गांधी और सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)

— नारायण देसाई —

नुष्य की सामाजिक कसौटी, मनुष्य की पारस्परिकता में निहित है, नाते में निहित है। सुभाषचन्द्र बोस के साथ गांधीजी का सम्बन्ध एक ओर तीव्र मतभेदों का तो दूसरी ओर उत्कट प्रेम का, एक तरफ गांधीजी के नेतृत्व को चुनौती देने वाला तो दूसरी तरफ बतौर नेता गांधीजी के प्रति आदरभाव का था। इसमें से जिस नाते का बन्धन बना, वह छूटा उसके बावजूद आखिर तक टिका रहा। यह नाता किसी उपन्यास को रसपूर्ण कथानक प्रदान करने वाला हो सकता है। इस कथानक में दोनों व्यक्तित्वों की भिन्नता, दोनों के आदर्शों की भिन्नता, दोनों के साधनों की भिन्नता के साथ-साथ दोनों का बड़ा कद, दोनों की उत्कट राष्ट्रभक्ति, अपने-अपने साधनों के प्रति दोनों का आग्रह यह सब मिलकर राष्ट्र के जीवन में मित्रों की भाँति था। इस लेखक के एक जर्मन मित्र ने एक बार कुछ चिढ़कर, हिन्दुस्तानियों की फरियाद करते हुए कहा था, ‘मैं यह समझ ही नहीं पाता कि आपके मकानों की दीवालों पर गांधी और सुभाष की तस्वीरें साथ-साथ कैसे टँगी रहती हैं? आप लोगों को सिद्धान्तों की परवाह है अथवा नहीं?’ भारत के लोग अनेक विरोधाभासों के बीच भी अक्षत रहने वाले गुणों के उपासक हैं, यह बात उसके गले उतारना आसान काम नहीं था। गांधीजी और नेताजी के बीच के नाते को हम एक दीवाल पर टँगी दो तस्वीरों की माफ़िक देख सकते हैं।

हिन्दुस्तान के पश्चिमी और पूर्वी कोनों से आए इन दोनों अगुवाजनों के स्वभाव, चरित्र और नेतृत्व में कई अन्तर थे और थोड़ी समानता भी थी।

दोनों के बीच उम्र में एक पीढ़ी का अन्तर था। जब पहली बार दोनों सम्पर्क में आए तब एक का प्रौढ़ नेतृत्व देश पर छा चुका था और दूसरे का नेतृत्व अभी मनोरथों में ही था। दोनों जब जुदा हुए तब उनके विचारों और सिद्धान्तों के भेद देश और दुनिया जान चुकी थी। हमारे रास्ते जुदा हैं, यह दोनों अच्छी तरह जान चुके थे। संकट के एक प्रसंग में सुभाष के ‘प्रतिस्पर्धी (पट्टाभि) की हार, मेरी हार है’, यह गांधीजी कह चुके थे और वही गांधी सुभाष को यह भी चुके थे कि, ‘यदि अपने मार्ग से तुम सफल हुए तब तुम्हें अभिनन्दन का पहला तार मेरा ही मिलेगा।’

परस्पर विरोधों के झंझावात के बीच सुभाषबाबू ने गांधीजी के विषय में कहा था ‘लौकिक विषयों के कई क्षेत्रों में महात्मा गांधीजी के साथ एकमत नहीं हो पा रहा हूँ फिर भी उनके व्यक्तित्व के बारे में मेरा आदर किसी से कम नहीं है। मेरे बारे में गांधीजी का अभिप्राय क्या है यह मैं नहीं जानता हूँ। उनका मत चाहे जो भी हो परन्तु मेरा लक्ष्य तो हमेशा उनका विश्वास सम्पादित करना ही रहा है। इसका एकमात्र कारण है कि बाकी सभी का विश्वास प्राप्त करने में सफल हो जाऊँ और भारत के श्रेष्ठ मानव का विश्वास न पा सकूँ तो वह मुझे कचोटता रहेगा” (चट्टोपाध्याय, भवानीप्रसाद, ‘गांधीजी ओ नेताजी’, (बांग्ला), पृष्ठ 6)

यह बात सुभाषबाबू ने 1939 में कही थी, जब गांधीजी के साथ अनेक बातों में उनका विवाद हो चुका था। गांधीजी ने सुभाषबाबू के बारे में 1924 में कहा : “मेरा यह सौभाग्य है कि मैं अपने विरोधियों के दृष्टिकोण से विषय को देख सकता हूँ और इस प्रमाण में उनके दृष्टिकोण का सहभागी भी बन सकता हूँ। मेरा दुर्भाग्य यह है कि अपने दृष्टिकोण से उनसे विचार करवा नहीं सकता। अगर यह मुमकिन होता तो हमारे बीच मतभेद के बावजूद, हम एक आनन्दमय एकमत साध सकते।”

