पशुओं के साथ जीवन की ऊष्‍मा

0


— संजय गौतम —

मूक मुखर प्रिय सहचर मोरे, संस्‍मरणों की किताब है सत्‍यदेव त्रिपाठी की। संस्‍मरण के केंद्र में मनुष्‍य नहीं, पशु हैं। वे पशु जो उनके जीवन के केंद्र में रहे। बैल, गाय, देशी कुत्ते से लेकर लैबाडोर एवं अन्‍य आधुनिक प्रजाति तक के कुत्ते, बिल्‍ली, चूहा इत्‍यादि।

इससे पहले हम उनकी किताब ‘अवसाद का आनंद’ पढ़ चुके हैं, जो प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की जीवनी है। उसके भी पहले उन्‍होंने रंगमंच की अनगिन समीक्षाएं लिखीं, आलोचनात्‍मक लेख लिखे। दर्जनों समीक्षा ग्रंथ लिखे। प्रसिद्ध चित्रकार प्रभाकर बर्वे की मराठी किताब ‘कोरा कैनवस’ का हिंदी अनुवाद किया। गुजराती के ‘ग़ालिब’ कहे जाने वाले शायर ‘मरीज’ की सौ ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद किया। उनकी जीवन यात्रा आजमगढ़ के गाँव सम्‍मोपुर ठेकमा से लेकर बनारस, मुंबई, गोवा, पुणे तक अध्‍ययन-अध्‍यापन एवं लेखन में व्‍यस्‍त रही, लेकिन पशुओं से उनका साथ नहीं छूटा।

सत्‍यदेव त्रिपाठी

यह पशु प्रेम उन्‍हें उनके गाँव में खेती-बाड़ी के दौरान मिला। गाँवों में एकसाथ बैलों, भैसों, गायों एवं कुत्तों का महत्त्व है। इसी के साथ पक्षियों का सहज साथ मिल जाता है। चरित्रों के रूप में इनके चित्र हमें अपने साहित्‍य की परंपरा में बहुत गहरे दिखाई पड़ते हैं। पंचतंत्र से लेकर प्रेमचंद तक और आधुनिक कवि केदारनाथ सिंह तक पशुलोक का महत्त्व उजागर है। पशुओं के चरित्रों को लेकर इतने कहानी उपन्‍यास हैं कि उनकी एक लंबी सूची बन जाएगी। यहाँ सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि पशुलोक ने मनुष्‍य की सत्ता को जीवंत बनाया है। दोनों का साहचर्य आदिम काल से है, दोनों ने एक-दूसरे को जीवन दिया है और एक दूसरे के जीवन की सुरक्षा की है। दोनों जब एकदम अलग होते हैं तब भी वही आदिम पुकार परेशान करती रहती है। जैसे गाँवों के पौधे शहरों के फ्लैटों में गमलों में आ जाते हैं, उसी तरह कुत्तों, बिल्लियों, चूहों की नई प्रजातियां भी फ्लैटों में आ जाती हैं। लोग उनके साथ रहते हैं, अपने बच्‍चों की तरह देखभाल करते हैं। भले ही हमें रामधारी सिंह ‘दिनकर’ अपनी कविता से कचोटते रहते हैं–श्‍वानों को मिलते दूधभात, भूखे बच्‍चे अकुलाते हैं। खैर।

इस किताब में बैलों को लेकर संस्‍मरण हैं- ‘करियका-उजरका और वो सुघरका’ की याद में।‘ गाँव में बैलों के नाम ऐसे ही रखे जाते हैं- काला है तो करियवा, सफेद है तो उजरका और बहुत सुंदर दिख रहा है तो सुघरका, ‘सुग्‍घर’ मतलब सुंदर। गाय पर संस्‍मरण है ‘नानी वाली गइया’, कुत्ते पर चार संस्‍मरण हैं- ‘हाय बीजो श्‍वान-तन में संत थे तुम…..’, ‘छोटा कदम मचक चाल–चीकू त्रिपाठी’, ‘दबंग गबरू और बदमाश किट्टू’, ‘चौथेपन पायउं प्रिय ‘काया’, बिल्‍ली पर है ‘पिछले जनम की यदि नहीं मनुहार थी तो कौन थी तुम’! और सफेद चूहे पर है – ‘जेरी के जलवे’।

