देवेंद्र सत्यार्थी : जिनके लोकगीत संग्रह को गुरुदेव टैगोर और बापू का आशीर्वाद मिला!

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देवेन्द्र सत्यार्थी (28 मई 1908- 12 फरवरी 2003)


— प्रकाश मनु —

सत्यार्थी जी की पुण्यतिथ (12 फरवरी) पर विशेष

त्यार्थी जी के बारे में सोचता हूँ, तो बार-बार एक ही बात मन में आती है कि वे लोकगीतों के फकीर थे। और केवल फकीर ही नहीं, बल्कि फकीर बादशाह। वे इतने सीधे-सरल थे कि राह चलते एक मामूली किसान-मजदूर से भी घंटों बड़े प्यार से बतिया सकते थे। पर साथ ही उनका व्यक्तित्व इतना ऊँचा और आदमकद था कि बीसवीं शताब्दी के साहित्य, कला, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी बड़ी से बड़ी शख्सियतों में शायद ही कोई ऐसा हो, जिनसे उनकी निकटता न रही हो या आत्मीय मुलाकातें न हुई हों। फिर महात्मा गाँधी, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, महामना मालवीय, के.एम. मुंशी, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, कलागुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर, महापंडित राहुल सांकृत्यायन से तो उनकी इतनी आत्मीयता थी कि उनसे जुड़े प्रसंगों को लिखने बैठूँ तो पूरा एक महाग्रंथ तैयार हो जाएगा।

मैं अपने जीवन का यह सबसे बड़ा सौभाग्य मानता हूँ कि मैं सत्यार्थी जी से मिला और उनके बहुत निकट रहा। वे मेरे गुरु थे, जिनसे मैंने साहित्य-कला का पहला पाठ सीखा था। मैं तब दिल्ली में नया-नया ही था। हिंदुस्तान टाइम्स की लोकप्रिय बाल पत्रिका नंदन से जुड़ा, तो उसके लिए सत्यार्थी जी की एक कहानी लेने के लिए उनके घर गया था। पर तब क्या जानता था कि उनसे मिलने के बाद मेरा पूरा जीवन ही बदल जाएगा।

सत्यार्थी जी से मिलकर मुझे लगा था, जैसे मेरी आत्मा निर्मल और उजली हो गई है, और काम करने की अऩंत राहें मेरे आगे खुल गई हैं। लिखना क्या होता है, यह मैंने पहलेपहल उनके पास बैठकर जाना था। उऩ्होंने मुझे जैसे पुनर्नवा कर दिया हो। अपने खास, बहुत खास अंदाज में उन्होंने मुझे बताया कि लिखना केवल लिखना ही नहीं, लिखना अपने आपको माँजना था, जिससे अपने भीतर और बाहर उजाला होता है।

यह एक नई ही सोच, नई दुनिया थी, जिससे मैं अब तक अपरिचित था।

सच कहूँ तो सत्यार्थी जी ने मुझे भीतर से और बाहर से इस कदर बदला था कि सारी दुनिया मेरे लिए नई-नई हो गई। खुद को और चीजों को देखने का सारा नजरिया ही बदल गया। साहित्य और कलाओं की भी एक अलग दृष्टि उनसे मिली, जिससे मेरे भीतर अब तक बने सोच के दायरे छोटे लगने लगे।

लगा, जीवन तो एक महाकाय समंदर है जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। 

ऐसे ही साहित्य हो, संगीत या अन्य कलाएँ, सबसे पहले तो ये हृदय की आवाज हैं, फिर कुछ और। अपना हृदय खोलकर हम उनके निकट जाते हैं, तो हमारे भीतर से वेगभरे झरने फूट पड़ते हैं। साहित्य और कला की हर तरह की रूढ़ परिभाषाएँ तब बेमानी हो जाती हैं।

हमारा शहराती या नागर साहित्य समय के लंबे चक्र में जब कभी अपनी सहजता बिसार देता है, और कृत्रिम शिल्प और भाषा-शैली के उलझाऊ झमेलों के काण जड़ता की हालत में पहुँचता है, तो उसे अपनी थकान उतारने और फिर से पुनर्नवा होने के लिए लोक साहित्य की शरण में ही आना होता है। लोक साहित्य, संगीत और संस्कृति के अथाह सोते में स्नान करके ही वह फिर से अपनी शक्ति हासिल करता है, क्योंकि जीवन का सहज प्रवाह तो यहीं है।

