आरएसएस और मुसलमान

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— विनोद कोचर —

रएसएस प्रमुख श्री मोहन भागवत पिछले पांच-छह सालों से मुसलमानों के बारे में जो बयान देते आ रहे हैं, वह उनके पूर्व हुए आरएसएस प्रमुखों सर्वश्री डॉ हेडगेवार और गुरु गोलवलकर, के मुसलमानों के बारे में जाहिर किये गए विचारों के विरोधाभासी हैं।

आरएसएस के तीसरे संघ प्रमुख श्री बालासाहेब देवरस, आपातकाल के बाद कुछ दिनों तक जरूर, मुसलमानों के बारे में कुछ भागवत जी जैसे ही बयान देकर बाद में मुकर गए और आरएसएस की बुनियादी मुस्लिम विरोधी विचारधारा की तरफ वापस लौट आए थे।

इस संबंध में मैंने 25 दिसंबर 1977 को बालाघाट जेल से एक विस्तृत लेख लिखा था जो 15-31 जनवरी 1978 के ‘सामयिक वार्ता’ में प्रकाशित हुआ था।

यह लेख लिखना उस समय इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि 1977 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी की जीत के बाद, जनता पार्टी के मार्गदर्शक लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आरएसएस से अपील की थी कि, मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी उसे अपने दरवाजे खोल देने चाहिए तथा उन्हें भी संघ के महत्त्वपूर्ण पदों पर बिठाना चाहिए।

इस लेख में मैंने लिखा था कि “….संघ में बहस चलाने की परंपरा नहीं है इसलिए स्वयंसेवकों के बीच जेपी के सुझाव पर कोई बहस चलाए बिना, आरएसएस के (तत्कालीन) संगठन प्रमुख माधवराव मुले ने जेपी को पत्र लिखकर इस सुझाव को मानने से साफ साफ इनकार कर दिया लेकिन संघ प्रमुख देवरस, नई वोट क्रांति के बाद, शुरू के कुछ दिनों तक इस मामले को लेकर थोड़ा ‘बहक’ गए थे।…..’

बहक इसलिए गए थे क्योंकि संघ का सरसंघचालक बनने के कई वर्षों पहले तक, आरएसएस द्वारा स्थापित ‘नरकेसरी प्रकाशन मंडल’ के अध्यक्ष के रूप में पत्रकारिता जगत से जुड़कर, आरएसएस के विचारों का फैलाव करते-करते, देवरस के व्यक्तिगत जीवन में लोकतंत्र के ‘कीटाणु’ थोड़ी बहुत मात्रा में घुसपैठ कर चुके थे।

संघ में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रवेश को लेकर जेपी की राय से अनेकों बार सहमत होने के देवरस के रवैये की दूसरी वजह, जेपी को चकमा देने की आरएसएस की संस्कारजनित छल नीति भी हो सकती है।

उनदिनों देवरस कई बार यह कह चुके थे कि मुसलमानों को भी संघ में प्रवेश दिया जाएगा।

मुले द्वारा जेपी को निर्णायक चिट्ठी लिखे जाने के बाद, देवरस जेपी से जब पटना में मिले तो वहाँ भी मुलाकात के बाद उन्होंने बयान दे दिया कि ‘सैद्धांतिक रूप से जयप्रकाश जी के सुझाव को वह स्वीकार करते हैं, जबकि मुले ने संघ के सिद्धांतों की विशद व्याख्या करते हुए, जेपी के सुझाव को सैद्धांतिक रूप से ही ठुकरा दिया था।

मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के दौरे के समय देवरस द्वारा व्यक्त किए गए विचारों का तार्किक विश्लेषण इस बात का साफ इशारा करता है कि संघ में मुस्लिम प्रवेश के विचार को संगठन प्रमुख के ठुकराने और सरसंघचालक के अपनाने से संघ के संगठन में जरूर कोई गांठ पड़ी होगी और सरसंघचालक को संगठन प्रमुख से ‘डांट’ भी पड़ी होगी।

आरएसएस का तत्त्वचिंतन, मुले द्वारा जेपी को लिखे गए पत्र के मुताबिक, ‘1925 में ही चरमसीमा को प्राप्त कर चुका था इसलिए 1977-78 में किसी भी तरह के फेरबदल की उसमें कोई जरुरत ही नहीं है।’

पटना में देवरस के बयान के बाद, नागपुर के संघ मुख्यालय में क्या हुआ, इसका पता नहीं, लेकिन जो भी हुआ उसका नतीजा ये हुआ कि देवरस के व्यक्तिगत जीवन में घुसे हुए लोकतंत्र के कीटाणुओं का जड़ से सफाया हो गया और देवरस अपने संगठन प्रमुख मुले के ही विचारों का प्रचार करते हुए घूमने लगे।