इन संस्‍मरणों को पढ़ते हुए हम इन पशुओं के बीच घूमते रहते हैं। इनके स्‍वभाव को जानते-समझते हैं। देखते हैं कि कैसे एक-दूसरे पर झपटने वाले जीव परस्‍पर सामंजस्य बना लेते हैं, कैसे कुत्ते और बिल्‍ली एकसाथ रह रहे हैं। कभी ईर्ष्‍या के साथ तो कभी मैत्री के साथ। बच्‍चों की तरह। कंधे पर बैठते हुए, गोद में खेलते हुए, सीने पर लेटकर खेलते हुए। बिल्‍ली का बच्‍चा तो बाढ़ का पानी उतरने के बाद घर में दिखाई दिया। उसे बचाने के लिए सत्‍यदेव जी ने रूई के फाहे से थोड़ा दूध चटाया तो फिर उसकी माँ ने उसे छोड़ दिया। बिल्लियां अपने बच्‍चे को मानुष हाथ से छू जाने पर छोड़ देती हैं। उनका पालन नहीं करती हैं। इस तरह छूट गए बिल्‍ली के बच्‍चे को सत्‍यदेव जी ने बच्‍ची के रूप में पालन किया और वह इतनी आत्‍मीय हो गई कि घर भर से उसका सामंजस्य बैठ गया। कुत्ते के साथ भी और घर आने वाले मेहमानों के साथ भी। एक बार तो घर पर होने वाली साहित्यिक गोष्‍ठी ‘बतरस’ में उसने अध्‍यक्षीय कुर्सी पर बैठकर पूरे कार्यक्रम का आनंद लिया। वह साथ में सो भी जाती थी। चूहे के साथ भी उसका सामंजस्‍य बैठ गया। एक तरह का विस्‍मय लोक ही बन गया उनका घर।

सत्‍यदेव जी का पशु प्रेम उन्‍हें गंवई पशुओं की ओर ज्‍यादा खींचता है तो बेटे का पशु प्रेम आधुनिक विकसित प्रजातियों की ओर। दोनों के बीच सामंजस्‍य बन जाता है और दोनों तरह के पशु घर में जगह पा जाते हैं। सत्‍यदेव जी सड़क पर के नवजात पिल्‍ले को भी चुराकर अपने घर में पालते हैं। कई बार ये विकसित होने पर खूंखार भी हो जाते हैं। डाबरमैन प्रजाति के ‘गबरू’ और देशी ‘प्रजाति’ के किट्टू दोनों से ही सत्‍यदेव जी घायल होते हैं, लेकिन उनका प्रेम ऐसा कि उनके पश्‍चात्ताप और मर्म को समझते हैं। किट्टू के छोड़ दिए जाने का दृश्‍य और फिर उसे खोजने का प्रयास उनके परिवार के पशु प्रेम को उजागर करता है।

पशुओं का किचन, मंदिर और बिस्‍तरे के साथ का सहजीवन पूरे परिवार के प्रेम के बिना नहीं चल सकता और यह दिखाई पड़ता है। उनके खाने की व्‍यवस्‍था से लेकर दवा कराने तक का प्रबंध या फिर नियमित टहलाने का जिम्‍मा सत्‍यदेव जी बड़े चाव से निभाते हैं। जिन पशुओं को खूंखार हो जाने के कारण छोड़ भी देते हैं, उनकी याद उन्‍हें सताती रहती है, उनके लिए मन हुमकता रहता है। वह पशुओं को न सिर्फ सुंदर नाम देते हैं बल्कि अपनी टाइटिल भी देते हैं। ‘चीकू त्रिपाठी’ नाम ऐसा ही है।

