गांधी की लोकसेवी पत्रकारिता

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— प्रसून लतांत —

त्रकारिता पहले मूलतः कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं थी, जैसी वह आज है। 17वीं और 18वीं शताब्दी की पत्रकारिता (जो खास तौर से यूरोप और अमेरिका में पनपी) या तो उद्योग-व्यापार-वाणिज्य आदि के सहायक के रूप में थी या उसका उद्देश्य अपने-अपने देशों या क्षेत्रों की राजनीति में मदद करने का था। अपने ‘स्वतंत्र’ रूप में पत्रकारिता का सूक्ष्म सा उदगम 1760 के बाद हुआ। और 19वीं शताब्दी के आरंभ में जो नई पत्रकारिता पनपी उसकी कुछ विशेषताएं थीं, यथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जनसमुदाय की व्यापक भागीदारी, जनमत तैयार करने की क्षमता और सामाजिक व सांस्कृतिक विषयों पर संपादकों की अपनी पकड़। यह 19वीं शताब्दी के बाद ही संभव हुआ कि समाचार पत्र—पत्रिकाएं आदि राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर ही केंद्रित रहने के बजाय सांस्कृतिक और मनोरंजन प्रधान सामग्री की ओर मुड़ीं।

महात्मा गांधी जब पहली बार 1888 में लंदन गए, तब से लेकर अपने आगे के संपूर्ण पत्रकारिता जीवन में पत्रकारिता की उपर्युक्त विशेष प्रवृत्ति अर्थात् राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के विश्लेषण से जुड़े। चूंकि गांधीजी का लगभग साठ साल का सार्वजनिक जीवन इतने विषयों से जुड़ा रहा जिसका अंदाजा संपूर्ण गांधी वांग्मय (सौ खंडों) से भी लगना कठिन है। उन्हें सामान्यतया एक ‘राजनीतिक संत’ समझा जाता है, जिन्होंने सत्याग्रह की मौलिक और अप्रत्याशित प्रक्रिया से अहिंसक आंदोलनों द्वारा भारत को स्वतंत्रता दिलाई; हालांकि उन्होंने अपना सामाजिक सेवा का जीवन पत्रकारिता से ही शुरू किया था लेकिन जैसे-जैसे उनका यह सार्वजनिक जीवन विस्तृत होता गया और यह भुला दिया गया कि वे कर्मठ पत्रकार भी थे या भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी की पत्रकारिता का भी कुछ विशेष स्थान रहा है।

यह दुर्भाग्य रहा कि महात्मा गांधी पर देश-विदेश में और विभिन्न भाषाओं में हजारों किताबें लिखी गई पर वे ज्यादातर उनके अहिंसा के सिद्धांतों और स्वाधीनता आंदोलन में प्रयोग किए सत्याग्रह अभियानों व उनके सपनों के भारत आदि के साथ आजादी हासिल करने के दौरान उनकी गतिविधियों व मौजूदा समय में उनके विचारों की प्रासंगिकता आदि पर ही ज्यादा हैं। उनकी पत्रकारिता पर पूरी तरह केंद्रित पुस्तकों की संख्या नगण्य ही थी। तीन दशक पहले तक एक भी पुस्तक नहीं थी। यदि शैलेन्द्रनाथ भट्टाचार्य की अंग्रेजी पुस्तक ‘महात्मा गांधी : द जर्नलिस्ट’ और दो-चार अंग्रेजी लेखों को छोड़ दें तो गांधीजी की पत्रकारिता पर कोई अध्ययन या शोध नहीं हो सका था। हिंदी में विशद या स्वल्प अध्ययन की एक भी पुस्तक या पुस्तिका नहीं थी। अपवादस्वरूप भवानी प्रसाद मिश्र का एक छोटा सा निबंध ही था, जिसका शीर्षक सर्वोदय पत्रकारिता था और गांधी प्रवर्तित सर्वजन हिताय पत्रकारिता और ‘पत्रकार गांधी’ पर केंद्रित था। शैलेन्द्रनाथ भट्टाचार्य की पुस्तक में ‘गांधी : एक पत्रकार’ के संस्थापक (स्ट्रक्चरल) पहलू को ज्यादा दर्शाया गया है, जैसे संपादक, व्यवस्थापक, विज्ञापन प्रबंधक, स्वतंत्र पत्रकार (फ्रीलांस जर्नलिस्ट) आदि के रूप में गांधीजी किस तरह काम करते थे। यह सही है कि भट्टाचार्य ने समाचार जगत की स्वतंत्रता विषयक अध्याय में गांधीजी के राजनीतिक विचारों को भी रखा है, लेकिन यह उनकी पूरी किताब का एक अध्याय मात्र है। यही बात अन्य दूसरे अंग्रेजी लेखों की बाबत कही जा सकती है। इन लेखों में से कुछ ने गांधीजी की पत्रकारिता का भारत की आजादी की लड़ाई में क्या योगदान रहा इसका विवेचन किया है लेकिन सरसरी और अपर्याप्त रूप में।

