ध्रुव शुक्ल की दस कविताऍं

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पेंटिंग - मोहित जैन


1. कांपती धरती पर

कांप रही है धरती
सब अपने होने का सबूत दे सकें
सड़क पर और संसद में भी

दूसरी कोई धरती नहीं
यह भी प्रमाणित कर सकें
राष्ट्रसंघ की सभा में

इस धरती पर
अपना होना छिपाकर
कोई नहीं रह सकता
धर्मक्षेत्र में और कुरुक्षेत्र में

कांपती धरती पर
कोई कैसे रह सकता है अकेला
परिवार में, पड़ौस में और देश में

धरती पर
अपने होने के प्रमाण में
खड़े हों सबके साथ सब ऐसे
जैसे ख़ुद अपने ही सामने

2. हर एक देश का अपना कोई सबेरा है

हर एक देश का तन
उसके जन के पाॅंवों पर चलता
सबके हाथों से देश संभलता है
सबकी आंखों में
देश का सपना पलता है
सबका मन मिलकर खूब मचलता है
सबका जीवन बीत रहा है
दिन उगता है फिर ढलता है

हर एक देश की
अपनी-अपनी काया है
हर एक देश की
अपनी-अपनी माया है
हर एक देश की
अपनी-अपनी छाया है

हर एक देश की
अपनी-अपनी बातें हैं
हर एक देश के
अपने दिन, अपनी रातें हैं

आसमान में
सबके प्रकाश का डेरा है
हर एक देश में
सूरज का फेरा है

हर एक देश के
अपने पूरब-पश्चिम हैं
हर एक देश का अपना कोई अंधेरा है
हर एक देश का अपना कोई सबेरा है

3. ए री जनता

भारत अपना देश
अपने बीच की बात
हम जनता इस देश की
अपनी कौन-सी जात?
संसद के भीतर है जनता
संसद के बाहर है जनता
संसद के भीतर की जनता
बन जाती सरकार
संसद के बाहर की जनता
हो जाती लाचार
हम बामन बनिया ठाकुर और कहार
हम ही ख़ुद से हार
कर रहे किसकी जय-जयकार?
मन-मन पीसें, मन-मन खायें
नहीं किसी से जूझन जायें
जात-पांत में सने फिरें
भारतवासी बने फिरें!

4. क्षमा करने में लाचार

अभी तक धरती ने नहीं छोड़ी क्षमा

खोती है धरती भी
कभी-कभी धीरज को
करवट बदलती है
पानी हिलाती है
अपनी माटी में
थोड़ा-थोड़ा सबको मिलाती है
बचाये हुए है कितना जीवन
खुली धूप में

धूप ने भी कहाॅं छोड़ी क्षमा
रोज़ उतरती है सबके आंगन में

अभी भी झरती है आकाश से क्षमा
अंधकार के बीच शान्त पूर्णिमा-सी

प्राणों से उठती रहती पुकार
क्षमा!क्षमा!क्षमा!

क्यों कम होते जा रहे
क्षमा करने वाले
क्षमा माॅंगने वाले भी

न जाने किस अपराध में भागीदार
क्षमा करने में लाचार
क्षमा माॅंगने में लाचार

5. रंग कहां लड़ते हैं किसी से

देशकाल में भरे हैं कई रंग
उन्हें लड़ते नहीं देखा कभी
रचना देखी है उनकी जीवन में

अचानक यह कैसा शोर
क्या आती है हरे से लड़ने
प्रतिदिन केसरिया भोर

यह सब रंगों के बीच हरा
क्यों लगता है इतना बेहाल
कोई रंग छिटकता उससे
कोई पोते उस पर लाल

यह नीला आसमान
इसकी छाया में
सब रंग भासमान

जीवन का रंग है नीला
शाम ढलते ही
समेट लेता है सारे रंग
सब रंग डूब जाते हैं उसी में
उजाला होने तक
डूबे रहते हैं एक-दूसरे में
रंग कहां लड़ते हैं किसी से

कौन हैं ये चित्रकार
जो मान बैठे हैं रंगों को
एक-दूसरे का शत्रु
सब रंगों को एकसाथ
रचा नहीं पा रहे जीवन में

पेंटिंग- गोपाल अधिवेरकर

6. मां दुख की लय में रोती थी

मां जब अपना दुख रोती थी
दुख की लय में रोती थी
दुख की अकथ-कथा में
अपना दुख बोती थी

