— राजकुमार सिन्हा —
(विस्थापितों के पुनर्वास के लिए जमीन और मुआवजे के संकट ने मध्यप्रदेश की सरकार को बांधों, खासकर बड़े बांधों से पीछा छुड़ाने का मौका दिया था, लेकिन नौकरशाही समेत बिल्डर लॉबी के असर में मंडला जिले के ‘बसनिया बांध’ सरीखी परियोजनाएं अब भी जारी हैं। हालांकि आम लोगों के संघर्ष इन्हें भी चुनौती दे रहे हैं। प्रस्तुत है, बांध विरोध के संघर्ष में हाल में मिली सफलता पर राजकुमार सिन्हा का यह लेख। –संपादक)
पिछले महीने ‘केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा नदी-घाटी परियोजनाओं के लिए गठित ‘विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ की 40वीं बैठक हुई थी। इस बैठक में नर्मदा-घाटी की ‘बसनिया बहुउद्देशीय परियोजना’ की ‘पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट’ को मंजूर करने का आवेदन किया गया था। इस आवेदन पर समिति ने टिप्पणी की है कि परियोजना में 2107 हेक्टेयर वन-भूमि सीधे प्रभावित होने वाली है, लेकिन इसमें कम-से-कम जंगल प्रभावित होने का कोई अभ्यास नहीं किया गया है। साथ ही इस परियोजना का वैकल्पिक स्थल-विश्लेषण भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। लिहाजा, उपरोक्त तथ्यों के आधार पर परियोजना को दी जाने वाली अनुमति स्थगित की जाती है।
अपनी टिप्पणी में ‘विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ ने कहा है कि इस परियोजना के लिए जंगल के ऐसे बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होगी जहां आदिवासी निवास करते हैं। समिति ने सुझाव दिया है कि वन-भूमि को परिवर्तित करने से पारिस्थितिकी-तंत्र, जैव-विविधता और आदिवासियों पर पड़ने वाले प्रभावों के परिप्रेक्ष्य में परियोजना के लिए वैकल्पिक स्थल प्रस्तुत किया जाए। करीब 6343 हेक्टेयर इलाके में, ग्राम-ओढारी, तहसील-घुघरी, जिला-मंडला में ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ द्वारा प्रस्तावित इस परियोजना से 8780 हेक्टेयर में सिंचाई और 100 मेगावाट जल-विद्युत उत्पादन होना प्रस्तावित है।
गौरतलब है कि नर्मदा-घाटी के मध्यप्रदेश में 29 बड़े बांध प्रस्तावित हैं जिनमें से 10 का निर्माण हो चुका है और 6 बांधों का जारी है। शेष 13 में से 10 बांधों को ‘प्रशासकीय स्वीकृति’ मिल चुकी है। 3 मार्च 2016 को विधानसभा में एक सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने लिखित में कहा था कि सात बांधों को नए ‘भू-अर्जन अधिनियम’ के चलते लागत में वृद्धि होने, अधिक डूब-क्षेत्र होने और डूब-क्षेत्र में वन-भूमि आने के कारण निरस्त किया गया है। निरस्त किए गए इन बांधों में मंडला और डिंडोरी जिले की राघवपुर, रोसरा, बसनिया और अपर-बुढ़नेर परियोजनाएं शामिल थीं।
‘विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ को प्रभावित ग्रामसभा, क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों और ‘जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय’ (एनएपीएम) द्वारा पर्यावरण एवं जैव-विविधता पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर पत्र लिखा गया था। इस पत्र में उल्लेख किया गया था कि नर्मदा-घाटी में ‘फॉल्ट जोन’ और ‘इंडियन प्लेट्स’ की लगातार हलचल के कारण भूकंप का खतरा बढ़ गया है। इसके अलावा नर्मदा-घाटी में बन चुके बांधों के कारण दरारों में पानी भर रहा है जिससे चट्टानों का संतुलन प्रभावित होने की आशंका है। बीते तीन साल में नर्मदा और सोन नदी घाटी में धरती के नीचे 37 बार भूकंप आ चुका है।