गांधीजी और सुभाषबाबू में कुछ गुण समान थे। दोनों को हिन्दुस्तान के प्रति उत्कट प्रेम था। दोनों देश के लिए मर-मिटने के लिए तैयार थे। दोनों में तीव्र बुद्धिमत्ता थी। देश और दुनिया की गतिविधियों के बारे में दोनों की अपने-अपने किस्म की समझदारी थी। अलग-अलग ढंग से सही लेकिन दोनों का व्यक्तित्व अत्यंत मोहक था। दोनों में त्याग करने की असाधारण शक्ति थी। यज्ञ-कुण्ड में कूद पड़ने का साहस भी दोनों में था।

परन्तु कुछ बुनियादी बातों में दोनों का व्यक्तित्व एक-दूसरे से बिलकुल अलग था। गांधीजी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य आध्यामिक (आत्मसाक्षात्कार या खुद शून्यवत हो जाना) था। सुभाषबाबू का लक्ष्य राजनीतिक था। वे देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए ही जीवित थे। दोनों के बीच सबसे बड़ा भेद साधनशुद्धि की बाबत था। गांधीजी साध्य जितना ही आग्रह साधन के विषय में रखते थे इसलिए उन्हें हिंसा द्वारा स्वराज भी मिल रहा हो तो भी नहीं स्वीकार था। जबकि सुभाषबाबू स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी साधन के इस्तेमाल करने में यकीन रखते थे। गांधीजी के मन में देश का स्वराज भी खुद की आध्यात्मिक साधना के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में था इसलिए वे स्वराज्य प्राप्ति के लिए स्वार्पण के लिए तैयार थे। सुभाषबाबू के लिए देश का स्वराज्य ही ऐसा उदात्त लक्ष्य था जिसके लिए वे अपना बलिदान देने को तैयार थे। गांधीजी के मन में सामाजिक मुक्ति और व्यक्तिगत मुक्ति परस्पर गुँथी हुई थी। सुभाषबाबू के के लिए देश की आजादी का ही एकान्तिक महत्त्व था।

सुभाषबाबू मिले तब गांधीजी का व्यक्तित्व प्रगल्भ था। सुभाषबाबू के व्यक्तित्व से अदम्य उत्साह टपकता था। गांधीजी और सुभाषबाबू जितनी अवधि में साथ रहे उस अवधि में जब जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन का आह्वान किया तब सुभाषबाबू मन-वचन से उनके साथ रहे; परन्तु जब जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन की लगाम खींची तब तब सुभाषबाबू उनसे मन-वचन से जुदा हो जाते थे। इस सन्दर्भ में सुभाषबाबू का गांधीजी से नाता राग-विराग का था ऐसा कहा जा सकता है।

गांधीजी की असहयोग की शंखध्वनि सुभाषबाबू ने विलायत में सुनी थी। तब वे आईसीएस की तैयारी कर रहे थे। ‘एक वर्ष में स्वराज’ की गांधीजी की पुकार ने तरुणाई से सराबोर सुभाष के हृदय पर खासा असर डाला।

आईसीएस की परीक्षा उन्होंने दी और उसमें उत्तीर्ण हुए, परन्तु अंग्रेज सरकार की चाकरी करने का विचार उन्हें असह्य लगा। अपने मन में चल रही इस जद्दोजहद को और बड़े भाई शरत् चंद्र के साथ चले लम्बे पत्रव्यवहार के अंत में मन में निश्चय पक्का कर लिया–पूरा जीवन देश को आजाद कराने में लगाना है। यह काम किस मार्ग से और किन तरीकों से होगा यह उन्हें तब स्पष्ट नहीं था। परन्तु जिसे जीवन साहस का पर्याय लगता हो उसे उस जीवन का ध्येय पता चल जाने के बाद छलांग लगाने में कितनी देर लगती है !

16 जुलाई 1921 के दिन सुभाषबाबू का जहाज इंग्लैण्ड से लौटते वक्त मुम्बई के बन्दरगाह पर लगा। मुम्बई पहुँचते ही उन्होंने गांधीजी के बारे में जानकारी हासिल की तथा गामदेवी में लेबर्नम रोड पर स्थित मणिभवन में उनसे मिलने आ पहुँचे ।