गांधीजी की पत्रकारिता पर अध्ययनों के अभाव पर प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी हैरानी जताई थी कि महात्मा गांधी के घटनापूर्ण जीवन और उनके विचारों पर तो बहुत लिखा गया लेकिन कोई उनकी पत्रकारिता पर कुछ नहीं लिखता जबकि वे दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक पत्रकारिता से जुड़े रहे। महात्मा गांधी को पत्रकार के रूप में जानने-समझने की कोशिश कम हुई जबकि यह हकीकत है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधीजी ने भारत की पत्रकारिता को अलग से एक मोड़ दिया। उन्हें प्रोत्साहित किया और दिशा दी कि वे राजनीतिक पत्रकारिता के महत्त्व को समझें और जोखिम उठाकर भी यह काम करें। उन्होंने ऐसी पत्रकारिता को एक मिशन में बदला और अनेक संपादकों को स्वतंत्रता सेनानी बनाया। यह क्रम ‘हिंदी बंगवासी’ (1896) से शुरू होकर ‘हरिजन’ के अंकों तक अबाध रहा। इस दौरान भारत के हरेक प्रांत में विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं ने गांधीजी के रचनात्मक और राजनीतिक आदर्शों को समझा और अपनी नीतियों में बदलाव लाया। विशाल जनता तक भारत की स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक चेतना फैलाने में इन पत्रों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वस्तुतः एक दैनिक पत्र का तो नाम ही ‘गांधी’ रखा गया।

गांधीजी खुद को शौकिया पत्रकार कहते थे लेकिन इतिहास बताता है कि वे खुद भी अपने व्यक्तित्व, अपने दर्शन और अपने सत्याग्रह अभियानों के कारण खबर बनते रहते थे। पोरबंदर, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका, साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों सहित दिल्ली में उन्होंने जो जीवन जिया और जो अभियान चलाए, उन सभी का समग्र आकलन करें तो हम पाएंगे कि उनके जीवन और उनके आंदोलनों में अखबारों की बड़ी भूमिका रही है। महात्मा गांधी इंग्लैंड गए तब उन्हें पहली बार समाचारपत्र पढ़ने का मौका मिला। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘अभी पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी। मुश्किल से समाचारपत्र पढ़ने लगा था। यह दलपतराम शुक्ल का प्रताप था। हिंदुस्तान में मैंने समाचारपत्र कभी पढ़े नहीं थे, पर बराबर पढ़ते रहने के अभ्यास से उन्हें पढ़ने का शौक मैं पैदा कर सका था। ‘डेली न्यूज’, ‘डेली टेलीग्राफ’ और ‘पेलमेल गजेट’ इन पत्रों को सरसरी निगाह से देखा जाता था, पर शुरू-शुरू में तो इसमें मुश्किल से एक छोटा खर्च होता होगा?’’

