निर्वाचन आयोग सवालों के घेरे में क्यों है?

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— डॉ सुरेश खैरनार —

भारत के चुनाव आयुक्त का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा के सबसे अनुभवी अधिकारियों में से किया जाता था. लेकिन वर्तमान समय में केंद्र सरकार ने इस अनुशासन का उल्लंघन करते हुए 1980 के बैच के भारतीय राजस्व सेवा (इंडियन रेवेन्यू सर्विस) के सुशील चंद्रा नाम के व्यक्ति को भारत के चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त कर दिया है ! क्योंकि वर्तमान सरकार, भारत की सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी मनमर्जी से इस्तेमाल करना चाहती है ! फिर वह सर्वोच्च न्यायालय हो या संसद. किसानों को लेकर पास किए गए बिल हों या अभी के बजट सत्र में अडानी उद्योग समूह को लेकर राहुल गांधी की टिप्पणी को संसदीय कार्यवाही के रिकार्ड से हटाने का निर्णय हो, यह साफ है कि सरकार असहमति की हर आवाज को हर कीमत पर कुचल देना चाहती है.

भारतीय संविधान की धारा 324 के अनुसार हमारे चुनाव आयोग को स्वायत्तता प्राप्त है ! और उसी स्वायत्तता का इस्तेमाल भारत के चुनाव के इतिहास में पहली बार और अभी तक अंतिम बार श्री. टी.एन. शेषन ने इस्तेमाल करने का प्रयास किया है ! मुझे तो पचहत्तर साल के इतिहास में वैसा दूसरा उदाहरण दिखाई नहीं देता है!

निर्वाचन आयुक्त स्थानीय निकाय के चुनाव से लेकर लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधानपरिषद, राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के भी चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं ! इसलिए उनकी निष्पक्षता के बारे में तनिक भी संदेश की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. इसलिए उन्हें स्वायत्त अधिकार दिए गए हैं !

लेकिन पिछले कुछ दिनों से और मुख्यतः 2014 के बाद के चुनावों को देखते हुए लगता नहीं कि हमारे देश का चुनाव आयोग अपने संवैधानिक भूमिका का निष्पक्षता के साथ निर्वाह कर रहा है !

हमारे संविधान में साफ-साफ लिखा है कि “किसी भी चुनाव में धर्म, जाति, संप्रदाय तथा धन और बल का प्रयोग करने की पूरी तरह से मनाही है !” लेकिन 2014 तथा 2019 के चुनाव में वर्तमान समय में भारत की सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी द्वारा खुलकर धर्म, जाति, संप्रदाय तथा धन और बल का इस्तेमाल करने के सैकड़ों उदाहरण मौजूद रहते हुए चुनाव आयोग मूकदर्शक बना रहा है ! आयोग ने नियम-कायदों के उल्लंघन की बाबत विरोधी दलों की शिकायतों को लगातार नजरअंदाज किया है !

इसका सबसे ताजा उदाहरण हाल में संपन्न गुजरात के विधानसभा चुनाव में, भाजपा के वरिष्ठ नेता और भारत के गृहमंत्री श्री अमित शाह का नरोदा पटिया के विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान दिया गया वह बयान है जिसमें उन्होंने 2002 के दंगों की बाबत कहा कि “दंगा चिरशांति के लिए आवश्यक था!” ऐसा संविधान-विरोधी, गैरजिम्मेदाराना बयान जुबान फिसल जाने का मामला नहीं है. उस जघन्य कांड में शामिल एक गुनहगार की बेटी को अपने दल की तरफ से टिकट देकर, उसके समर्थन में भाषण देते हुए यह सब कहा है ! और इस भाषण को संज्ञान में लेकर कार्रवाई करने की विनती चुनाव आयोग से की गई थी ! तो चुनाव आयोग ने कहा कि “इस भाषण में ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है !” पूर्वाग्रह युक्त चुनाव आयोग ही इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकता है. और उसके बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में खुलकर 2002 के दंगों के समर्थन में भाषणों की झड़ी लग गई !

हमारे चुनाव आयोग की निष्पक्षता की पोल खुल गई है ! वह अपनी निष्पक्षता को भूलकर एक दलविशेष के प्रति अपनी निष्ठा खुलकर गुजरात के चुनाव में दिखा चुका है ! और उसी चुनाव आयोग ने अब शिवसेना के चुनाव चिह्न को लेकर कैसा फैसला दिया है! यह शत-प्रतिशत भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर दिया गया फैसला है, इस बात में कोई शक नहीं !

नब्बे साल पहले के नाजीवादी जर्मनी में जिस तरह से हिटलर ने डॉ.पॉल जोसफ गोएबल्स की मदद लेकर जर्मनी की सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपने मनमर्जी से चलने के लिए मजबूर किया था, आज भारत में भी वैसा ही आलम जारी है !

जिस तरह से रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश बनाकर राममंदिर का फैसला हमारे देश के संविधान की अनदेखी करते हुए देने के लिए मजबूर किया ! और मुख्य न्यायाधीश के पद से रिटायर होने के चंद दिनों के भीतर उन्हें राष्ट्रपति के द्वारा राज्यसभा में मनोनीत कराया गया उसी तरह गुजरात दंगों की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा गठित एसआईटी के प्रमुख, डॉ. आरके राघवन (पूर्व सीबीआई प्रमुख)जिन्हें गुजरात दंगों के नरोदा पाटिया, गुलबर्ग सोसाइटी जैसे जघन्य कांडों की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, को कल साइप्रस के एंबेसेडर के पद पर बहाल किया है ! नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देने के एवज में?

इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.सदाशिवन को केरल का राज्यपाल तथा नोटबंदी और तीन तलाक जैसे विवादास्पद और अत्यंत संवेदनशील मामलों में फैसला देने वाले पूर्व न्यायाधीश श्री. अब्दुल नजीर के अपने पद से निवृत्त होते ही, एक सप्ताह के भीतर आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया. हमारे देश के संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग अपनी सेवानिवृत्ति के बाद इस तरह के लाभकारी पदों पर नियुक्त होने के लालच में रहेंगे, तो उनसे निष्पक्ष निर्णय की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है?

हिटलर ने जर्मनी में इसी फार्मूले का इस्तेमाल करते हुए पंद्रह साल तक जर्मनी के चांसलर के पद पर रहते हुए, अपनी मनमानी करते हुए, लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया और जर्मनी की जनता के ऊपर एकछत्र राज किया था ! नरेंद्र मोदी ने 16 मई 2014 के दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद ही “इंडियन एडिशन ऑफ फासिस्ट एरा’ इस शीर्षक से एक लेख लिखकर अपनी यह चिंता जाहिर की थी कि क्या भारत एक फासिस्ट युग में प्रवेश कर चुका है? नौ सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल को देखते हुए मेरा अंदेशा सही साबित हुआ है!

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