किसी पुराने उस्ताद की तरह सत्यार्थी जी बता रहे होते थे, तो मैं अवाक् सा उन्हें सुनता था।

उन्हें लोकगीतों का दरवेश कहा जाता था, जिसने अपनी पूरी जिंदगी लोकगीतों के संग्रह में लगा दी। पंजाब में संगरूर जिले के एक छोटे से गाँव में जनमे देवेंद्र सत्यार्थी ने पूरे देश के गाँव-गाँव, गली-कूचे, खेत और पगडंडियों की न जाने कितनी बार परिक्रमाएँ कर डालीं। लोकगीतों का अनहद नाद उनके भीतर गूँजता था। वही उन्हें यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ ले जाता था। न भाषा इसमें कोई दीवार बनती थी और न प्रांतों की सरहदें। इसलिए कि वह एक ऐसा शख्स था, जो पूरे देश की आत्मा से एकाकार हो चुका था।

इसीलिए लोकगीत भी उसके लिए केवल लोकगीत नहीं, बल्कि धरती की आवाजें थीं, जिनमें जनता के सुख-दुख, अंतर्मन की पीड़ा, आनंद और उल्लास फूट पड़ता था। सत्यार्थी जी लोकगीतों में खेत की फसलों का हुमचता संगीत सुनते थे, और मुक्त हवाओं के साथ खिलखिलाती जिंदगी का सुर-ताल भी।

अकसर उनकी जेब में चार पैसे भी न होते, और वे पूरे भारत की परिक्रमा करने निकल पड़ते। कहाँ जाएँगे, कहाँ नहीं, कुछ तय न था। कहाँ ठहरेंगे, क्या खाएँगे-पिएँगे, किस-किस से मिलेंगे, कुछ पता नहीं। बस, पैर जिधर ले जाएँ, उधर चल पड़ते। हवाओं के वेग की तरह वे भी जैसे बहते चले जाते। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न लोग।…पर मन में सच्ची लगन थी, इसलिए जहाँ भी सत्यार्थी जी जाते, वहाँ लोग मिल जाते थे। ऐसे भले और सहृदय लोग, जो लोकगीतों का अपना खजाना तो इस फकीर को सौंपते ही, साथ ही उन लीकगीतों के अर्थ और गहनतम आशयों को जानने में भी मदद करते।

इतना ही नहीं, सत्यार्थी जी बार-बार लोकगीतों को सुनकर, उनकी लय को दिल में बसा लेते। फिर जब वे हंस, विशाल भारत, माडर्न रिव्यू याप्रीतलड़ी सरीखी पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखते तो लगता, उनके शब्द-शब्द में सचमुच धरती का संगीत फूट रहा है। यही कारण है कि लोकगीतों पर लिखे गए सत्यार्थी जी के लेखों ने गुरुदेव टैगोर, महामना मालवीय, महात्मा गांधी, राजगोपालाचार्य, के.एम. मुंशी और डब्ल्यू.जी. आर्चर सरीखे व्यक्तित्वों को भी प्रभावित किया था। और गांधीजी ने तो सत्यार्थी जी के इस काम को आजादी की लड़ाई का ही एक जरूरी हिस्सा माना था।…

पर इन्हें लिखने वाले देवेंद्र सत्यार्थी तब भी बच्चों जैसे सरल थे, और अंत तक बच्चों जैसे सरल और निश्छल ही रहे।

*

सत्यार्थी जी मेरे गुरु थे। अपना कथागुरु मैं उन्हें कहता हूँ, पर सच तो यह है कि उन्होंने मुझे सिर से पैर तक समूचा गढ़ा था। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं के कारण हूँ।

जिन दिनों सत्यार्थी जी से मिलना हुआ, मैं दिल्ली में नया-नया ही आया था और कुछ डरा-डरा सा रहता था। दिल्ली मुझे रास नहीं आ रही थी।…मैं सीधा-सादा कसबाई आदमी। सो दिल्ली मुझे बेगाना सा शहर लगता था। अंदर कोई कहता था, यहाँ से भाग चलो, प्रकाश मनु। यह शहर तुम्हारे लायक नहीं है या शायद तुम ही इसके लायक नहीं हो…!’

