— राम जन्म पाठक —
क्या तुम शहर में वही होते हो, जो गांव में होते हो? यह तुलना इसलिए कि मैं ताजा ताजा गांव से लौटा हूं और उसकी गहन स्मृति मानस पटल पर तारी है।
मैं हैरान हूं मैंने दिल्ली में जो देखा।
एक बंदर और पागल मनुष्य में भोजन को लेकर युद्ध। लालकिले के पिछवाड़े। एक ऐतिहासिक स्मारक के कूड़ेदान की तलछटों के नीचे। एक टुकड़ा रोटी को लेकर जानवर और इंसान के बीच की वह जुस्तजू-ए-जंग महज एक सानिहां नहीं थी। उससे कुछ बढ़कर था।
बंदर ने पागल को चांटा मारा।
अच्छा हुआ वहां टीवी चैनल वाले नहीं थे, नहीं तो महीनों यही दिखाते कि जानवर का इंसान पर हमला।
फिर पागल भिखारी ने बंदर को चांटा मारा।
राह चलते लोगों ने कौतुक और कहकहे के साथ इस हरजाई नजारे को देखा।
सुखांत यह रहा कि दोनों रोटियां छोड़कर चले गये। युद्ध विराम की यह शर्त भावी पीढ़ी को क्या कोई सबक दे सकती है।
इतिहास में याद नहीं कि कोई कुश्ती इतनी बराबरी पर कटी हो।
मैंने गांव वाली बात शुरू में इसलिए उठाई थी कि उस दिन मैंने शहर में गांव देखा था।
क्या वह कोई रूपक था?
क्या तुम उसे ठीक से समझ सकते हो?
क्या ऐसा कोई समझौता होशमंद इंसानों के बीच मुमकिन है। यूक्रेन और रूस में या चीन और ताइवान में या भारत और पाक में या…. उदाहरण बहुतेरे हैं।
क्या हम इस स्थिति को उलटा कर दें। यानी यह मान लें कि सिर्फ पागल या जानवर ही युद्ध विराम कर सकते हैं। लेकिन अभी तक तो ऐसी उपमाएं युद्ध पिपासुओं को दी जाती थीं।
दिल्ली के इतिहासकारों को उस बंदर और पागल का इतिहास लिखना होगा।
वर्ना बंदर और पागल एक दिन इतिहासकारों का इतिहास लिखेंगे।
यह वही लालकिला है जिसकी प्राचीर से हर पंद्रह अगस्त को देश की शानोशौकत का बखान किया जाता है और खुशहाली के गीत गाए जाते हैं और भविष्य की समृद्धि की बारंबार कामना की जाती है। एक बूढ़ी होती जा रही इमारत। आखिर उस बंदर और पागल ने रोटी के एक टुकड़े के लिए झगड़ा करने के लिए इस इमारत का पिछवाड़ा क्यों चुना? यह लड़ाई संसद भवन के पीछे या शास्त्री भवन के पीछे या मंडी हाउस के सामने क्यों नहीं हो सकती? क्योंकि वहां बंदरों को रहने नहीं दिया जाता और पागल हटा दिए जाते हैं।
मेरी कल्पना में एक दुष्टता ने सेंधमारी कर ली। वह सोचने लगी कि दिल्ली में विचारालय है, विवादालय है, न्यायालय है, मदिरालय है, वेश्यालय है, शौचालय है तो सरकार क्यों नहीं हर चौराहे के कोने में एक झगड़ालय भी बनवा दे। जिसे भी जरूरत हो करके निकल जाए। इससे सरकार को फायदा होगा। समाज का सामूहिक क्रोध संचित नहीं हो पाएगा और अपना दैनिक क्रोध नागरिक यों ही निकालते रहेंगे। मैंने यह बात जोर से कह दी। सामने खड़े एक व्यक्ति को देखकर। उसने मुझसे पूछा, “आपने कुछ कहा?”
मैंने कहा, “तुम हो किस लायक़ जो मैं तुमसे कुछ कहूं।” मैंने उसे उकसा दिया।
वह मेरी तरफ बढ़ने लगा। मैं खिसक कर अपनी कार के पास आ गया और निश्चिंतता से कार की चाभी तर्जनी से गोल गोल नचाने लगा। वह पैदल था। मुझे घूरते हुए निकल गया। वर्ना एक छोटी-मोटी झड़प की पूरी गुंजाइश थी।
मैंने ड्राइविंग सीट पर बैठते ही छन्नूलाल मिश्र का वह वीडियो लगा दिया, जिसमें वह आदि शंकराचार्य रचित “निर्वाण षटकम्” का संस्कृत पद्य गा रहे हैं। यह वीडियो यूपीए के शासन काल का लगता है, क्योंकि इसमें सोनिया और मनमोहन सिंह नजर आ रहे हैं। हालांकि, छन्नूलाल मिश्र को पद्म विभूषण दिया बहुत बाद में मोदी सरकार ने।
क्या यह भी कोई झगड़ा था?
स्वर लहरी ऊपर उठ रही है। तबला वादक की मस्ती देखने लायक है। ……
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम् शिवोहम्.
[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…]
……..
मैंने रफ्तार बढ़ा दी।