बसनिया-बांध निर्माण में भारी तीव्रता के विस्फोट किए जाएंगे जिससे होने वाली भू-गर्भीय हलचल से इनकार नहीं किया जा सकता। पर्यावरणीय प्रभाव प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका और प्रकृति से जुड़ी संस्कृति पर असर डालता है। इसलिए ‘केन्द्रीय भू-अर्जन कानून – 2013’ में सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन को बंधनकारी बनाया गया है। नर्मदा जैसी विशाल नदी-घाटी में कई बांधों की योजना बनती है तो उन सभी के सामूहिक प्रभाव का मूल्यांकन पर्यावरणीय दृष्टि से जरूरी माना गया है, जो नहीं किया जा रहा है
नर्मदा-घाटी में बड़े बांधों के कारण सूखा और बाढ़ का चक्र जनता भुगत रही है। नर्मदा नदी का जल-नियोजन नहीं के बराबर दिखाई देता है और इसकी विस्तृत योजना की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध भी नहीं है। नर्मदा-घाटी के जंगल, उपजाऊ खेती और अन्य जमीनों के डूबने से नदी पर ही गंभीर असर हो चुके हैं। नर्मदा नदी बरसात के कुछ महीनों बाद ही सूखने लगती है, जिसका असर सिंचाई और मत्स्य व्यवसाय पर ही नहीं, नदी में पानी की कम होती मात्रा से सरदार सरोवर जैसे बांध के लाभों पर भी पड़ता है।
नर्मदा की कुल 41 सहायक नदियां हैं जो अपने जल-ग्रहण क्षेत्र में जंगलों की बेतहाशा कटाई के कारण नर्मदा में मिलने के बजाय बीच रास्ते में ही दम तोड़ रही हैं। ‘केंद्रीय जल आयोग’ द्वारा गरुडे़श्वर स्टेशन से जुटाए गये वार्षिक जल-प्रवाह के आंकड़ों से नर्मदा में पानी की कमी के सबूत मिलते हैं। सवाल उठता है कि जल के अंतहीन दोहन से नर्मदा बच पाएगी?
मुख्यमंत्री ने चित्रकूट में पिछले वर्ष घोषणा की थी कि नर्मदा से जोड़कर मंदाकिनी नदी को सदानीरा बनाएंगे। इसके पहले नर्मदा से पानी लाकर क्षिप्रा, कालीसिंध, गंभीर और पार्वती नदियों को पुनर्जीवित करने का कार्य जारी है और नर्मदा-चंबल, नर्मदा-माही, नर्मदा-मांडू और नर्मदा-ताप्ती योजना प्रस्तावित है। कब तक मध्यप्रदेश में नर्मदा को ही जल-संकट का एकमात्र हल माना जाता रहेगा और पानी का दोहन करते रहेंगे?
नदियों के प्राकृतिक नदी-तंत्र को बचाना ज्यादा जरूरी है या कहीं और से पानी लाकर उन्हें जीवित रखने की औपचारिकता निभाना? कहीं ऐसा न हो कि कल को नर्मदा का जल-भंडार भी हमारी अंतहीन मांग को पूरा ना कर पाये।
इसी तरह, इसी नर्मदा-घाटी में लम्बे संघर्ष के बाद एक और महत्त्वपूर्ण सफलता मिली है। नर्मदा नदी पर 400 मेगावाट क्षमता वाली बिजली परियोजना को निजीकरण के तहत 1994 में ‘एस. कुमार्स समूह’ की कम्पनी ‘श्री महेश्वर हायडल पावर कार्पोरेशन लिमिटेड’ को दिया गया था। इस परियोजना की डूब से 61 गांव प्रभावित हो रहे थे जिसके आधे-अधूरे पुनर्वास को लेकर न्यायालय ने भी कई सवाल खड़े किये थे।
इस परियोजना पर बीते सालों में लगातार अनियमितता के आरोप लग रहे थे। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के आलोक अग्रवाल और चितरूपा पालित ने तमाम वित्तीय अनियमितताओं को उजागर किया। ‘ढाई रुपये यूनिट की बिजली, 18 रुपये में नहीं खरीदेंगे’ की गूंज के बाद आखिरकार 27 सितंबर 2022 को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने निजी परियोजनाकर्ता के साथ हुए सभी समझौतों को रद्द करने की घोषणा की जिसे मंत्रिमंडल से भी स्वीकृति मिल गई।
इन अनुभवों के बाद भी ‘बसनिया बांध’ निर्माण के लिए ‘नर्मदा घाटी विकास विभाग’ द्वारा ‘एफकोन्स कम्पनी, मुम्बई’ से विगत वर्ष 24 नवम्बर को अनुबंध संपादित किया गया है, जो सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है। ‘पर्यावरणीय प्रभाव’ के साथ-साथ विकास परियोजनाओं के नाम पर प्रदेश को कंगाल और निजी कम्पनियों को मालामाल बनाने की चाल को भी समझना आवश्यक है।
(सप्रेस)