मुझे लगता था, भला कोई सीधा-सादा आदमी दिल्ली में कैसे रह सकता है? पर सत्यार्थी जी से मिला तो लगा, अरे, ये तो मुझसे भी सीधे हैं। बिल्कुल बच्चों की तरह।…अगर ये दिल्ली में रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?’

सच पूछिए तो पहली बार सत्यार्थी जी ने मुझे जीना सिखाया। उन्होंने एक मीठी फटकार लगाते हुए कहा, तुम अपने आनंद में आनंदित क्यों नहीं रहते हो?…खुश रहा करो मनु।…तुमने कोई अपराध थोड़े ही किया है। खुलकर हँसना सीखो, खुलकर जियो।…हमें यह जीवन आनंद से जीने के लिए मिला है। अगर तुम यह सीख लो तुम्हें कोई मुश्किल नहीं आएगी।

और सचमुच सत्यार्थी जी के नजदीक आते ही, मेरे आगे रास्ते खुलते चले गए थे। मुझे जीने का तरीका आ गया था।

इसी तरह सत्यार्थी जी ने ही पहली बार मुझे साहित्य और कला का गुर बताया था।

एक दफा कहानी की बात चल रही थी, तो उन्होंने मुसकराते हुए कहा, मनु, अगर तुम देखो, तो तुम्हारे चारों ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी हुई हैं। तुम्हारे आसपास की हर चीज, यहाँ तक कि सड़क पर पड़े पत्थर के एक छोटे से अनगढ़ टुकड़े की भी एक कहानी है। तुम उसके नजदीक जाओ तो लगेगा, वह अपनी कहानी सुना रहा है।…तुम्हारे आसपास जितने भी लोग हैं, सबकी कोई न कोई नायाब कहानी है। बस, उन्हें सहानुभूति से देखने, समझने और पहचानने की जरूरत है…!”

इसी तरह एक दिन मैं अपनी एक मार्मिक आत्मकथात्मक कहानी यात्रा उन्हें सुना रहा था। कहानी सुनकर वे बोले, मनु तुमने सचमुच अच्छी कहानी लिखी है, जिसमें तुम्हारा दिल बोलता है।…कहानी तो कुछ ऐसी ही चीज है, जो दिल से दिल में उतर जाए।..

फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, याद रखो मनु, जब तुम कोई कहानी लिखते हो तो कहानी भी तुम्हें लिखती है। इसलिए कोई अच्छी कहानी लिखकर तुम वही नहीं रह जाते, जो लिखने से पहले थे।…बल्कि कहानी तुम्हें बदलती भी है। वह तुम्हें भीतर ही भीतर एक अच्छे संवेदनशील आदमी में बदल देती है…!”

यह ऐसी बात थी कि मैं देर तक उन्हें देखता रह गया था। आज भी मैं सोचता हूँ तो लगता है, कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी, जिसके पूरे मानी आज खुल रहे हैं।

ऐसे ही एक दिन एक मूर्तिकार की कहानी वे सुना रहे थे। सुनाते-सुनाते एकाएक बोले, देखो मनु, हर पत्थर में मूर्ति तो पहले से ही मौजूद होती है। बस, उसके फालतू हिस्सों को काटने-छाँटने और तराशने की जरूरत है…और हर कलाकार यही करता है…!”

