हमारी बा

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कस्तूरबा गांधी (11 अप्रैल 1869 - 22 फरवरी 1944)

(कस्तूरबा गांधी की मृत्यु 22 फरवरी 1944 को पुणे के आगा ख़ान पैलेस में हुई थी, जब गांधीजी के साथ वह भी कारावास भुगत रही थीं. आज उनकी पुण्यतिथि है. पुण्य स्मरण के इस अवसर पर प्रस्तुत है गोशीबहन कैप्टन का यह संस्मरणात्मक लेख. वनमाली परीख और सुशीला नैयर ने ‘हमारी बा’ नाम से एक किताब लिखी है, जो कि नवजीवन से प्रकाशित है; किताब के आखीर में गोशीबहन का यह लेख संकलित है.)

बा के बारे में कुछ कहना या लिखना बहुत कठिन है। वे मानव-हृदय और मानव चित्त की शुचिता और सरलता की प्रतीक-सी थीं। जिस व्यक्ति को खुद ही पता न हो कि वह किस भूमिका पर विचर कर रहा है, उसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है। बा तो बा ही थीं। बिलकुल सीधी-सादी, लेकिन धीर और वीर। दूसरे का दोष तो उनके मन में कभी स्थान पाता ही न था। आश्रम में या बाहर किसी ने कुछ बुरा किया हो और उसकी चर्चा चले, तो बा बोल उठती थीं : “लेकिन उसने ऐसा किया क्यों?”

बा के बारे में बहुतों का यह खयाल है कि वे नरम स्वभाव की गरीब हिन्दू पत्नी थीं- अपने पति की छाया मात्र! किन्तु यह बात जरा भी सच नहीं। बा का भी बापू के समान ही स्वतंत्र व्यक्तित्व था। सिर्फ बुद्धि से ही नहीं बल्कि आन्तरिक प्रेरणा से भी वे सच्चाई को पहचान लेतीं, और स्वतंत्र रीति से अपने निर्णय करती थीं। अपने बल पर वे अपनी उच्च कक्षा को पहुँची थीं। बापू स्वयं इतने महान हैं और स्त्रीत्व के भी इतने बड़े पुजारी हैं कि वे किसी को भी जबरदस्ती अपने साथ घसीटेंगे नहीं। सैकड़ों बरसों की रूढ़ परंपराओं को छोड़ते हुए बा को सहज ही कठिनाई तो मालूम हुई होगी। साबरमती आश्रम में अस्पृश्यता के महान कलंक के बारे में बा को समझाने में बापू का भी वक्त लग गया था। लेकिन एक बार बा को यकीन हो गया और वे समझ गयीं, उसके बाद तो हरिजन उनके लाडले बन गये।

अपनी मृत्यु से दो साल पहले सेवाग्राम की अपनी झोंपड़ी के पश्चिम-वाले चबूतरे पर बैठी हुई बा का चित्र मेरी आँखों के सामने खड़ा हो जाता है। देश के कोने-कोने से बापू को मिलने आने वालों को बापू की कुटिया तक जाने के लिए इस चबूतरे के सामने से गुजरना पड़ता था। उनमें से कई बा को भी प्रणाम करने जाते, और उनके हॅंसते हुए चेहरे के दर्शनों का आनन्द लूटते। बा सबसे प्रेम और ममता के दो मीठे शब्द कहे बिना न रहतीं। उनके उस शांत और मधुर दर्शन को कोई भी नहीं भूल सकता। मैं तो बा की आवाज कभी भूल ही नहीं सकती। उस आवाज में एक विलक्षण मार्दव था- पक्षी के मधुर कूजन-सा कुछ था। बा जब किसी पर चिढ़ती या नाराज होती थीं, तब भी उनके स्वर की मृदुता नष्ट नहीं होती थी। कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के सदस्य गांधी जी के साथ घंटों चर्चा करके कितने ही क्यों न थक गए हों, फिर भी उस चबूतरे पर बा से मिले बिना वे कभी जाते न थे। बा से मिलने का हर एक का ढंग जुदा होता था। वल्लभ भाई तो नन्हे नटखट ‘कहाना’ को ही चिढ़ाते और उसके साथ ‘धूमा-मस्ती’ करने लगते। कहाना भी वल्लभ भाई को चपलता भरे जवाब देकर हंसाता। मौलाना साहब गंभीर भाव से बा के पास आकर बैठते और उनकी तबीयत के समाचार पूछकर व सलाम करके चले जाते।