कमरे में प्रवेश करते ही सुभाष को थोड़ा झटका लगा। कमरे में चटाई पर बैठे सभी लोग मोटी खादी के कपड़े पहने हुए थे, और वे खुद विलायत से आईसीएस बनकर लौटे युवक की भाँति परदेशी पोशाक में फब रहे थे। कदम बढ़ाने में उन्हें जो संकोच हो रहा था उसे गांधीजी की एक स्मित ने दूर कर दिया। पहली ही मुलाकात में सुभाषबाबू ने असहयोग आन्दोलन के बारे में प्रश्न किए। उन्हें आशा थी कि गांधीजी के पास ‘एक वर्ष में स्वराज’ पाने का कोई व्यवस्थित क्रमबद्ध कार्यक्रम होगा। गांधीजी ने कांग्रेस के सदस्य बनाने, कांग्रेस के लिए चन्दा इकट्ठा करने और गाँव-गाँव में चरखा चलवाने की अपनी कल्पना उनके समक्ष पेश की। सुभाषबाबू को इससे सन्तोष न हुआ। उन्हें किसी खदबदाते कार्यक्रम की भूख थी। सुभाषबाबू गांधीजी के रचनात्मक कार्यों की ठंडी ताकत की खास कदर कर न सके।

सुभाषबाबू की निराशा को गांधीजी भाँप गए। उन्होंने सुभाषबाबू से कलकत्ते जाकर चित्तरंजन दास से मार्गदर्शन लेने की सलाह दी। चित्तरंजन दास उस समय बंगाल के संभवत: सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। सुभाषबाबू ने वैसा ही किया। हाल ही में चित्तरंजन दास ने असहयोग आन्दोलन को अपनाया था; हालांकि उनकी प्रकृति के मुताबिक किसी भी सीधी कार्रवाई वाले आन्दोलन के नेतृत्व की उनसे आशा करना वृथा था। असहयोग से सन्तुष्ट न होने पर वे फिर से विधानसभा-प्रवेश की ओर झुकने वाले थे। उनसे मार्गदर्शन लेने आए सुभाषचन्द्र के लिए विधानसभा-प्रवेश का कार्यक्रम बहुत फीका था। मार्गदर्शक पाने की सुभाष की खोज मुम्बई या कलकत्ते में पूरी न हो सकी। तब उन्होंने अपना मन कांग्रेस के संगठन की ओर मोड़ा।

सुभाषबाबू को गांधीजी के साथ अपनी पहली मुलाकात में ही लगा था कि उनके(गांधी के) मन में स्वराज्य-प्राप्ति के लिए कोई क्रमबद्ध कार्यक्रम नहीं है। उनके अपने मन में कोई चित्र था। किसानों और मजदूरों का संगठन बनाना, स्वयंसेवकों को लश्करी तालीम देना, विदेश से शस्त्र प्राप्त करना, आवश्यकता और अनुकूलता हो तो फौजी मदद भी हासिल करना, येन केन प्रकारेण देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना। इसलिए मणि भवन में हुई पहली मुलाकात के वक्त से ही सुभाषबाबू को गांधीजी के कार्यक्रमों के प्रति अरुचि थी।

भारत जैसे किसी बड़े देश को अंग्रेजों की लम्बी गुलामी से मुक्त कराने के लिए जो व्यूहरचना गठित करनी पड़ती, उसका आदि से अन्त तक एक सिलसिलेवार चौखटा नहीं हो सकता, अपने पक्ष की मजबूती और कमजोरी का अन्दाज, जनता में आ रही जागृति के बारे में ठीक-ठीक अनुमान, सामने वाले पक्ष की ताकत और कमजोरियाँ, दोनों पक्षॊं के साधनों की बाबत अन्दाज, अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति के बारे में कयास, आदि अनेक तत्त्वों पर विचार करने के बाद ही रणनीति तय होती है।

गांधीजी के मन में व्यूहरचना के इन अवयवों के बारे में कुछ कल्पना थी तथा इस सन्दर्भ में उनकी वृत्ति लचीली भी थी इसलिए उसे किसी भी वक्त-जरूरत के हिसाब से बदलने को वे तैयार थे। फिर बतौर पूंजी उनके पास दक्षिण अफ्रीका की महाप्रयोगशाला में किए गए प्रयोग और भारत में हुए अनेक सत्याग्रहों के अनुभव भी थे। इस बाबत सुभाषबाबू को तजुर्बा नहीं था, अलबत्ता इस विषय में उन्होंने ब्रिटिश लोगों से शिक्षा ली थी तथा उनके मन में मेजिनी, गेरिबाल्डी, आइरिश सिन्फिन आन्दोलन वगैरह का इतिहास भी था। इस सब के बारे में गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में विचार कर लिया था और उन्हें खुद द्वारा विकसित सत्याग्रह की रणनीति ही श्रेष्ठ लगती थी।