मुझे लगता है, शायद इससे कोई बड़ी बात मूर्तिकला के लिए कही नहीं जा सकती।

सत्यार्थी जी बातें करते-करते बहुत सहजता और आहिस्ता से ऐसी बहुत बातें कह जाते थे, जिन पर मैं बाद में विचार करता, तो मेरी पहले से बनी-बनाई सोच टूटकर बिखर जाती, और मुझे नए सिरे से चीजों पर सोचना पड़ता।

असल में सत्यार्थी जी सोच की तंगदिली बर्दाश्त नहीं करते थे। उन्हें हर चीज पर खुले और उदार ढंग से सोचना पसंद था, और यही चीज उन्हें एक बड़ा इनसान और बड़ा साहित्यकार बनाती थी।

*

आज सत्यार्थी जी को गुजरे पूरे बीस बरस हो गए।

12 फरवरी 2003 को उऩ्होंने समय के भीषण थपेड़ों से जर्जर अपना पुराना चोला छोड़ा, और अनंत दिशावाही मुक्त हंस की तरह खुले आसमानों की ओर उड़ चले, जहाँ कोई हारी-बीमारी या बुढ़ापा, उनके पैरों में जंजीरें नहीं डाल सकता था। कोई उन्हें अपनी यात्रों से विरत नहीं कर सकता था। अब वे सच्चे कालयात्री बन गए थे।

पर आज भी उनकी यादें पग-पग पर मुझे इस कदर घेर लेती हैं कि वे आज नहीं हैं, यह सोच पाना मेरे लिए कठिन हो जाता है।

उनके खूबसूरत दाढ़ीदार चेहरे पर बिछलती खुली और उन्मुक्त हँसी, उनकी असाधारण किस्सागोई और उस्तादाना बातें याद आती हैं तो लगता है कि ऐसा इनसान तो कभी जा ही नहीं सकता। और उन जैसा प्यार तो शायद कोई और कर ही नहीं सकता। एक बच्चा भी अगर उके पास पहुँच जाए तो उसके साथ वे घंटों बड़े प्यार से बतिया सकते थे।

हालाँकि अगर कोई बहुत ऊँचा उड़े, तो उसे कैसे हँसकर जमीन दिखा देनी है, यह कौशल भी उनमें कम न था। याद पड़ता है, पहली मुलाकात में ही मैंने बाल कहानी की काफी लंबी व्याख्या कर दी, कि नंदन के लिए हमें एकदम सीधी-सरल भाषा में लिखी गई किस्सागोई वाली कहानी चाहिए, जैसी दादी-नानी की कहानियाँ हुआ करती थीं।

सुनकर सत्यार्थी जी जरा सीरियस हो गए। बोले, आप बेफिक्र रहिए। रचना भी आखिर रोटी सेंकने की तरह है न! रोटी न ज्यादा सिंकी होनी चाहिए, न कम सिंकी। यानी न एक आँच कम, न एक आँच ज्यादा। वैसे ही रचना भी पकती है। आपके लिए कोई अच्छी-सी कहानी ढूँढ़ूँगा, और सही आँचन कम, न ज्यादा!

चश्मे के पीछे आँखों में चमकती हँसी। मुझे लगा, एक हलका-सा व्यंग्य भी है कि कल का छोकरा मुझे बताने चला है, कहानी कैसे लिखी जाती है!

एक बात यह भी समझ में आई कि साहित्य और कला की बड़ी से बड़ी बातों को कोई चाहे तो कितनी मामूली भाषा में कह सकता है, रचना भी आखिर रोटी सेंकने की तरह है न!…यानी न एक आँच कम, न एक आँच ज्यादा…! पर उसके लिए आपके पास एक उस्ताद की सी आँख होनी चाहिए।

सत्यार्थी जी के पास वह आँख थी। इसीलिए बड़ी से बड़ी बातों को खेल-खेल में कह देना उन्हें आता था।

*

फिर धीरे-धीरे सत्यार्थी जी की बातों में उनकी पूरी जीवन कथा मेरे आगे खुलती चली गई। वे अकसर बहुत भावुक होकर शांतिनिकेतन का जिक्र किया करते थे, जहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ से उनकी कई मुलाकातें हुईं तथा उनकी लोकयात्राओं को गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का आशीर्वाद मिला।

सच तो यह है कि शांतिनिकेतन एक तरह से उनके लिए दूसरा घरबन गया था। अपनी लोकयात्राओं के सिलसिले में वे कहीं भी आ या जा रहे हों, राह में पांथ निवासमें ठहरना न भूलते। शांतिनिकेतन के खुले नैसर्गिक वातावरण और वहाँ संथाल युवक-युवतियों की मुक्त हँसी और साहचर्य से उन्हें अपार ऊर्जा और प्रेरणा मिलती थी। फिर वहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तो थे ही, जो सत्यार्थी जी में अपनी युवावस्था का आत्मचित्र देखते और उन्हें भरपूर स्नेह से नहलाते थे।

