंत्री ने पूरे देश में एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस) लागू करने की चेतावनी दी।
समानता और कोई भेदभाव न किये जाने के संवैधानिक मूल्यों को धता बताकर संसद ने धर्म के आधार पर भेदभाव किये जाने की एक लकीर खींच दी। इस्लामी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान को विशेष रूप से चुनकर वहां के गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिक के तौर पर सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया तेज करना इस कानून का मकसद था। संशोधन 12 दिसंबर तक कानून में परिणत हो गए।
देशभर में इस कानून के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए, जिसमें अल्पसंख्यक आगे-आगे थे, और तनिक भी असहमति बर्दाश्त न करने वाली सरकार को इन विरोध प्रदर्शनों ने सकते में डाल दिया। लेकिन कोविड-19 और लाकडाउन के कारण ये विरोध-प्रदर्शन थम गए। दिल्ली में विरोध-प्रदर्शनों को अपराध और उनमें शामिल लोगों को अपराधी की तरह चित्रित किया गया। पंद्रह से अधिक युवा नेताओं को, जो सभी मुस्लिम थे, आतंकवाद निरोधक कानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया। सीएए 2019 और एनआरसी-एनपीआर को स्थगित कर देना पड़ा। अलबत्ता हमें बीच-बीच में सत्ताधारियों द्वारा यह चेताया जाता रहा है कि वह प्रक्रिया फिर शुरू की जाएगी।
2024 के आम चुनाव से पहले वह समय आ गया है। गृह मंत्रालय की 2021-22 की सालाना रिपोर्ट बताती है कि नागरिकता कानून में 2019 में किए गए संशोधन के तहत नागरिकता देने के लिए मंत्रालय ने अधिकारियों को कह दिया है। हालांकि इस कानून के नियम अभी तक नहीं बने हैं, पर रिपोर्ट कहती है कि 2021 में सीएए के प्रावधानों के तहत नागरिकता के 1414 प्रमाणपत्र जारी किए गए।
क्या इसका मतलब है कि गृह मंत्रालय के शासकीय फरमान और 2009 में हुए संशोधन के औपचारिक प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए सीएए 2019 के भेदभावकारी प्रावधानों पर अमल शुरू हो गया है?
हां, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए विदेशियों को, जो हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उन्हें नागरिकता मंजूर करने के लिए 29 जिलों के जिलाधीशों और नौ राज्यों के गृह सचिवों को अधिकृत किया गया है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि “अफसरों को अधिकृत करने से उपर्युक्त श्रेणियों के आप्रवासियों को भारत की नागरिकता देने की प्रक्रिया में तेजी आएगी, क्योंकि निर्णय स्थानीय स्तर पर लिये जाएंगे।” इस बीच संसद को ‘आश्वस्त’ किया गया (अगस्त 2021) कि जब तक नियमों को अंतिम रूप नहीं दे दिया जाता, सीएए 2019 के क्रियान्वयन का सवाल ही नहीं उठता।
जैसा कि हमने बताया, 29 जिलों के बाद दो और जिले इस सूची में शामिल किए गए, गुजरात के आणंद और मेहसाणा। ये 31 जिले छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में हैं। छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, लेकिन इन सरकारों ने तो अभी इस बारे में कुछ कहा नहीं, बल्कि राजनीतिक तौर पर तो ये सरकारें सीएए 2019 तथा देशभर में एनपीआर और एनआरसी के प्रस्तावित क्रियान्वयन का विरोध करती आ रही हैं।
सीएए के साथ दो और हथियार – एनपीआर और एनआरसी – भी इस्तेमाल किए जाएंगे और यह तितरफा हमला एक बड़े मानवीय संकट को जन्म देगा, जैसा कि असम में हुआ। अगर असम में एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख लोग गैर-भारतीय घोषित किए गए (31 अगस्त, 2019) – तो इनमें से करीब साढ़े पांच लाख लोग ही सियासी तौर पर लांछित मुस्लिम समुदाय के हैं। अन्य 2.2 लाख भी लोग असम बार्डर पुलिस द्वारा ‘विदेशी’ तथा निर्वाचन आयोग के स्थानीय अधिकारियों द्वारा ‘संदिग्ध मतदाता’ घोषित किए गए हैं। इन प्रभावितों में 60 फीसद महिलाएं हैं और उनमें बड़ी संख्या बच्चियों की है। देश की विविधता को प्रतिबिंबित करती एक युवा टीम प्रति सप्ताह कोई 40 परिवारों से संपर्क करती है, हर माह डेढ़ सौ लोगों को कानूनी और अर्धकानूनी सहायता मुहैया कराती है और भयावह डिटेंशन कैंपों में बंद कर रखे गए लोगों को मुक्त भी कराती है।
असम की 3.3 करोड़ की आबादी में 1.3 लोग कंगाल हो गए हैं और नागरिकता से हमेशा के लिए वंचित करके सामाजिक रूप से बहिष्कृत बनाए जा रहे हैं। असम ने इस कवायद पर, जनकल्याण के कामों में कटौती करके, 1700 करोड़ रुपए खर्च किए। परिणाम से राजनीतिक तौर पर असंतुष्ट (क्योंकि पर्याप्त संख्या में मुस्लिम गैर-भारतीय घोषित नहीं किए गए!), अब वे सारी कवायद फिर से करना चाहते हैं। नागरिकता का यह ‘दस्तावेजी इम्तिहान’ एक अवर्णनीय सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर सकता है। हरेक वंचित सामाजिक समूह कुपित तथा दूसरों के साथ टकराव में रहेगा, इस दावे के साथ कि उसे भारत का नागरिक घोषित किया जाए।
पूरे देश के पैमाने पर एनआरसी-एनपीआर