जवाहरलाल जब मौज में होते तो कोई क्रांतिकारी बात कहकर बा को चिढ़ाने की कोशिश करते। वे सोचते कि बा गुस्सा होकर विरोध करेंगी। लेकिन बा तो अपनी मीठी हॅंसी हॅंसकर धीमे से कहतीं : “नहीं, तुम्हारी बात ठीक नहीं है। तुम कुछ भूले हो।’’ अगर जवाहरलाल थके होते तब बा को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करते और कुशल-समाचार पूछकर चले जाते। लेकिन बा को यह अच्छा न लगता। उस दिन वे बापू पर सवालों की झड़ी लगा देतीं : “आज जवाहर उदास क्यों दिखता था? आपने उसे कुछ कहा तो नहीं ?” बापू हॅंसकर जवाब देते : “तू भी जवाहर की तरह मौजी ते नहीं बन गई है? आज तो हमारे बीच कोई मतभेद ही नहीं हुआ!’’

राजेंद्रबाबू के साथ तो कभी कोई चख-चख होती ही नहीं थी। शायद इसलिए कि दोनों के स्वभाव एक ही से थे। दोनों के दिल में कड़वाहट नाम की कोई चीज थी ही नहीं। और, विलक्षण व्यक्तित्व वाले वे महान पठान खान अब्दुल गफ्फार खां! उनके दिल में तो युद्ध और हिंसा के प्रति गांधीजी के समान ही तीव्र अरुचि है। वे बा के पास ही जाकर बैठते और पश्चिम के अस्त होते हुए प्रकाश को देखा करते। कार्यकारिणी के दूसरे सब सदस्य शाम को वर्धा जाते, लेकिन खानसाहब तो सेवाग्राम में ही रहते।

बा को और सरोजिनी देवी को देखकर ही हमें इस बात का अन्दाजा हो सकता है कि नारीत्व में कितना गौरव और कितना वैभव रहा है। कितनी विविधता, कितनी तेजस्विता और कितना सनातन यौवन! अपने माने हुए आदर्शों के लिए, दिल में लेश मात्र भी कड़वाहट न रखते हुए, कष्ट सहने की कितनी तैयारी, कितना धैर्य, कितनी अटल श्रद्धा और कितनी शक्ति! इन दो स्त्रियों को देखने से क्या हमें इस बात का दिव्य दर्शन नहीं होता कि हमारी भारतभूमि नारियों की भूमि है? ये नारियां ही मानव प्रेम और मानव सेवा के गांधीजी के महान आदर्श पर डटी रहेंगी और बाजारों की, फौजों की और हुकूमत की होड़ में कभी शामिल नहीं होंगी।

बापू की भांति दूसरे भी कई होंगे, जो बा की शांत हुई आवाज को सुनने के लिए तरसते होंगे। लेकिन इस शोक के पीछे एक अमर आशा यह रही है कि बा-जैसे व्यक्ति कभी मरते ही नहीं। अमरता के सच्चे उत्तराधिकारी वे ही हैं।

क्या कभी यह संभव था कि हिन्दुस्तान को छोड़कर दूसरे किसी देश में बा का और बापू का जन्म होता? मुझे तो इस सवाल का जवाब साफ ‘ना’ में मिलता है। मैं मानती हूं कि इस देश में उनको जितना प्रेम और जितनी पूजा मिली है, उतनी दूसरे किसी देश में न मिलती। इस विचार से हमें आश्वासन मिलता है। हमारी जो प्राचीन संस्कृति पुराणों के काल से चली आ रही है, मानव के रूप में बा और बापू उसके अवतार-समान हैं। हो सकता है कि आज हमारी उस संस्कृति पर विकृति की कुछ लकीरें खिंच गई हों। फिर भी मूलतः हमारी संस्कृति शान्ति और ज्योति की संस्कृति है। वह मनुष्य को ईश्वर का ही अंश मानती है। दूसरी कोई संस्कृति मनुष्य के सामने इतनी शक्ति और इतनी स्वतंत्रता की आशा उपस्थित नहीं करती।

यद्यपि आज की दुनिया की करतूतों को देखते हुए शक्ति का अर्थ भी बहुत-कुछ बदल जाता है। आज तो जो अपने विरोधियों को ज्यादा-से-ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं, वे अपने को अधिक-से-अधिक शक्तिशाली समझते हैं। लेकिन शक्ति के संबंध में गांधी जी की और हमारे देश की व्याख्या इससे बिल्कुल भिन्न है। दिल में किसी तरह का द्वेष न ऱखकर जो अधिक-से-अधिक कष्ट सहने के लिए तैयार होता है, शक्ति उसके चरणों में आकर बैठती है।

भौतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए महान युद्ध शुरू करके आज दुनिया अपनी विरासत में आग और अंगारे ही छोड़े जा रही है, यह कितना करुण और कितना मूर्खतापूर्ण है! दुनिया के विचारशील लोगों के दिल में तो तनिक भी शंका नहीं है कि जो लोग आज मद से चूर हैं उनको पीछे हटना ही पड़ेगा, और आधुनिक जगत का पुरुषोत्तम अपनी जिस शान्ति-वीणा को पत्थर की दीवारों के पीछे बैठा बजा रहा है उसे सारी दुनिया को सुनना ही होगा। इस मदोन्मत्त दुनिया के सामने खड़े होकर यह कहना कि “तुम सब गलती पर हो, और अकेला मैं ही सच्चाई पर हूं; संभव है कि तुम्हारा हृदय-परिवर्तन होने तक मैं जिन्दा न रहूं, तो भी आने वाला समय और आने वाली पीढ़ियां मेरे इन वचनों की साक्षी देंगी।’’ किसी साधारण हिम्मत वाले आदमी का काम नहीं! हमारी बा ऐसे एक पुरुष की जीवन-संगिनी थीं। वे जीवनभर उनके साथ रही हैं। आज बापू की विरह-वेदना का अंदाजा कौन लगा सकता है? किसी को उसका पता भी नहीं चलेगा, क्योंकि बापू तो अपने जीवन की गहन वेदनाओं को मौन रहकर ईश्वर के सान्निध्य में ही भोगते हैं।

बहुत साल पहले जब बापू ने अस्पृश्यता के कलंक के विरुद्ध युद्ध छेड़ा था, तब बा के विचारों को बदलने में उनको बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। अथाह धैर्य के साथ बापू बा को समझाते रहते। रोज घंटों चर्चा करते। एक दिन तो हरिजनों को रसोई घर में दाखिल करके रसोई बनाने देने के लिए बा को समझाते-समझाते वे थक गए और बोले : “बा को यह चीज समझाना बहुत मुश्किल है।’’ लेकिन इन शब्दों के उच्चारण के साथ ही वे बहुत गंभीर हो गए और फिर दूर की कोई बात सोच रहे हों, इस तरह कहने लगे : “इतने पर भी मुझे जन्म-जन्मातंर के लिए अपना साथी पसंद करना हो, तो मैं बा को ही पसंद करूंगा।” बापू के इन शब्दों से बढ़कर और कौन से शब्द होंगे, जिनसे बा के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया जा सके?

भाषा द्वारा हम बा का विचार कर ही नहीं सकते। इसके लिए तो अनु की मूर्ति को, अनु के चित्र को, आंखों के सामने खड़ा करना चाहिए। उनकी चाल, उनका घूमना-फिरना, उनकी कोमल आवाज और इन सबसे बढ़कर उनकी मीठी, निर्मल मुस्कान हमें उस महान विभूति की शुचिता और वीरता का सच्चा दर्शन कराती है। यों देखे तो बा बहुत उग्र नहीं थीं। दक्षिण अफ्रीका में और यहां आजादी की लड़ाई में वे कई बार जेल गई थीं। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं दिखाया कि जेल जाकर वे कोई असाधारण काम कर आयी हैं। देश के लिए उन्होंने जो बड़े-बड़े बलिदान किए, स्वेच्छापूर्वक गरीबी को अपनाया, अपने सर्वस्व को छोड़ा, अपने प्रिय पति के सहवास तक का त्याग किया, सो सब उन्होंने अपने सहज भाव से और निरभिमान-वृत्ति से ही किया।

पिछली बार जब बा जेल गईं, मैं वहीं थी। पुलिस अफसर के आने पर वे उतनी ही मिठास से अपना सामान बांधने में लग गईं। पहले दिन ऐलान किया गया था कि 9 अगस्त को शिवाजी पार्क में सभा होगी, और बापू उसमें भाषण करेंगे। बापू की गिरफ्तारी के बाद बा ने उस सभा में जाने और बापू का संदेश सुनाने का निश्चय किया था। उस दिन बा की गिरफ्तारी एक बहुत अजीब ढंग से हुई। पुलिस का एक बड़ा कद्दावर अफसर, जो हिन्दुस्तानी था, बा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहा और जरा झुक कर बा से पूछने लगा : “आप घर पर ही रहेंगी या सभा में जाएंगी? आपका क्या हुक्म है?”  उसे भी अटपटा तो लगा होगा कि उसके जैसा अल्पात्मा शरीर से इतना मोटा-ताजा है और बा के जैसी महान आत्मा इतने नन्हे और नाजुक शरीर वाली है! बा ने तो अपनी उसी मीठी मुस्कान के साथ फौरन जवाब दिया  : “मैं सभा में तो जाऊंगी ही।” अफसर बेचारा सोच में पड़ गया। आखिर बोला : “तो आप इस मोटर में बैठेंगी? मैं आपको बापू के पास ले जाऊंगा।” इस तरह बा की गिरफ्तारी हुई।

