क्रांतिकारी जनकवि गुम्माडी विट्ठल राव ‘ग़दर’ का 6 अगस्त 2023 को हैदराबाद के अपोलो स्पेक्ट्रा अस्पताल में निधन हो गया। 1948 में हैदराबाद के तूप्रान इलाके में जनमे कवि ग़दर तेलुगू भाषा के एक ऐसे तूफानी कवि और लोक गायक थे, जिनके गीतों को सुनने के लिए जन-सैलाब उमड़ पड़ता था। उन्होंने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के क्रांतिकारी सिद्धांतों को जनता की भाषा में ढालकर जनचेतना को जगाने में अभूतपूर्व भूमिका निभाई। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन (ग़दर) में अपने प्राण उत्सर्ग करने वाले गदरी बाबाओं से प्रेरणा लेकर अपना नाम ग़दर रखा।
1980 के आसपास तेलंगाना में उभरे नक्सल आन्दोलन में उन्होंने सांस्कृतिक संगठन ‘प्रजा नाट्य मंडली’ में शामिल होकर क्रांतिकारी कवि और सांस्कृतिक योद्धा की भूमिका निभाई। उनके गीतों की लोकप्रियता और क्रांतिकारी तेवर से घबराकर सरकार और बाहुबलियों द्वारा उन पर पांच बार गोलियाँ चलाई गईं। उनमें से एक गोली अंत तक उनकी रीढ़ की हड्डी के बीच फंसी रही। उन्हें वर्षों तक भूमिगत जीवन और जंगलों में रहना पड़ा।
ग़दर की कविताओं और गीतों में समाज के सर्वाधिक दबे-पिसे, बुभिक्षित जनों-अनुसूचित जातियों और दलितों के जीवन की पीड़ा व्यक्त हुई है। उन्होंने मेहनतकश जनता के संघर्षों को वाणी देकर एक सच्चे जनकवि की भूमिका निभाई। सामाजिक न्याय उनके गीतों का प्रमुख स्वर है। बाद में वे स्वयं को अम्बेडकरवादी कहने लगे थे। उन्होंने तेलंगाना राज्य की स्थापना के आन्दोलन में भी सक्रियता से भाग लिया।
ग़दर के जादुई व्यक्तित्व और उनके जनगीतों की प्रस्तुति का अंदाज़ निराला था। इसे वही समझ सकता है, जिसने उन्हें देखा और सुना है। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के हैदराबाद महाधिवेशन के दौरान मैंने उन्हें महसूस किया। कॉन्फ्रेंस हॉल में उनके घुसते ही सभी प्रतिनिधि अपनी जगह पर स्वयं ही खड़े हो गए और सभी के मोबाइल उनकी छवि को कैद करने के लिए चमक उठे। सदा की भांति उनके हाथ में एक छोटा डंडा और कंधे पर काला कम्बल था। उनके पाँव थिरक रहे थे और जन-पीड़ा का शब्द-संगीत दिलों में गहरे उतर रहा था। उन्होंने न केवल तेलुगू अपितु हिंदी और पंजाबी भाषा में भी अपने गीत सुनाये।
इसी 2 जुलाई को उन्होंने कांग्रेस पार्टी की एक जनसभा में अपने देश और जनता के साथ अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए भूख और गरीबी के दर्द को दहकते हुए अंगारों में बदल देने वाले गीत सुनाये। राहुल गांधी ने उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए कहा कि “हमने जिन मुद्दों पर चर्चा की उनमें एक फासीवाद को रोकना है, चर्चा का मुख्य बिंदु था कि इन ताकतों द्वारा हो रहे व्यवस्थित हमले से हमारे संविधान की रक्षा कैसे करें, जो इसे कमजोर करना चाहते हैं।”
ग़दर के निधन का समाचार सुनकर सभी जनवादी संगठनों, साहित्यिक संस्थाओं की ओर से उन्हें दी जा रही श्रद्धांजलियों का तांता लगा है। हम ‘विकल्प’ जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के जनपक्षधर लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की ओर से क्रांतिकारी कवि ग़दर को भावभीनी श्रद्धांजलि एवं क्रांतिकारी नमन !
– महेन्द्र नेह
—–
मेरी खुशकिस्मती कि मैंने ग़दर को अपनी पूरी टीम के साथ झेलम लॉन में चंद मीटर की दूरी से क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत करते देखा सुना है। वह जीवन के न भुलाए जा सकने वाली शामों में एक शाम थी।
गीत अधिकतर तेलुगु भाषा में थे, जिन्हें मैं पूरा नहीं समझ सकता था। कुछ गीतों के भाव बता दिए जा रहे थे। लेकिन वह उठान, वह जोश, वह भावावेग और गहरी राजनीतिक समझदारी जीते-जागते जादू के विस्फोट की तरह थी।
उनके गीतों में कोई एक प्रांत या आंदोलन नहीं, भारत के तमाम आदिवासी संघर्षों की महान वीरता की परंपरा बोल रही थी। सिद्धू, कानू और बिरसा के तीर बोल रहे थे। तेभागा, तेलंगाना और नक्सलबाड़ी के किसानों का संघर्ष बोल रहा था। कुचली जा रही मनुष्यता का भीषणतम अव्यक्त आक्रोश बोल रहा था।
नब्बे के दशक के शुरुआती साल थे। अगर आपको साल ठीक ठीक याद हो तो बताइएगा जरूर। मंदिर आंदोलन की चिरायंध फैली हुई थी। एक नए अंधकारमय जमाने का आगाज़ हो रहा था। लेकिन उस दिन ग़दर को सुनकर महसूस हुआ कि लाल झंडे और कम्युनिस्ट पार्टी के जोर से काल का रथ पलटा जा सकता है।
हम सभी जानते हैं कि जीवन के आखिरी वर्षों में ग़दर ने खुद अपनी पार्टी छोड़ दी और तरह-तरह के राजनीतिक प्रयोग करते रहे। उनके मंदिर मंदिर भटकने की कहानियां भी खूब कही सुनी गईं। इस परिणति के बारे में कोई जजमेंटल टीका टिप्पणी करना बेकार है। लेकिन भारत के क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलनों के लिए ग़दर की विरासत हमेशा अनमोल रहेगी।
विदाई लाल सलाम, कॉमरेड।
– आशुतोष कुमार