अंसुवन जल से सींच-सींचकर
दुख की फसल काटती रहती
जिससे मन मिल जाये
उपजे दुख को उसे बांटती रहती
मन की धरती में दबे हुए थे उसके
दुख के बीज न जाने कबसे
शायद यह जीवन है जबसे

वह रोती नहीं अकेली
बैठी रहती उसके पास
कोई न कोई संग-सहेली
जैसे वह मां के दुख को सुनने आती
कभी किसी से मत कह देना
मां उसको सौगंध दिलाती

मां के दुख में कोई पड़ौसन
अपना दुख मिलाती
दुख को दुख से मिलते-मिलते
रोज़ सांझ ढल जाती
तुलसाने पर जलता दीप अकेला
लगता जैसे कांप रही हो
घर में दुख की बाती

क्या अपना दुख
दूजे के आगे रोने से कुछ घट जाता है
क्या दुख किसी का
सबके हिस्से में बंट जाता है

उमर बीत गयी मां की
दुख की लय में रोते-रोते
देखा नहीं किसी को उसके दुख को ढोते

मां जीवन से रूठ गयी
घर में फिर सुख की लय भी टूट गयी

7. मिर्ज़ा ग़ालिब की याद

हजारों ख़्वाहिशें ऐसी
ज़िन्दगी आराम करे
दुआ करो
दवा अपना काम करे

अपने ख़्याल में
जहाॅं सबका ख़्याल हो
दिल का क्या रंग करे
क्या किसी के नाम करे

वफ़ा चाहे तो क्यों चाहे
कोई ऐसा मुक़ाम
रात भर रोये
सुबह को शाम करे

ख़ुदी रहे तो क्यों कोई
अपना इंतज़ार करे
जीता रहे
विसाल-ए-यार करे

बदलना क्या है यहाॅं
अन्दाज़-ए-ग़ुफ़्तगू बदले
फिर कोई दूर क्यों जाये
दुआ-सलाम करे

8. शक्तिवान के अंधकार में

आंखों में जगमग जग साकार
रोज़ क्यों रह जाता है शेष
पीठ पर अंधकार का भार

रोज़ घिरती है शाम
डूबने लगते दक्षिण-वाम
जैसे दोनों खाली हाथ
कोई नहीं किसी के साथ

क्यों शक्तिवान का अंधकार
शक्तिहीन पर भारी
क्यों शक्तिहीन का अंधकार
जीवन की लाचारी

जग-जीवन को पीठ दिखाते
शक्तिवान के अंधकार में
लाचारी को मथता जीवन

प्रकाश हो—
यह कहने से होता है प्रकाश
पहले भी ऐसे ही होता आया

कोई क्यों नहीं कह पा रहा—
प्रकाश हो!

9.बीते वक़्तों की नासमझी

उनका खालीपन
उधेड़ता रहता है बुने हुए जीवन को
वे दुहराते रहते
बीते वक़्तों की नासमझी को

उनका अंधविश्वास
भटक रहा है उनके जर्जर मुहल्लों में
धुंधा रही है बदले की आग
रोज़ झुलस रहा है पड़ौस

वे जंग लगी कील से
खण्डहरों की दीवारों पर जमी
काई को कुरेदकर
लिखते रहते हैं अपना नाम

उन्माद के प्रशिक्षण शिविरों में
फिर बढ़ती जा रही है भीड़

10. जनता फिर मिलकर अपने हाथ उठायेगी

शक्तिहीन लोगों की बस्ती को देखो
लोकतंत्र की शक्ति वहीं से आती है
इस जनशक्ति से पाते हैं जो जनसत्ता
उनसे भी उनकी शक्ति छीन ली जाती है

शक्तिवान ही रचते हैं अपना शासन
मतदान नहीं सत्ता पूॅंजी से आती है
लोकतंत्र को भरती रहती लालच से
जो झुके नहीं वह उसको मार गिराती है

देखो उनको जो घुसे चोर दरवाजों से
उनके ही हाथों में सत्ता क्यों आती है
उन्हें पुकारो जो स्वराज्य को तड़प रहे
पहचानो उनको जिन्हें गुलामी भाती है

इस जोर-जुल्म से जब कोई टक्कर लेने
जन-मन की आवाज़ उठायी जायेगी
फिर बादल उठ आयेंगे जनसागर-तट से
जनता फिर मिलकर अपने हाथ उठायेगी

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