— डॉ सुनीलम —
समाजवादियों को यह जानना जरूरी है कि 26 से 28 फरवरी 1947 को कानपुर में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सम्मेलन 9 वर्ष बाद हुआ था। क्योंकि 9 अगस्त 1942 से शुरू किए गए अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन का समाजवादियों ने भूमिगत होकर नेतृत्व किया था। कानपुर सम्मेलन के सभापति डॉ लोहिया थे। इसी सम्मेलन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से कांग्रेस शब्द हटा दिया गया था।
डॉ लोहिया ने कहा था कि कांग्रेस शब्द हटाने का कारण यह है कि दूसरे समूह के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकें, जो हमारे उद्देश्यों से सहमत हैं, मगर जो कांग्रेस में शामिल नहीं होना चाहते हैं। हम अपने काम करने में ज्यादा आजादी चाहते हैं।
कांग्रेस में रहकर हमने उसकी खूबसूरती बढ़ाई है अब भी उसे बदसूरत नहीं बनने देंगे। कांग्रेस मंत्रिमंडल का पुछल्ला बन जाती है। सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रीय क्रांति को प्रजा राज का साधन बनाना चाहती है। यह काम शासन का सहारा लेने से नहीं, जनशक्ति से ही हो सकता है। जात पांत का जहर मिटाना चाहिए, मजदूरों को संगठन में लाना चाहिए। राष्ट्रीयता और समाजवाद दोनों पर केंद्रित करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
कानपुर सम्मेलन में पहली बार कहा गया कि दुनिया के सभी देशों की उत्पादन शक्ति में समानता लाना आवश्यक है। सोशलिस्ट पार्टी ने विकेंद्रीकृत अर्थनीति के सिद्धांतों को स्वीकार किया।
जिन लोगों को लगता है कि जो भी कुछ हुआ उसका प्रमुख कारण नेहरू का विरोध था उन्हें यह जानना आवश्यक है कि लोहिया और जेपी लाहौर जेल में यातनाएं सहने के बाद, आगरा जेल से गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद, 11 अप्रैल 1946 को जब रिहा किए गए थे उसके बाद बम्बई में होने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के पहले नेहरू ने लोहिया के सामने कांग्रेस का जनरल सेक्रेटरी होने का प्रस्ताव रखा था जिसे स्वीकार करने के लिए डॉक्टर लोहिया ने तीन शर्तें रखी थीं –
(1 ) कांग्रेस का अध्यक्ष मंत्रिमंडल में और प्रधानमंत्री नहीं होना चाहिए;
(2) कांग्रेस कार्यसमिति में सूबा या केंद्र, किसी भी मिनिस्टर को नहीं रहना चाहिए और
(3) कांग्रेस मंत्रिमंडल और कांग्रेस कार्यसमिति का नाता-रिश्ता स्वतंत्र रहना चाहिए व कांग्रेस कार्यसमिति को, आवश्यक हो तो, मंत्रिमंडल की आलोचना करने की आजादी रहनी चाहिए।
इन शर्तों को नेहरू जी ने 3 दिन की सतत चर्चा के बाद भी स्वीकार नहीं किया था।
अर्थात निर्णय व्यक्तिगत नहीं नीतिगत था।