आश्रम के एक छोटे लड़के की इच्छा हुई कि वह बा कि साड़ी पर ‘करेंगे या मरेंगे’ का एक बिल्ला लगा दे! वह लगाने लगा। बा ने हलके से उसे हटा दिया और कहा : “मुझे यह नहीं फबता।” यह थी बा की अंतिम यात्रा। वहां से वापस न आयीं। उन्होंने तो युक्त सूत्र का पालन बिना किसी आडम्बर के कर दिखाया। मैंने सुना है कि आगाखान महल के उस मनहूस वातावरण में उनको अच्छा नहीं लगता था। आश्रम की सादी किन्तु साफ कुटिया में रहने का उन्हें अभ्यास हो गया था। महल का वह फर्नीचर, जिसके अंदर ढेरों धूल भरी रहती थी, उन्हें बिल्कुल रुचता न था। वहां का वातावरण तो प्रतिकूल था ही। इस पर वहां कुछ ही दिनों बाद महादेव भाई की मृत्यु हो गई।

बापू के पिछले उपवास के दिनों में मैंने बा को आखिरी बार देखा था। 1943 की 18वीं फरवरी का वह दिन था। वह पहला दिन था जब बापू की तबीयत नाजुक हो गई थी। रविवार तारीख 21 फरवरी के दिन तबीयत बहुत ही नाजुक हो उठी। उस दिन बा के चेहरे पर विषाद की हृदय-विदारक घटा छाई हुई थी। वे सारे देश के- गरीब-अमीर सबके- हृदय में व्याप्त दुख की प्रतिमूर्ति-सी लगती थीं। ऐसा प्रतीत होता था, मानो समूचे देश की ओर से बा प्रार्थना कर रही हों कि “नहीं, नहीं, भगवान! इतनी बड़ी कुरबानी नहीं हो सकती। इस अंधेरे और भयावने बियाबान में से हमारे देश को प्रकाश और शांति के मार्ग पर ले जाने के लिए इस नेता को बचा!” बापू तो शांत थे और कहते थे : “कोई घबराओ नहीं। इस पार या उस पार सब एक ही है। मैं तैयार हूं।’’ इस परित्याग और ऐसी ईश्वर- श्रद्धा के सामने शोक का कोई स्थान ही नहीं हो सकता। किन्तु अपनी वीरतापूर्ण मुस्कान के पीछे बा जिस दुख को छिपाए हुए थीं, वह तो असह्य ही था। आगाखान महल के सामने बैठाई गई दो-दो चौकियों को पार करके बाहर निकलते समय मैं और मेरे  साथी तो रो ही पड़े। शायद बापू न रहेंगे इसके दुख की अपेक्षा यह विचार अधिक दुखदायी था कि बा का क्या होगा? इस अंतिम चित्र को भूलने की मैं बहुत कोशिश करती हूं।

राष्ट्रीय तूफान के कुछ दिन पहले मैं सेवाग्राम गई थी। उस समय की बा के उस चित्र को अपने मन में अंकित कर रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। प्रार्थना के चौक से लगी अपनी कुटिया के चबूतरे पर बा बैठी हैं, उनके आसपास बहनों का दरबार जुड़ा है और बा अपने विलक्षण व अनुपम ढंग से सबके साथ बात कर रही हैं। उस समय की बा की मुस्कान से मिलने वाला प्रकाश जितना अद्भुत था, उतना ही अद्भुत था कइयों के लिए काम कर-करके थकी हुई बा का दोनों हाथ जोड़कर सबका स्वागत करना या सबको विदा देना। अब तो वे अमर और विभूतिमय भारतीय नारी-मंडल के बीच सीता और सावित्री के बराबर जा बैठी हैं। हजारों वर्षों तक वे भारतवासियों के लिए आश्वासन और धैर्य का धाम बनी रहेंगी।

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