महात्मा गांधी ने इंग्लैंड से ही नए युग के इस संचार साधन के महत्त्व को पहचान लिया था। उन्होंने छात्र जीवन से ही समाचारपत्रों के संपादकों को पत्र लिखकर और उनसे मिलकर अपने विचारों को फैलाने की प्रवृत्ति विकसित कर ली थी। दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक दौर में ही महात्मा गांधी ने ‘नेटाल एडवर्टाइजर’, ‘नेटाल विटनेस’, ‘नेटाल मर्क्यूरी’ आदि अंग्रेजी अखबारों को प्रवासी भारतीयों की समस्याओं और अपनी स्थिति और विचारों को स्पष्ट करने के लिए पत्र लिखे, जो इन अखबारों में छपे भी। इसके बाद गांधी जी 1896 में दक्षिण अफ्रीका से पांच-छह महीने के लिए भारत आए। तब कलकत्ते से मुंबई जाते समय ट्रेन प्रयाग में रुकी तो गांधीजी दवा खरीदने को शहर में चले गए। जब तक वे स्टेशन वापस आए तो ट्रेन छूट गई। अब उन्हें एक दिन बाद ही मुंबई की ट्रेन मिलनी थी। उन्होंने इस दौरान ‘पायोनियर’ के संपादक मि. चेजनी से मुलाकात की और उन्हें दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से अवगत कराया। चेजनी ने उनको आश्वस्त किया कि वे जो भी लिखकर भेजेंगे उस पर मैं तुरंत टिप्पणी लिखूंगा। गांधीजी मुंबई पहुंचे और वहां से राजकोट चले गए, जहां उन्होंने एक पुस्तिका तैयार की, जो बाद में ‘हरी पुस्तिका’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ”हरी पुस्तिका की दस हजार प्रतियां छपाई थीं और उन्हें सारे हिंदुस्तान के अखबारों और सब पक्षों के प्रसिद्ध लोगों को भेजा था। ‘पायोनियर’ में उस पर सबसे पहले लेख निकला। उसका सारांश विलायत गया और उस सारांश का सारांश फिर रायटर के द्वारा नेटाल पहुंचा। नेटाल में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

गांधी जब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ कुरलैंड स्टीमर से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो उन्हें वहां गोरों के भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका जाने के पहले मुंबई, राजकोट, पुणे, मद्रास और कलकत्ता गए और इन शहरों में कई संपादकों से मिले। गांधीजी फीरोजशाह मेहता, जस्टिस बदरूद्दीन तैयब, रामकृष्ण भंडारकर, न्यायमूर्ति रानाडे, लोकमान्य गोपालकृष्ण गोखले, जी परमेश्वरन और जी सुब्रह्मण्यम जैसे संपादकों से मिले। गांधीजी लिखते हैं कि जी परमेश्वरन पिल्लै ने तो मुझे अपने समाचारपत्र का इस काम के लिए मनचाहा उपयोग करने दिया और मैंने निसंकोच इसका उपयोग किया भी। कलकत्ते में ‘डेली टेलिग्राफ’ के प्रतिनिधि मि. एलर थॉर्पसे से पहचान हुई। मैं ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के कार्यालय में गया। ‘बंगवासी’ ने हद कर दी। मुझे एक घंटे तक बैठाए रखा। ‘बंगवासी’ के संपादक ने साफ कह दिया कि मुझे आपकी बात नहीं सुननी। आप वापस जाएं यही अच्छा होगा। पर गांधी हारे नहीं। वे दूसरे संपादकों से मिलते रहे। ‘इंग्लिशमैन’ के संपादक मि. सॉन्डस ने तो उन्हें अपनाया और अपने दफ्तर और अखबार का उपयोग करने की छूट दी। इस प्रकार गांधीजी ने देश की पत्रकारिता से अपने संबंध बनाए और अपने उद्देश्य के लिए समाचारपत्रों का समुचित उपयोग किया।