भोपाल, ग्वालियर, लखनऊ, अलीगढ़ और आगरा में दिये गए देवरस के भाषणों में देवरस की यह लड़खड़ाहट साफ साफ नजर आती है।

लोकतंत्र की पटरी पर घड़ी-दो घड़ी चल लेने के कारण, साफ-साफ यह कहने में देवरस को थोड़ा संकोच होने लगा था कि संघ में मुसलमानों और ईसाइयों को प्रवेश देने का उनका कोई इरादा नहीं है, इसीलिए अपने बाद के भाषणों में, इसी बात को थोड़ा घुमा-फिराकर, कहने लगे थे देवरस।

एक तरफ, आगरा में देवरस ने कहा कि ‘मुस्लिम नेताओं से हमारी बातचीत चल रही है और हरेक दिन हमें एक दूसरे के करीब लाता जा रहा है’। (इंडियन एक्सप्रेस, 22दिसंबर 1977)

वहीं दूसरी ओर चण्डीगढ़ में देवरस ने फरमाया था कि ‘मुसलमानों को संघ में लेने से अनेक समस्याएं सामने आ सकती हैं क्योंकि उपासना आदि के उनके तरीके हमसे भिन्न हैं।'(नवभारत टाइम्स, 21दिसंबर, 77)

‘हिन्दू’ शब्द को व्यापक अर्थ प्रदान करने के लिए, देवरस ने लगभग अपने सभी भाषणों में कहा कि ‘संघ ने ‘हिन्दू’ शब्द को सदैव संस्कृति तथा राष्ट्रीयता के साथ जोड़ा है।’ (चरैवेति,1दिसंबर,1977)

मुसलमानों और ईसाइयों को देवरस भी ‘हिन्दू’ बताने लगे थे और कहने लगे थे कि ‘उन्हें सदैव यही सोचना चाहिए कि सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय दृष्टि से वे हमारे ही जीवन के अंग हैं। उपासना पद्धति बदलने से राष्ट्रीयता नहीं बदल जाती।'(वही)

ये बात समझ से परे है कि ‘हिन्दू’ शब्द को आरएसएस राष्ट्रीयता का पर्यायवाची मानने की जिद पर अपने जन्मकाल से ही क्यों अड़ा हुआ है?

स्वामी विवेकानंद ने ‘हिन्दू’ शब्द को हमेशा धर्म के साथ जोड़ा और इस धर्म के शाश्वत मूल्यों से विश्व मानवता को प्रभावशाली ढंग से अवगत कराया। उनका अमेरिका के विश्वधर्म सम्मेलन में दिया गया ऐतिहासिक भाषण, ‘शिकागो वक्तृत्वता’ के नाम से मशहूर है जिसमें हिन्दू धर्म की महानता प्रतिध्वनित होती है।

‘हिन्दू’ शब्द, धर्म के साथ जुड़ा है और जुड़ा है भौगोलिकता के साथ। लेकिन राष्ट्रीयता के साथ इस शब्द को जोड़ने के पीछे आरएसएस की मानसिकता मुसलमानों और ईसाइयों को अराष्ट्रीय साबित करने की ही रही है।

इनके तीन आधारभूत सिद्धांतों में से पहला और सबसे मुख्य सिद्धांत है, ‘हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है’। इसलिए अब मुसलमानों को राष्ट्रीयता के पैमाने से नापकर, चुनावी समीकरण की केंद्रीय धुरी पर घूमते हुए, उन्हें भी भागवत जी, अपने पूर्व सरसंघचालक देवरसजी की ही तरह, हिन्दू बता रहे हैं।

आजाद और गुलाम भारत में भारत से प्रेम करने वाले, भारत की आजादी की लड़ाई में अपना तन मन धन न्यौछावर करने वाले, भारत की सभ्यता, कला, गीत संगीत और संस्कृति की विरासत को समृद्ध करने वाले मुसलमानों पर, सिवाय आरएसएस की नफरत फैलाऊ मनगढ़ंत विचारधारा के अनुयायियों के, पूरे भारत को नाज़ है।

इनकी देशभक्ति पर उँगली उठाना जघन्य अपराध के बराबर है।

कभी मुसलमानों से आपने पूछा कि क्या वे अपने आप को राष्ट्रीयता की कसौटी पर हिन्दू मानने की आरएसएस प्रमुख की राय से सहमत हैं?

आप अपने बारे में जो कहना है, कहिए लेकिन मुसलमानों की राष्ट्रीयता को तो हिन्दू कहकर न पुकारें।

अगर पुकारना ही है और राष्ट्रीयता के पैमाने पर उन्हें आप अगर हिन्दू मानना ही चाहते हैं तो फिर जेपी की अपील को मानकर, आरएसएस के दरवाजे उनके लिए खोल क्यों नहीं देते?

बकौल दुष्यंत –
गज़ब है, सच को सच कहते नहीं वो,
कुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं.

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