भारत सरकार ने, यूपीए के शासनकाल में, भारत में रह रहे लोगों का एक नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) बनाया था। नागरिकता कानून, 1955 के 2003 में बनाए गए नियमों के तहत एनपीआर बना था। इन नियमों पर संसद में विस्तृत चर्चा नहीं हुई थी, और न तो दिसंबर 2019 से पहले, नागरिक आजादी के सक्रिय पक्षधरों ने इन नियमों का विरोध किया था। 2010 के एनपीआर में आधार के डेटाबेस के लिए इकट्ठा किए गए आंकड़ों को शामिल किया गया था। 2003 के नियमों में यह कहीं नहीं कहा गया था कि एनपीआर (नेशनल पापुलेशन रजिस्टर) को समय-समय पर नवीकृत किया जाएगा लेकिन 2015 में नाम, जेंडर, जन्मतिथि और जन्मस्थान, निवास स्थान और माता-पिता का नाम आदि तथ्यों को नवीकृत किया गया तथा आधार, मोबाइल, राशन कार्ड नंबर इकट्ठा किए गए। अब गृह मंत्रालय कहता है कि जन्म, मृत्यु और प्रवास के कारण हुए बदलावों को समाहित करने के लिए एनपीआर को शीघ्र अपडेट करने की जरूरत है। इससे एक वाजिब चिंता पैदा होती है, वह यह कि यह कवायद असल में पिछले दरवाजे से व्यक्तियों के दस्तावेजी डेटा इकट्ठा करने की कवायद है, जिससे बाद में उन डेटा का इस्तेमाल करते हुए उनकी नागरिकता ‘संदिग्ध’ घोषित की जा सके। इस प्रक्रिया में महामारी के कारण विलंब हो गया लेकिन यह फिर शुरू की जाएगी।
असम में नौकरशाही के जरिए बहिष्करण की जो प्रक्रिया चलायी गयी उसकी राष्ट्रीय स्तर पर नकल की जा रही है। इससे कितने बड़े पैमाने पर सामाजिक उथल-पुथल, जटिलताएं और लड़ाई-झगड़े पैदा होंगे? हर कोई आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर ‘दूसरों’ के बारे में यही सोचने लगेगा कि ये दुश्मन हैं। नफरत का जहर, जो पहले ही हमें काफी कमजोर कर चुका है, भारतीय समाज को तबाह कर सकता है, इसे इस हद तक नष्ट-भ्रष्ट कर सकता है कि इसकी पहचान ही मिट जाए।
यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि सत्ता में बैठे लोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके सत्ता में बने रहें, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा और रोजगार जैसे असल मुद्दों से ध्यान हटा सकें – और सरकारी संसाधनों को चुपचाप पूंजीपतियों के हवाले कर सकें।
नफरत की सरकारी नीति, मीडिया प्रबंधन और सियासी औजार
मेरा संगठन ”नफरत का पिरामिड” का प्रयोग करता है, शांति के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को यह प्रशिक्षण देने के लिए, कि वे जमीनी स्तर पर किस तरह हस्तक्षेप करें, नजर रखें, लोगों से संवाद कायम करें और उन्हें अभियोजन के लिए प्रेरित करें। बरसों से हमने देखा है कि नफरत का इस्तेमाल एक सियासी औजार की तरह किया जा रहा है। न्यायिक आयोग की रिपोर्टों में बीच-बीच में फूट पड़ने वाली सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं दर्ज हुई हैं लेकिन हमने इनके मद्देनजर सामाजिक या राजनीतिक समझ विकसित नहीं की है और न्यायिक प्रणाली अभी तक कमजोर ही साबित हुई है।
राज्य की परियोजना की तरह नफरत के इस्तेमाल के पीछे मकसद भारतीयों के एक बड़े हिस्से को और उसमें खासकर मुसलमानों को मानवीय दर्जे से वंचित करना और दरकिनार करना है। सदियों से हमने, दलितों के साथ, और स्त्रियों के साथ भी, यही किया है, जो धर्मशास्त्रों में निषिद्ध और लांछित थे।
स्वतंत्रता और समानता ऐसे अधिकार हैं जिनका आपस में कोई बैर नहीं है। लिहाजा, अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार (संविधान का अनुच्छेद 19 (1) ) अहम है तो जिस तरह अभिव्यक्ति की आजादी नहीं छीनी जा सकती, उसी तरह कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14), या गरिमापूर्ण ढंग से जीने का अधिकार भी नहीं छीना जा सकता, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा।
फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता से भी ताल्लुक रखती है। कानून के समक्ष समानता – जो बोला या लिखा जा रहा है वह समानता, बंधुता और समाज के किसी वर्ग के सम्मान को चोट तो नहीं पहुंचाता? 2014 से सुप्रीम कोर्ट ने भी नफरती बयानों (हेट स्पीच) की बाबत कुछ न्यायिक समझ विकसित की है और अनुच्छेद 19 (1) के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति और नफरती बयानबाज़ी में फर्क किया है और गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार को कानून के समक्ष समानता के अधिकार के समतुल्य माना है।
आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गुनाह समझा जा रहा है। नफरती बयानों को अभी विधिवत वैधता तो नहीं मिली है लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे हुए ताकतवर लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने के लिए, एक सुनियोजित सरकारी परियोजना की तरह, नफरती बयानबाज़ी को इस्तेमाल कर रहे हैं।
अब, घृणा-चालित राजनीति के इस माहौल में, अगर सीएए-एनपीआर-एनआरसी जैसी खतरनाक नीतियां लागू की जाएंगी, तो हम कल्पना कर सकते हैं कि इसके क्या नतीजे होंगे?
अनुवाद : राजेन्द्र राजन