इस बार जब वे दक्षिण अफ्रीका लौटे तो अपने सहयोगी मदनजीत की सलाह पर 1904 में ‘इंडियन ओपिनियन’ अखबार निकालना शुरू किया। गांधीजी इस अखबार के संपादक नहीं थे पर संपादन का सच्चा बोझ तो उन पर ही पड़ा। मनसुखलाल नाजर संपादक थे। आरंभ में यह अखबार गुजराती, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी में निकलता था। बाद में तमिल और हिंदी में बंद कर दिया। हालांकि इस अखबार को निकालने में गांधीजी की बचत का का पैसा ही खर्च होता रहा। गांधीजी ने बाद में यह महसूस किया कि इस अखबार ने हिंदुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की। इससे धन कमाने का विचार तो शुरू से किसी का नहीं था। ‘इंडियन ओपिनियन’ को लेकर गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के पहले महीने के कामकाज से ही मैं इस परिणाम पर पहुंच गया था कि “समाचारपत्र सेवा भाव से ही चलाना चाहिए। समाचारपत्र एक जबरदस्त शक्ति है, लेकिन जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है। अंकुश तो अंदर का ही लाभदायक हो सकता है।”

गांधीजी के लिए उनके निकाले सभी समाचारपत्र उनके जीवन के कुछ अंशों के निचोड़ थे। ‘इंडियन ओपिनियन’ के हर अंक में गांधीजी अपनी आत्मा को उंडे़लते थे : “जिसे मैं सत्याग्रह के रूप में पहचानता था, उसे समझाने का प्रयत्न करता था। शायद ही कोई अंक ऐसा होगा, जिनमें मैंने कुछ नहीं लिखा हो। इनमें मैंने शायद ही एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जानबूझकर अतिशयोक्ति की हो। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालिम सिद्ध हुआ था। मित्रों के लिए वह मेरे विचारों को जानने का माध्यम बन गया था। मैं संपादक के दायित्व को भलीभांति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होने वाली लड़ाई संभव हो सकी, वह सुशोभित हुई और उससे शक्ति प्राप्त हुई।”

गांधीजी मानते थे कि पत्रकारिता के दो रूप हैं, एक व्यवसायी और दूसरा लोकसेवी। पत्रकारिता व्यवसायी बनती है तो वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से दूर हो जाती है।

महात्मा गांधी 1915 में भारत आए तो उन्होंने पूरे देश का भ्रमण शुरू किया। पांच साल बाद जब बाल गंगाधर तिलक का निधन हुआ तो गांधीजी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाली और असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। हंटर आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप कार्रवाई पर देश भर में जो अशांति की लहर चली उसने आंदोलन को बल दिया। आंदोलन को आगे चलाने में समाचारपत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही और इस पर गांधी जी के विचारों का प्रभाव रहा।

इसके पहले 1919 में उन्हें ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ को लेकर ब्रिटिश हुकूमत के रवैए के खिलाफ जूझना पड़ा। इस समाचारपत्र के संपादक बीजी हॉर्निमैन थे। इसमें गांधीजी के सत्याग्रह के समर्थन में कई लेख छपे, फलस्वरूप 26 अप्रैल को हॉर्निमैन को भारत छोड़ने का हुक्म मिला। इस तरह बॉम्बे क्रॉनिकल का प्रकाशन बंद हो गया। गांधीजी ने बंबई सरकार के सचिव जे किरर को पत्र लिखा। जिसमें गांधी जी ने कहा कि हॉर्निमैन का निर्वासन नितांत अनुचित और उनके निर्वासन के बाद समाचार नियंत्रण संबंधी आदेश बिल्कुल अनावश्यक है और जमानत को जब्त करके मानो आगे में घी डाल दिया हो। हॉर्निमैन के निष्कासन के बाद ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ को चलाने की जिम्मेदारी गांधीजी को सौंपी गई। गांधीजी लिखते हैं कि ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में मुझे अधिक कुछ नहीं करना पड़ता था। फिर भी मेरे स्वभाव के अनुसार मेरे लिए यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी हो गई थी। लेकिन मुझे यह जिम्मेदारी अधिक दिन तक नहीं उठानी पड़ी। सरकार की मेहरबानी से ‘क्रॉनिकल’ बंद हो गया।

