— अरविन्द मोहन —
महात्मा गांधी की हत्या का मुकदमा एक अजीब से माहौल में चला। गांधी के पुत्र रामदास गांधी और किशोरलाल मश्रुवाला समेत उनके काफी सारे करीबी और घनिष्ठ लोग यही पैरवी करते रहे कि सबको माफ किया जाए और सुधरने का अवसर दिया जाए। हत्यारों को फाँसी गांधी के उस जीवन-दर्शन के खिलाफ जाएगा जिसे उन्होंने जीवनभर जिया और आगे बढ़ाना चाहा। लेकिन गांधी को बार-बार दिखे खतरे के बाद भी सुरक्षा न दे सकी सरकार कोई भी जोखिम मोल लेने को तैयार न थी। वह कानून को अपना काम करने देना चाहती थी। और सुनवाई के दौरान वह किसी किस्म का क्षेपक लगाने को तैयार न हुई। शुरू में तो गोडसे सिर्फ अपनी योजना बताता रहा लेकिन जल्दी ही बड़े षड्यंत्र और अन्य लोगों की भागीदारी की बात भी सामने आ गयी। तीन को छोड़कर बाकी सभी आरोपी गिरफ्तार भी कर लिये गये और पुलिस यह मानकर चल रही थी कि महत्त्वपूर्ण लोग उसके कब्जे में हैं। 28 मई 1948 से सुनवाई शुरू हुई और 10 फरवारी 1949 को सजा सुनाई गयी। कुल 149 लोगों की गवाही हुई और चूँकि हिन्दुस्तानी, मराठी, उर्दू और तेलुगु में हर गवाही का एकसाथ अनुवाद हो रहा था इसलिए मामला कुछ ज्यादा लम्बा खिंचा।
आखिर 10 फरवरी को जब सख्त पहरे के बीच लाल किले में लगी खास कोर्ट में जस्टिस आत्माचरण ने फैसला सुनाया तो उसे लेकर दोनों तरफ से बाद तक टीका-टिप्पणी हुई। आरोपी पक्ष ने तो इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की लेकिन उसे वहाँ से भी राहत न मिली। एक आरोपी दिगम्बर बडगे वायदामाफ सरकारी गवाह बन गया था और नौकर की तरह काम करने वाले शंकर किस्तैया को हाईकोर्ट ने बरी कर दिया। बडगे ने सावरकर को लेकर जो जानकारियाँ दी थीं, अदालत ने माना कि उसके समर्थन में उसे सबूत या गवाह नहीं मिले (और इस बात का विवाद अभी तक चलता है)। उसने सावरकर को भी बरी कर दिया। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सजा मिली। विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा, दत्तात्रेय परचुरे और शंकर किस्तैया को आजीवन कारावास की सजा हुई जिसमें से किस्तैया को बाद में माफी मिली। गोडसे और आप्टे को हाईकोर्ट से भी सजा की पुष्टि हो जाने के बाद जेल के अंदर ही फाँसी दे दी गयी और उस जगह को भी हल से जोतकर समतल कर दिया गया तथा उनकी अस्थियों को किसी अज्ञात जगह पर घग्घर नदी में प्रवाहित कर दिया गया।
हत्या के ज्यादातर आरोपी नौजवान और बेरोजगार किस्म के लोग थे और सिर्फ सावरकर का ही नाम बाहर ज्ञात था। वे न सिर्फ दो कौमी नजरिया के जन्मदाता थे बल्कि कभी क्रांतिकारी भी रहे थे। लेकिन बाद में अँग्रेजी हुकूमत से माफी माँगकर बड़े शान से रहते थे और कुछ न कुछ खुराफात करते रहते थे। बल्कि गांधी पर पूना पैक्ट के बाद जो छह बार जान लेने वाले हमले हुए उन सबमें कहीं न कहीं उनकी भागीदारी दिखती रही। वे न सिर्फ सरकारी पेंशन पाते थे, बड़े से बँगले में रहते थे, निजी सचिव और गार्ड की सरकारी सुविधा से लैस थे, बल्कि उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में अँग्रेजी हुकूमत का खुलकर साथ दिया और फौज में भर्ती का अभियान चलाया। गोडसे ही पहले सेवाग्राम आश्रम के दरवाजे पर चाकू समेत पकड़ा गया था और 20 जनवरी 1948 को दिल्ली में उसी जगह हुए हमले में यह पूरी टीम उनके आशीर्वाद के साथ जुटी थी। पर सुनवाई के दौरान खुद उनके वकील पी.