सत्याग्रह की रणनीति सुभाषबाबू के लिए बिलकुल नई थी। सत्याग्रह की रणनीति से देश में पैदा हुई जागृति से वे आकर्षित जरूर थे परन्तु यही रणनीति अन्तिम है, यह विश्वास उनके मन में नहीं बैठा था। अहिंसक लड़ाई और सशस्त्र सेना द्वारा लड़ाई- दोनों परस्पर असंगत विषय हैं–इसकी प्रतीति भी उन्हें नहीं थी। इस बाबत गांधीजी अपने मन में गाँठ बाँध चुके थे।

गांधीजी और सुभाषबाबू के बीच जो मतभेद प्रकट हुए उसके मूल में यह तथा ऐसे अन्य सैद्धान्तिक कारण थे। इतिहास के क्रम में वे और प्रगट होते गए।

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सुभाषबाबू की 1940 के बाद की जीवन-कथा, उनके जीवन के शायद सबसे साहस की, शूरता की और देशभक्ति की कथा है। सुभाषबाबू की गिरफ्तारी, उनकी बीमारी, नजरबन्दी, गुप्त तौर पर उसमें से भाग निकलना, गुप्त रूप से पहले काबुल जाना, रूस जाने का प्रयास सफल न हो पाने पर जर्मनी पहुँचना, वहाँ हिटलर से अपेक्षित मदद मिलने पर जर्मन नौसेना की पनडुब्बी द्वारा भारी जोखिम उठाकर जापान पहुँचना, जापान पहुँचकर आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करना तथा अपने नेतृत्व में विश्वयुद्ध में जापान की सेना के आगे-आगे चलकर, भारी संकटों का हिम्मत से सामना करते हुए भारत की सीमा तक पहुँच जाना–इस पूरी कथा को लाखों भारतीय अपने हृदय में सुभाषबाबू को नेताजी के रूप में अमर स्थान देंगे।

इतना स्पष्ट था कि सुभाषबाबू की विदेशी मदद लेकर हिन्द की आजादी प्राप्त करने की नीति के साथ गांधीजी बिलकुल सहमत नहीं थे। परन्तु उनके देशप्रेम, उनके साहस और उनके बलिदान के बारे में गांधीजी के मन में अत्यन्त सम्मान था।

उनका(सुभाषबाबू का) रास्ता गलत था यह वे निश्चित तौर पर मानते थे। इसके बावजूद उनको गांधीजी ने कहा था कि आपके रास्ते आपको सफलता मिली तो अभिनन्दन का पहला तार मेरा मिलेगा। बर्मा की यात्रा के दौरान गांधीजी जब मांडले गए तब उन्होंने वहाँ की जेल में रखे गए महान नेताओं को याद करते वक्त तिलक महाराज और लाला लाजपतराय के साथ-साथ सुभाषबाबू को भी याद किया था और उनकी देशभक्ति, साहस और उनके त्याग की स्तुति की थी। इसी प्रकार तमाम मतभेदों के बावजूद गांधीजी ने राष्ट्र को राष्ट्र बनाया यह बात सुभाषबाबू लगातार मानते थे।

1944 जुलाई माह की छठी तारीख। उस दिन रेडियो पर युद्ध की घोषणा करते वक्त सुभाषबाबू ने गांधीजी को याद किया। “वे ही भारतवर्ष के जनगण के अभ्युत्थान के उद्गाता थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समक्ष प्रथम सत्याग्रह करने वाले वे ही थे। खण्ड-खण्ड हो चुके, विक्षिप्त भारतवासियों को एक प्राण की एकता के सूत्र में बाँधनेवाले वे ही थे। जनता के मन में आजादी की मंशा उन्होंने ही जगाई।नि:शस्त्र भारतवासियों के मन में शूरता और दुखों को झेलने की हिम्मत उन्होंने ही संचालित की। राष्ट्र को गांधीजी ने ऐसा नवजीवन दिया था। वे राष्ट्रपिता हैं।”

गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने वाले पहले नेता सुभाषचन्द्र ही थे।

दूसरे विश्वयुद्ध के बारे में सुभाषबाबू के दो अनुमान गलत साबित हुए। एक तो उनका अनुमान था कि इंग्लैंड बहुत जल्दी धुरी राष्ट्रों की शरण में झुकेगा। दूसरा अनुमान था कि रूस और जर्मनी के बीच मित्र-राष्ट्र भेद नहीं डाल पाएंगे। यह दोनों अनुमान गलत साबित हुए इसलिए धुरी राष्ट्रों की मदद से लड़ाई लड़कर आजादी हासिल करने की सुभाषबाबू की मुराद पूरी न हो सकी।

यूँ तो अहिंसक सत्याग्रह द्वारा अखण्ड भारत को आजाद करवाने की गांधीजी की मुराद भी कहाँ पूरी हुई? दोनों के पराक्रमों को इतिहास उनकी सफलताओं से नहीं परन्तु उनके महाप्रयास के मानदंड से आँकेगा।

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