इसके बाद गांधीजी ने ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ अखबार शुरू किया। इस बीच उन्होंने अप्रैल 1919 में ‘भारतीय प्रेस अधिनियम’ के विरोध में ‘सत्याग्रही’ नाम से अखबार बिना पंजीकरण कराए निकाला। गांधीजी इसके संपादक थे और यह मुंबई से हर सोमवार को निकलता था। इसके दो ही अंक निकले। इस अखबार के बारे में गांधीजी ने लिखा कि रौलट एक्ट को रद्द कराने के उद्देश्य से ‘सत्याग्रही’ ने जन्म लिया है और वह सत्याग्रह के आचरण से होगा। यह पत्र पंजीकृत नहीं है, इसलिए न वार्षिक चंदा लिया जाएगा और न यह गारंटी है कि पत्र बिना किसी रुकावट के छपता रहेगा। संपादक किसी भी क्षण गिरफ्तार किया जा सकता है, लेकिन प्रयत्न होगा कि एक के बाद एक संपादक मिलता रहे। हम सदा कानून नहीं तोड़ेंगे, इसलिए रौलट एक्ट रद्द होते ही इसे बंद कर दिया जाएगा।

महात्मा गांधी न केवल अपने अखबारों में लिख रहे थे बल्कि सरकार के अंकुशों के खिलाफ लड़ते भी रहे। नवजीवन के प्रकाशन संबंधी नियमों पर मुंबई सरकार ने पांच सौ रुपये की जमानत देने का आदेश दिया तो गांधीजी ने इसका तार्किक रूप से विरोध किया; सरकार को अपने आदेश वापस लेने पड़े। गांधीजी के संपादन में ‘इंडियन ओपिनियन’ और ‘यंग इंडिया’ अखबार दिनोंदिन प्रसिद्ध हो रहे थे। गांधीजी ने आत्मकथा में लिखा है कि “इन दोनों पत्रों के द्वारा मैंने जनता को यथाशक्ति सत्याग्रह की शिक्षा देना शुरू कर दिया। पहले दोनों पत्रों की थोड़ी ही प्रतियां छपती थीं। लेकिन बढ़ते-बढ़ते वे चालीस हजार के आसपास पहुंच गई। नवजीवन के ग्राहक एकदम बढ़े, जबकि ‘यंग इंडिया के धीरे-धीरे बढ़े। मेरे जेल जाने के बाद इसमें कमी हुई। इन पत्रों में विज्ञापन न लेने का मेरा आग्रह शुरू से ही था। मैं मानता हूं कि इससे कोई हानि नहीं हुई और इस प्रथा के कारण पत्रों के विचार-स्वातंत्र्य की रक्षा करने में बहुत मदद मिली। इन पत्रों ने कठिन समय में जनता की अच्छी सेवा की और फौजी कानून के जुल्म को हलका करने में हाथ बंटाया।”

इन पत्रों की आम जनता में बढ़ती लोकप्रियता से सरकार परेशान थी। वह इसे बंद करने की घात में रहती थी। इस बीच ‘यंग इंडिया’ में (23 फरवरी, 1922) गांधी के लेख ‘गर्जन-तर्जन’ आदि के आधार पर सरकार के प्रति जनता में असंतोष भड़काने के आरोप में उन्हें 10 मार्च 1922 को अहमदाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीजी की भारत में यह पहली गिरफ्तारी थी और यह गिरफ्तारी भी उनकी पत्रकारिता की वजह से हुई थी। पत्रकारों के हक पर जब भी सरकार ने लगाम लगाने की कोशिश की तो गांधी ने इसके खिलाफ लिखने में कभी कोई संकोच नहीं किया। सरकार ने जब मुद्रणालयों पर छापे मारने और उन्हें जब्त करने के आदेश निकाले तो गांधीजी इसके खिलाफ डटकर खड़े हुए। गांधी ने लिखा कि “समाचारपत्रों के संचालक और प्रकाशक सरकार के ऐसे कानून को मानना पाप समझें और नोटिस आने पर प्रेस बंद कर दें। आज साधारण जन भयमुक्त होकर अनीतिमय कानूनों की सविनय अवज्ञा कर रहे हैं। ऐसे में पत्रकारों ने कमजोरी दिखाई तो देश की हानि होगी। समाचार पत्र भी इस लड़ाई में साथ दें।”