सत्यार्थी जी दर्जनों बार शांतिनिकेतन गए और वहाँ लंबा प्रवास किया। बाद के दिनों में वे शांतिनिकेतन नहीं जा सके, पर शांतिनिकेतन किसी पुकारती हुई पुकारकी तरह उन्हें बुलाता था और वे वहाँ जाने के लिए विकल हो उठते। अंतिम दिनों तक न शांतिनिकेतन उन्हें भूला और न वहाँ की यादें!

सत्यार्थी जी से शांतिनिकेतन और गुरुदेव के बारे में सुनना सचमुच एक आनंददायक अनुभव था। ऐसे क्षण जब वे पूरी तरह खुद में डूब जाते और उनके शब्दों में गुरुदेव और शांतिनिकेतन का बड़ा ही छबीला चित्र उभरता था। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उनकी मुलाकात कब और कैसे हुई? यह जानने की गरज से एक दफा मैंने पूछा, “अच्छा सत्यार्थी जी, जरा बताइए तो, शांतिनिकेतन में आपका प्रवेश कैसे हुआ? गुरुदेव से इतनी आत्मीयता…!

मैं तो रमता जोगी था, घूमते-घूमते ही शांतिनिकेतन पहुँचा था।सत्यार्थी जी ने मुसकराते हुए बात का सिरा पकड़ा। और फिर सुरमें आकर बताने लगे, “उन दिनों शांतिनिकेतन की दूर-दूर तक कीर्ति फैल चुकी थी। एक से एक बड़ी प्रतिभाएँ वहाँ थीं। उनसे मिलने, बात करने का मन होता था, पर सबसे बढ़कर तो गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से मिलने की लालसा थी। तब तक गुरुदेव से छोटी-मोटी मुलाकातें तो हुई थीं, लेकिन खुलकर बात नहीं हुई थी।

उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे किसी से पैर नहीं छुआते थे। एक दफा मैंने धोखे से उनके पैर छू लिए तो उन्होंने मुझे प्यार से आशीर्वाद दिया। उसके बाद मैंने विस्तार से उनसे अपने लोकगीत संग्रह की चर्चा की तो बड़े गौर से सुनते रहे। खुश होकर बोले कि मैंने भी बचपन में बैलगाड़ी में बैठकर पूरे देश की यात्रा करनी चाही थी और पल्ली गीतइकट्ठा करने की योजना बनाई थी, पर वह काम अधूरा रह गया। मुझे खुशी है कि जो काम मैं नहीं कर सका, वह तुम कर रहे हो!

रवींद्रनाथ ठाकुर ने ही उन्हें बताया कि बंगाल में लोकगीतों को पल्ली गीतकहा जाता है!

सत्यार्थी जी के प्रति रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रेम बड़ी गहरी भावाकुलता के साथ बह रहा था। उन्हें लगा, यह युवक उन्हीं के अधूरे काम को पूरा करने के लिए आगे आ खड़ा हुआ है। इसके बाद तो शांतिनिकेतन के पांथ निवासके दरवाजे सत्यार्थी जी के लिए हमेशा के लिए खुल गए। गुरुदेव का आदेश था कि ये जितने दिन भी चाहें, यहाँ रह सकते हैं। इन्हें कोई रोके नहीं।

तो इस तरह शांतिनिकेतन यायावर सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के लिए एक तरह का हाल्ट-स्टेशनबन गया था। वे कहीं से भी आ या जा रहे हों, प्रयत्न करके बीच में शांतिनिकेतन जरूर रुकते थे। इससे उनके मन को बड़ी शांति मिलती थी, बड़ी ताजगी मिलती थी।

शांतिनिकेतन में गुरुदेव से मिलना तो होता ही था, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर तथा और भी न जाने कितनी विभूतियों से वे वहाँ पहले-पहल मिले। यह उनके लिए एक नए जन्म की मानिंद था। एक नया और सार्थक जीवन, जिसने उसके लोकगीत संग्रह के अभियान और घुमक्कड़ी को नया अर्थ दिया।

गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उनका मिलना एकदम अनौपचारिक अंदाज में होता था। गुरुदेव से सत्यार्थी जी की आत्मीयता इस कदर बढ़ गई थी कि एक दफा उन्होंने कहा, “अगर तुम चाहो तो शाम को चाय के समय नियमित मेरे पास आ सकते हो। हम साथ-साथ चाय पी सकते हैं।

इस तरह जितने दिन भी मैं शांतिनिकेतन रहता, शाम को चाय के समय नियमित गुरुदेव के पास पहुँच जाता था।सत्यार्थी जी ने एक बार पुरानी स्मृतियों के प्रवाह में बहते हुए मुझे बताया था—

गुरुदेव अकसर अपनी नई रचनाओं या मन में उमड़-घुमड़ रहे भावों, विचारों की चर्चा करते थे। मेरे लिए इससे बड़ा सुख भला और क्या हो सकता था! मैं गौर से सुनता रहता। गुरुदेव कभी-कभी मेरे काम की बाबत भी पूछा करते थे। और इस बात से खुश भी होते थे कि मैं एक महत्त्वपूर्ण काम में लगा हूँ। बराबर मुझे प्रोत्साहित भी करते थे।

गुरुदेव का जिक्र आने पर सत्यार्थी जी के चेहरे पर जो गहरी विनय की झाँईँ और एक असाधारण चमक सी आती थी, उससे उनका पूरा चेहरा आभापूरित हो उठता था।

उस समय उन्हें देखना मानो कदम-कदम पर भूख, अभाव और बाधाओं के बीहड़ से टकराती एक लंबी अतीत यात्रा का गवाह होना था।

मैं चुप-चुप उन्हें देखता। कुछ देर बस, देखता ही रहता। ऐसे क्षणों में सत्यार्थी जी और गुरुदेव दोनों के प्रति मन में जो एक गहरे प्रेम और सम्मान की अनुभूति होती, उससे मन और आत्मा में जैसे उजाला सा होता था।

*

सत्यार्थी जी की धूलभरी यात्राओं ने उन्हें चाहे कितने अभाव और कष्ट दिए हों, पर उनके प्रति वे यह कहकर कृतज्ञता जताए बगैर नहीं रहे कि इन यात्राओं ने ही उन्हें देश के बड़े से बड़े कर्णधारों, राजनेताओं, चिंतकों, लेखकों और कलाकारों से मिलवाया। जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों के मूर्धन्यों ने भी उनकी इन लोकयात्राओं के लिए खास आदर प्रकट किया और उत्सुकता से उनके बारे में जानना चाहा। बेशक इनमें से बहुत-से दिग्गजों और मनीषियों ने खुद आगे बढ़कर उनकी मदद भी की। इससे सत्यार्थी जी की ये यात्राएँ आनंदपूर्ण और कुछ आसान भी हो गईं।

 

इस तरह के मूर्धन्यों में एक ओर प्रेमचंद और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज थे, तो अज्ञेय और जैंनेद्र सरीखी बड़ी साहित्यिक प्रतिभाएँ भी थीं। बलराज साहनी और साहिर जैसे हरदिल अजीज शख्स थे जिन्होंने आगे जाकर फिल्मी दुनिया में बड़ा नाम कमाया तो पाब्लो नेरूदा भी, जो उस समय विश्वविख्यात शख्सियत बन चुके थे। फिर गुरुदेव टैगोर और महात्मा गाँधी का तो सदैव उन्हें आशीर्वाद मिला ही। और सत्यार्थी जी के उनसे जुड़े अनेक प्रसंग अब ऐतिहासिक थाती बन चुके हैं।

सत्यार्थी जी को राजनेताओं से मिलने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें आम लोगों, लेखकों, कलाकारों और जनता के बीच काम कर रहे समाजकर्मियों से मिलना कहीं अधिक पसंद था। पर गांधीजी की तरह सत्यार्थी जी पंडित जवाहरलाल नेहरू के भी प्रशंसक थे और उनसे उनकी कई अंतरंग मुलाकातें हुई थीं।