पशु-पक्षियों को याद करते हुए वह पूरा रमते हैं। गाँव समाज के जीवन और परिवेश को भी गहनता से याद करते हैं। ग्रामीण पशुओं के साथ गाँव का परिवेश और समाज उभरता है तो शहरी पशुओं की याद में शहरी जीवन की अहम्मन्यता भी उभरती है, जहाँ कुत्तों की नस्‍ल को लेकर भी एक अहम भाव रहता है कि किसके पास किस नस्‍ल का कुत्ता है, और यदि किसी ने देशी कुत्ते को पाल लिया तब तो वह कॉलोनी में चर्चा का विषय ही बन जाएगा।

इस किताब को पढ़ते हुए यह अनुभव होता है कि वे पशुलोक और साहित्‍य में एकसाथ रमे हुए हैं। पूरी मौज में लिखे जाने के कारण ही इसमें उनके प्रिय कवि तुलसीदास, गालिब इत्‍यादि बार-बार आते हैं और अपने पशु प्रेम तथा पशुओं पर संस्‍मरण के कारण महादेवी जी भी। विभिन्‍न संदर्भों के साथ कविता की पंक्तियां जगह-जगह संस्‍मृत होती हैं और भाव को मार्मिकता प्रदान करती हैं। नाला फाँदती गाय को लाठी मारकर गिरा दिए जाने के दृश्‍य पर सुभद्राकुमारी चौहान की कविता याद आती है–

तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्‍य के पार
किंतु सामने नाला आया था यह संकट विषम अपार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी।

‘चौथेपन पायऊं प्रिय काया’ में उन्‍हें अपनी उम्र का भी एहसास होता है और ‘काया’ के साथ जुड़ गई माया का भी। कुतिया ‘काइया’ किस तरह उनके जीवन से जुड़ी है, इसे देखिए, ‘दो कदम से अधिक दूरी बनने नहीं देती। मैं उठके दो कदम चला नहीं कि उठ के पीछे चल देती है। किताब लेने उठा, तो मना करने पर भी पीछे-पीछे वहाँ आ जाएगी। नहाने गए, तो दरवाजे पर वैसी रहेगी। इस बीच कुछ खरकने खटकने पर वहाँ हो आएगी, पर उसके ध्‍यान के केंद्र में रहेगा मेरा होना’।

साथ-साथ रहते-रहते उससे ऐसा लगाव हो गया है, उससे ऐसी माया हो गई है कि उसकी मौत की भी कामना अपने से पहले की जाती है। ‘मैं अपनी दोनों बड़ी बहनों के लिए मनाता हूँ और शायद वे भी मनाती हैं (मनाता तो कल्‍पना जी के लिए भी हूँ, पर वो नहीं मानती) कि मेरे रहते वो चली जाएं। और इसी क्रम में खुद को तैयार कर रहा हूँ व मना भी रहा हूँ काइया के लिए भी….। लेकिन नियति के आगे किसकी चलती है…??’’

प्रेम की पराकाष्‍ठा में, माया में यह भी होता है कि व्‍यक्ति अपने से पहले अपने प्रिय की मृत्‍यु की कामना करता है, ताकि विछोह का दर्द उसे सहना पड़े, प्रिय को नहीं। अपने परिवार और सहचरों से ऐसा प्रेम है सत्‍यदेव जी का। इस प्रेम की ऊष्‍मा इस किताब में भरपूर महसूस होगी। जीवों और पशु-पक्षियों के बारे में हमारे अनुभव का विस्तार होगा और उनके प्रति हमारा नजरिया भी बदलेगा।
————-
किताब – मूक मुखर प्रिय सहचर मोरे
लेखक – सत्‍यदेव त्रिपाठी
मूल्‍य – रु.225
प्रकाशन – न्‍यू वर्ल्‍ड पब्लिकेशन
C- 575 बुद्ध नगर, इंद्रपुरी, नई दिल्‍ली।
मो.- 8750688053

Leave a Comment