गांधीजी अपने अखबार के ग्राहकों और पाठकों के साथ आत्मीय संबंध बनाते हैं और उन्हें अखबार का मालिक मानने के साथ उनसे सलाह भी लेते हैं। उनके द्वारा जिस ‘सत्याग्रह’ का आविष्कार किया गया उसमें उनकी पाठकों से सलाह लेने की प्रवृत्ति का भी योगदान रहा। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी को भारतीयों की खातिर अपनी लड़ाई का परिचय देने के लिए कोई शब्द नहीं सूझ रहा था तो नाममात्र का इनाम रखकर उन्होंने ‘इंडियन ओपिनियन’ के पाठकों में प्रतियोगिता कराई। उन्होंने ‘नवजीवन क्लब’ के रूप में पाठक क्लब बनाया और व्यापारिक संबंधों के बजाए अत्यंत घनिष्ठ और नैतिक संबंध बनाए। साथ ही पाठकों को यह अधिकार सौंपा कि वे इसका ध्यान रखें कि समाचारपत्र में कोई अनुचित और झूठी खबर नहीं छपे और अविवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं हो। संपादकों पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए जिसका उपयोग संपादक के बिगड़ने पर ही हो। गांधीजी पाठकों से कहते थे कि वे नवजीवन बहिष्कार मंडल बनाएं और अहिंसक असहयोग से समाचारपत्र में छपने वाली भूलों और अशुद्धियों का विरोध करें और अशुद्धियां बंद न होने पर ‘नवजीवन’ को खरीदना बंद कर दें। गांधी जी खुद भी इस नवजीवन बहिष्कार मंडल के सदस्य बनने को तैयार थे। गांधीजी कहते थे कि ‘नवजीवन’ समाचार पत्र नहीं है, वह विचार पत्र है। गांधीजी असत्य, विषैले और गोपनीय समाचारों के उदघाटन के विरोधी हैं। ‘यंग इंडिया’ में 1930 में गांधीजी लिखते हैं कि समाचारों को अप्रत्यक्ष स्रोतों से और प्रायः उलटे-सीधे साधनों से बटोरकर उन्हें समय से पहले छापना पत्रकारिता का काम नहीं होना चाहिए। मुझे चार साप्ताहिक अखबारों को चलाने और बीस साल से अधिक सफलतापूर्वक पत्रकारिता करने का अनुभव है। हमें अंग्रेजों की अंधी नकल नहीं करना चाहिए और पत्रकारिता को पैसा कमाने का जरिया न बनाकर लोकहित का ख्याल रखना चाहिए। गांधीजी चाहते हैं कि पत्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दूसरे को अपमानित करने वाले, चोट पहुंचाने वाले और रोष उत्पन्न करने वाले मत और समाचार प्रकाशित न करें।

गांधी ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में ‘हरिजन’ नाम से पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। हरिजन का प्रकाशन अंग्रेजी में पहले हुआ जबकि योजना पहले हिंदी में छापने की थी। हरिजन सेवक संघ के मुखपत्र के रूप में 11 फरवरी 1933 से प्रकाशित होना शुरू हुआ। इस पत्रिका के प्रकाशन के बारे में गांधीजी ने स्पष्ट किया था कि हरिजन सिर्फ हरिजन कार्य को लेकर चलता है और सरकार के साथ झगड़ा खड़े होने वाली सामग्री नहीं छापी जाती और इस कारण राजनीति विषयक सामग्री बिल्कुल नहीं दी जाती। ‘हरिजन’ का प्रकाशन हिंदी अंग्रेजी के साथ बंगाली, मराठी, तमिल, गुजराती में करने की कोशिश की गई। बाद में 1940 में विनोबा के सत्याग्रह के समाचार छपने पर सरकार को नोटिस मिला। गांधीजी ने इस संबंध में वायसराय से पत्र व्यवहार किया लेकिन संतोषप्रद उत्तर नहीं मिलने पर हरिजन (अंग्रेजी), हरिजन सेवक (हिंदी) और हरिजन बंधु (गुजराती) का प्रकाशन बंद करने की घोषणा कर दी। बाद में फिर से इसका प्रकाशन 1942 में शुरू किया गया। लेकिन सरकार फिर से इसके प्रकाशन पर रोक लगाने की तैयारी में थी।