हुआ यह कि गांधीजी ने कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में सत्यार्थी जी को बुलाने के लिए काका कालेलकर को विशेष रूप से भेजा था। काका ने सत्यार्थी जी को गांधीजी का संदेश दिया। सत्यार्थी जी गांधीजी के इस प्रेम और गुणग्राहकता को देख, भावविह्वल हो गए। वे इस सम्मेलन में शामिल हुए तो गांधीजी ने उन्हें लोकगीतों पर अपना व्याख्यान देने के लिए कहा।

सत्यार्थी जी ने अपने व्याख्यान में खासकर ऐसे लोकगीतों का विशेष रूप से जिक्र किया, जिनमें देश की जनता के दर्द और गुलामी की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। सुनकर सभी बेहद प्रभावित हुए। बाद में गांधीजी बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने सत्यार्थी जी के व्याख्यान के साथ-साथ, उनके द्वारा सुनाए गए एक लोकगीत की बेहद प्रशंसा की। उन्होंने भावविभोर होकर कहा, अगर तराजू के एक पलड़े में मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएँ, और दूसरे में यह लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा भारी रहेगा।…

कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में बैलगाड़ी पर नेहरू जी का जुलूस निकला था। सत्यार्थी जी ने उसका वर्णन फैजपुर अधिवेशन पर लिखे गए अपने लेख कांग्रेस गोज टु ए विलेजमें किया है, जो न्यूयार्क से निकलने वाली पत्रिका एशियामें छपा था। उस सम्मेलन में गांधीजी की तरह नेहरू जी और पटेल ने भी उनकी लोकयात्राओं के प्रति उत्सुकता प्रकट की थी।

सम्मेलन में सत्यार्थी जी को कुछ ऐसे लोकगीत सुनने को भी मिले, जिनमें नए जमाने का भी असर था। कुछ लोकगीतों में इस बात का जिक्र था कि सरदार पटेल की पहले बड़ी-बड़ी मूँछें हुआ करती थीं जो अब गायब हो गईं। कुछ लोकगीतों में बैलगाड़ी पर यात्रा कर रहे नेहरू जी का मजेदार वर्णन था। सत्यार्थी जी ने अपने लेख में इन लोकगीतों का भी वर्णन किया है, जो आम जनता के बीच से पैदा हुए थे, पर आज दिग-दिगंत को गुंजारित कर रहे थे और एक बदले हए इतिहास के गवाह बन चुके थे।

आगे चलकर नेहरू जी से सत्यार्थी जी की खासी लंबी और अंतरंग मुलाकात तब हुई, जब वे अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री थे। तब पं. जवाहरलाल नेहरू के घर पर सत्यार्थी जी की उनसे कोई डेढ़-दो घंटे तक बातचीत चली। उनमें एक फ्रेंच पत्रिका के फ्रेंच संपादक भी शामिल थे। आतिथ्य श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया था। जब वे चाय लेकर आईं, नेहरू जी ने सत्यार्थी जी का परिचय कराया। इस पर इंदिरा जी ने मुसकराते हुए कहा, “मैं इनसे शांतिनिकेतन में मिल चुकी हूँ, गुरुदेव टैगोर के साथ!

और जब नेहरू जी ने इंदिरा को पास बैठकर चाय पीने को कहा, तो उनका विनम्रतापूर्वक साफ इनकार। इंदिरा जी का कहना था, “मैं भला अपने गुरु जी के सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकती हूँ?”

इस घटना की पृष्ठभूमि भी सत्यार्थी जी से ही पता चली। असल में सत्यार्थी जी अकसर शांतिनिकेतन जाते थे और वहाँ हजारी बाबू से उनकी मुलाकात होती थी। एक बार द्विवेदी जी अस्वस्थ थे तो उन्होंने सत्यार्थी जी से कहा कि आज मेरी जगह आप जाकर पढ़ा दीजिए।…

सत्यार्थी जी हैरान। बोले, “आपकी जगह मैं कैसे पढ़ा सकता हूँ? मैं तो आपके विषय का विद्वान नहीं हूँ।