एल. इनामदार हैरान थे कि सावरकर अन्य अभियुक्तों के साथ बैठते हुए भी उनसे इस तरह मुँह फेरे रहते थे मानो उन्हें जानते न हों जबकि बाकी अभियुक्त आपस में बातचीत और हँसी-मजाक करते थे। सावरकर का अभिनय जबरदस्त था। लेकिन अदालत ने उनके अंगरक्षक और निजी सचिव की गवाहियों को बडगे की गवाही से मेल कराके अपनी राय पक्की नहीं की।
बाकी सब थोड़ा पढ़े, थोड़ा बेरोजगार, कभी कुछ काम करने वाले थे। नाथूराम ही संघ और दूसरे हिन्दूवादी संगठनों की सक्रियता के अलावा थोड़ा-बहुत काम कर लेता था। उसने कुछ समय सावरकर के साथ भी निजी सहायक जैसा काम किया था। नारायण आप्टे अच्छे घर का बिगड़ैल था। वह कई काम करने के बाद व्यायामशाला और हथियार चलाने की ट्रेनिंग देता था। शादी और बाल-बच्चों के बाद भी उसकी ऐय्याशी के किस्से सब जानते थे और गांधी हत्या वाली योजना के दौरान भी वह अपनी एक रखैल मनोरमा साल्वे से नियमित संबंध में था। मदनलाल पाहवा फौज से निकाला गया वायरलेस आपरेटर था और मुम्बई में पटाखे बेचने से लेकर किताब बेचने तक के कई काम करता था। विष्णु करकरे चाय बेचता था और फिर पूड़ी-भाजी की दुकान करता था। गोपाल गोडसे नाथूराम का छोटा भाई था और सैनिक फैक्टरी में किरानी था। पिस्तौल उपलब्ध कराने वाला दत्तात्रेय परचुरे महाराष्ट्र का डॉक्टर था और सरकार का बर्खास्त कर्मचारी था। शंकर किस्तैया वायदामाफ गवाह, दिगम्बर बडगे का नौकर था। बडगे हथियार की दुकान चलाता था।
पर इन लोगों, और खासतौर से नाथूराम के फैसले के बाद अदालत में जो नाटक रचा (जिसका एक हिस्सा तो सावरकर का मुँह फेरना था) वह आज तक जारी है और अदालत ने वह क्यों होने दिया यह समझना मुश्किल है। फैसले के बाद नाथूराम ने अदालत से अपना 95 पेज का बयान पढ़ने की इजाजत माँगी, जो उसे मिल गयी। जब सारी कानूनी कार्यवाही हो गयी थी तब इस भाषण का क्या मतलब था यह आज तक समझना मुश्किल है। और मजे की बात यह है कि आज तक उसी भाषण को तोड़-मरोड़कर और नयी भूमिकाओं और क्षेपकों के साथ अभी भी खूब छापा, बेचा और पढ़ा जा रहा है कि मैंने गांधी की हत्या क्यों की। एक तो यह इजाजत ही नाटकीय है और जिस तरह गोडसे ने इसका पाठ किया वह और नाटकीय था। महाभारत के न्याय अन्याय की लड़ाई और पात्रों के नाम लेते हुए उसने पाँच घण्टे में इसका पाठ किया। पहले 45 मिनट में ही ‘सबसे बहादुर’ गोडसे खुद चक्कर खाकर गिर पड़ा। उसने जाने कितनी बार पानी पी-पीकर इस बयान को पढ़ा। बीच-बीच में ‘भारत माता की जय’ और अखण्ड भारत के नारे भी लगते रहे और जज तमाशा देखते रहे। जब सरकारी वकील ने इस बयान को अदालत के रिकॉर्ड से निकालने की दलील दी तो उसे नहीं माना गया। और काफी सारे लोग मानते हैं कि जिस तरह सावरकर ने मदनलाल धींगरा के बयान को लिखा था (और तब भी दोष सिर्फ उन्हीं के मत्थे आया था) उसी तरह यह बयान भी सावरकर का ही लिखा हुआ था।
हाईकोर्ट में मुकदमा दो मई 1949 को शुरू हुआ और 21 जून को सजा का ऐलान हो गया। थोड़े बदलाव से पुरानी सजा ही बरकरार रही और दोनों को जेल में ही फाँसी दे दी गयी। पर न सवालों का अन्त हुआ न गांधी बनाम सावरकर के दर्शन की दुश्मनी का।