गांधी का कहना था कि सरकार हरिजन का प्रकाशन रोक सकती है लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं, वह उसके संदेश को रोक नहीं सकती। ‘हरिजन’ समाचारपत्र से भिन्न एक विचार पत्र है और वह आज अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू (दो संस्करण) तमिल, तेलुगु (दो संस्करण), उड़िया, मराठी और कन्नड़ (दो संस्करण) में प्रकाशित हो रहा है। बंगला में इसके प्रकाशन की तैयारी हो रही है, सिर्फ सरकार की इजाजत का इंतजार है।

भारतीय भाषाओं में ‘हरिजन’ के प्रकाशन पर बार-बार सरकारी नियम-कानून थोपे गए पर गांधी जरा भी विचलित नहीं हुए। आजादी मिलने के कुछ साल पहले ही विभाजन की स्थिति पैदा होने पर तो झूठी और मनगढ़ंत खबरों की जैसे बाढ़ आ गई। हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य पर अफवाहों का बाजार गर्म था। गांधीजी ने जामिया मिल्लिया में 20 अप्रैल 1946 को अपने भाषण में कहा कि आज सारा वातावरण दूषित है। समाचारपत्र सभी तरह के ऊटपटांग अफवाह फैला रहे हैं और लोग बिना सोचे-समझे उन पर विश्वास कर रहे हैं। इससे लोगों में घबराहट पैदा होती है और हिंदू और मुसलमान अपनी इंसानियत भूलकर आपस में जंगली जानवरों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। गांधी चाहते थे कि हिंदुस्तान में एक अखबार तो ऐसा हो जिसमें आद्योपांत सच हो, गंदगी न हो और लोग इसकी इज्जत करें।

दिल्ली में 12 अप्रैल, 1947 को गांधीजी ने प्रार्थना सभा में साफ-साफ कहा था कि मैं भी पुराना अखबारनवीस हूं और मैंने उस अफ्रीका के जंगल में अच्छी-खासी अखबारनवीसी की है, जहां पर हिंदुस्तानियों को कोई पूछने वाला भी न था। अगर ये लोग अपना पेट पालने के लिए अखबार के पन्ने भरते हैं और उससे हिंदुस्तान का बिगाड़ होता है तो उन्हें चाहिए कि वे अखबार का काम छोड़ दें और कोई दूसरा काम गुजारे के लिए खोज लें। अखबारों को अंग्रेजी में चौथी शक्ति बताया गया है। इनसे बहुत सी बातें बिगाड़ी या बनाई जा सकती हैं। यदि अखबार दुरुस्त नहीं रहेंगे तो फिर हिंदुस्तान की आजादी किस काम की होगी।’’

हिंदी में गांधी की पत्रकारिता पर अकेली पुस्तक की रचना करने वाले कमल किशोर गोयनका ने अपनी पुस्तक ‘गांधी : पत्रकारिता के प्रतिमान’ के प्राक्कथन में लिखा है कि गांधी स्वयं को शौकिया पत्रकार कहते थे जबकि उन्हें लगभग चार दशकों की पत्रकारिता का अनुभव था और उन्होंने अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी पत्रकारिता की थी। गांधीजी ने पत्रकारिता में जो प्रतिमान बनाए वे उनके परंपरागत भारतीय ज्ञान, तत्कालीन भारतीय परिवेश, चिंतन और संघर्ष से बने थे और उनमें भारतीय की गहरी छाप थी। उन्होंने पत्रकारिता में पश्चिम की नकल की प्रवृत्ति और उससे होने वाले दूषण की भर्त्सना करते हुए भारतीय पत्रकारिता की नींव रखी और अपने राष्ट्र-बोध से उसके प्रतिमानों की सृष्टि की।

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