जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं !

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— राम जन्म पाठक—

स समय जब मैं यह टीप लिख रहा हूं, तब भारत के 74वें गणतंत्र की पूर्वसंध्या नहीं, उत्तर संध्या है। भारत की राष्ट्रपति अपनी मधुर वाणी में राष्ट्रीय संबोधन कर चुकी हैं और कर्तव्य-पथ पर हमारा गणतंत्र गाजे-बाजे, तोपों-टैकों और झांकियों की अविरल छटा प्रस्तुत कर चुका है। गणतंत्र के इस महोत्सव में संविधान की सर्वोच्चता की रस्मी दुहाई दी जा चुकी है। जब चारों तरफ तारीफ के पुल बांधे जा रहे हों और खुशहाली के गीत गाए जा रहे हों और महान-महान की ध्वनि से अवनि-अंबर गुजायमान हो, अर्थव्यवस्था की द्रुतगति से विकास की चर्चाएं टीवी स्क्रीनों पर चौबीसगुणेसात बरस रही हों और नफीस और सिंडीकेटेड विद्वान झकाझक पोशाकों और गार्नियर की डाई पोते श्वेत केशों की कजरारी-कजरारी लटें संवार रहे हों, तब परदा उठाकर पीछे की खाई-खंदक की तरफ झांकना आपराधिक हिमाकत ही कही जाएगी।

ऐसे मौकों पर जैसे हमारी प्रशंसाएं रस्मी होती हैं, वैसे ही हमारी आलोचनाएं भी होती हैं। आज भी देश में पसरी असमानता, अन्याय, गरीबी, बदहाली के लिए हम आमतौर पर वही फैज अहमद फैज की पंक्तियां ‘दाग-दाग उजाला’ और ‘ये शब-गजीदा शहर’ पर ही अटके हुए हैं। जबकि, हमारी चुनौतियां ज्यादा संहारक और विषैली हो चुकी हैं। हमारा कहन नहीं बदल रहा है। हमारा बुराइयों से भिड़ने का हरबा-हथियार वही पुरातन है। इसे भी बदलना होगा।

निसंदेह भारत ने तरक्की की है और सैंतालिस की तुलना में हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं। हमारी रीढ़ तनी हुई है और हम अब अमेरिका और यूरोप से थोड़ा अकड़कर भी बात करते हैं। लेकिन इस दौड़ा-दौड़ी में, इस आपाधापी में अभी वह मूल चीज हमारी पकड़ से छूटी हुई है, जिसकी दुहाई हम पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को देते हैं।

क्या है वह? वही संविधान की प्रतिज्ञा- यानी सामाजिक और आर्थिक बराबरी का सपना।

जो लोग बल्लियों उछल रहे हैं और स्वदेशी हथियारों और आत्मनिर्भरता की बड़बोली रंगीनियों में खोए हुए हैं, उन्हें थोड़ा-सा देश की उस स्थिति को भी देख लेना चाहिए, जहां सारा विकास और महल-कंगूरे किसी बदनुमादाग जैसे लगते हैं।

आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बता रही है कि भारत की कुल आबादी (आज की तारीख में 140.76 करोड़) का पचास फीसद आबादी यानी 70.38 करोड़ आबादी के पास महज राष्ट्र की संपत्ति का सिर्फ तीन फीसद हिस्सा है। जबकि, कुल संपत्ति के 62 फीसद संपत्ति पर पांच फीसद लोगों का कब्जा है।

यह है हमारे चौहत्तर साल के गणतंत्र के विकास की कहानी। कौन लोग हैं ये पांच फीसद? क्या वे सचमुच इतने बुद्धिमान और मेहनती हैं, जिसके कारण उनके पास इतनी अकूत संपत्ति है? क्या इन्हीं का चौतरफा गुणगान चल रहा है। क्या यही वे असली भारतीय है, जिन्हें लोकतत्र का प्राण बताया जा रहा है? नहीं, इन्होंने सिस्टम को अपनी मुट्ठी में कर रखा है। इसमें उनका साथ देने वालों में वे सब शामिल हैं, जिन्हें हम नेता, नौकरशाह, न्यायाधीश, वकील, धर्माचार्य, माफिया, मवाली कह सकते हैं। सामाजिक ताने-बाने की विषमता को भी इसमें जोड़ लीजिए तब आपकी आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। यह देश की दीनता का एक छोटा-सा पहलू है। सवाल फिर वही है कि वह कौन से गण है, जिसका तंत्र है यह?

ऐसे सवालों को उठाने वालों को शासनतंत्र ने पिछले कुछ दिनों से कुछ नई शब्दावलियों और विरुदों से नवाजना शुरू किया है, वह है अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी, और अंत में राजद्रोही तो वह है ही। इसी को अकबर इलाहाबादी ने कहा था –
-सूरज में लगे धब्बे फितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफिर, अल्लाह की मर्जी है।

दरअसल यही वे लोग हैं, जो नहीं चाहते कि टीवी में या अखबारों या सार्वजनिक मंचों पर इस विषमता को लेकर बहस हो! तब वे एक दूसरा उपाय चुनते हैं। जाहिर है कि टीवी के परदों को और अखबारों के पन्नों को खाली नहीं छोड़ा जा सकता है तो उसे हिंदू-मुसलिम, तंत्र-मंत्र, पाखंड, अंधविश्वास और नकली रंगीनियों और फर्जी और मनगढ़त आंकड़ों और पेशेवर ऐय्याश प्रेतों की डोलती छायाओं से उसे भर दो। सब जगह अपनी ‘गेस्टापो तैनात कर दो और फिर कहो, ले भाई देख मेरा विकास…यह रहा मेरे देश !

लेकिन अगर आपकी आंखें थोड़ी खुली हैं और आप थोड़ा-बहुत देख-सुन सकते हैं और समझ सकते हैं तो आपकी नींद हराम हो जाएगी और आप रात की नींद में चौंक कर चरपाई से नीचे गिर जाएंगे। कबीर ने कहा ने कहा था कि सुखिया संसार है, खावे और सोवे। दुखिया दास कबीर है- जागे अरु रोवे। जागना ही रोना है, रोना ही जागना है।

कुछ शरीफ लोग आजकल मिल जाते हैं और कहते हैं कि हमें निगेटिव नहीं रहना चाहिए। वे सोचते हैं कि बीमारी बताना निगेटिविटी है। उन्हें उनकी पाजिटिविटी मुबारक। ऐसे लोगों को गरीबी, बीमारी, दंगा, हत्या, बलात्कार में भी मुबारकवाद सूझता रहता है। जबकि, सबसे ज्यादा शिकार इसके वही होते हैं। हम अगर थोड़ा-बहुत इतिहास की तरफ देखें तो पाएंगे ज्यादातर शराफत, कायरता का ही दूसरा नाम थी।

मैं निगेटिविटी के तोहमत को सिर माथे लेते हुए साहिर लुधिनयानवी की आवाज में कहना चाहता हूं कि —जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं !


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