इस पर द्विवेदी जी का जवाब था, “आपको इसकी क्या जरूरत है? आपको जो विषय अच्छा लगे, उसी को लेकर बच्चों से बातें करें। वही विद्यार्थियों के लिए आनंददायक विषय बन जाएगा।

और सत्यार्थी जी ने जिस कक्षा में पढ़ाया था, उसमें इंदिरा गांधी विद्यार्थी के रूप में मौजूद थीं।

हालाँकि यायावर साहित्यकार का पढ़ाना भी क्या था! उन्होंने लोकगीतों की चर्चा करते हुए, अपनी घुमक्कड़ी के रोमांचक प्रसंगों का जिक्र किया था और बच्चों को यह खासा रुचिकर लगा था। फिर तो ऐसा अकसर होता कि द्विवेदी जी सत्यार्थी जी को अपनी कक्षा में बुला लेते और फिर यायावर को अपनी यात्रओं के दुर्लभ प्रसंग और अनुभव सुनाने के लिए कहते। बच्चे बड़े कौतुक और आदर के साथ सुनते। इस अद्भुत लोकयात्री के लिए उनके मन में सम्मान और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया था।

यही बरसों बाद इंदिरा गांधी को भी याद रहा। और सत्यार्थी जी के लिए उनके मन में जीवन भर एक गुरु जैसा ही आदर रहा।

नेहरू जी बाद में प्रधानमंत्री हुए, तब भी उनसे सत्यार्थी जी की कई मुलाकातें हुईं। 1956 में पी.ई.एन. सम्मेलन में सोफिया वाडिया ने नेहरू जी का सत्यार्थी जी से परिचय कराया, तो वे हँसकर बोले, “कॉल हिम फोकलोर इंडिया…!

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अपनी लोकयात्राओं की चर्चा करते हुए सत्यार्थी जी डब्ल्यू.जी. आर्चर का भी बड़े प्यार से नाम लेते थे, जो लोक साहित्य की जानी-मानी हस्तियों में से थे और सत्यार्थी जी से उनका बड़ा प्रेम था। डब्ल्यू.जी. आर्चर से उनका पत्र-व्यवहार तो बहुत पहले से चल रहा था। उन्होंने अपने किसी लेख में सत्यार्थी जी की बहुत तारीफ भी की थी, पर उनसे मिलने का कोई मौका लंबे समय तक नहीं आया था। फिर एक दफा आजकलके दफ्तर में सत्यार्थी जी के पास डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का फोन आया, “आप आइए…वो आने वाले हैं जिनसे आपको मिलना है।

सत्यार्थी जी को बड़ी खुशी हुई कि डब्ल्यू.जी. आर्चर से मिलना होगा। वे उनकी किताब द ब्लू ग्रोवपढ़ चुके थे और उस पर उन्होंने लिखा भी था। खैर, सत्यार्थी जी वासुदेवशरण अग्रवाल के पास जाकर बैठ गए। और फिर दूर से आता दिखाई दिया उन्हें वह शख्स जिसका नाम तो उन्होंने सुना था, पत्र-व्यवहार भी हुआ पर कभी मिलना नहीं हुआ था। जब आर्चर आकर सत्यार्थी जी से गले मिले तो उन्होंने जैसे खुशी से झूमकर कहा, “इट्स इंडिया एंड इंग्लैंड एंब्रैसिंग!

आज जब सत्यार्थी जी नहीं हैं तो उनकी अनथक लोकयात्राएँ और निराला लोक-अध्ययन ही नहीं, वे हमसफर भी याद आते हैं जिन्होंने सचमुच इस देश की देसी पहचान यानी लोक-संग्रह और लोक-अध्ययन का एक बड़ा कारवाँ बनाया और देखते ही देखते समूचे देश में लोक साहित्य का एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया।

सत्यार्थी जी की स्थिति उसमें ऐसे नायक की थी, जिसने अपने खून-पसीने से उसे सींचा और गरीब किसान और स्त्रियों के दर्द से सीझे लोकगीतों को दूर-दूर तक हवाओं में गुँजा दिया। लिहाजा जब भी आजादी की लड़ाई के सामाजिक और लोक-पक्ष की याद आएगी, तो सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व और काम का महत्त्व हमें कहीं अधिक समझ में आएगा।

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