— राजेन्द्र राजन —
सर्वोच्च न्यायालय के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बीते गुरुवार को निर्वाचन आयोग के मुख्य आयुक्त और अन्य आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया की बाबत जो फैसला सुनाया उससे भाजपा के खेमे में मायूसी है. जबकि भाजपा को खुश होना चाहिए कि उसकी एक पुरानी मॉंग, देर से ही सही, मान ली गयी है!
विपक्ष में रहते हुए भाजपा यह मॉंग करती रहती थी कि निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को संदेह से परे रखने के लिए यह जरूरी है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति केवल सरकार के हाथ में न रहे बल्कि इसके लिए एक कोलेजियम बनना चाहिए जिसमें विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाए. यह बिलकुल वाजिब मॉंग थी, लेकिन केंद्र की सत्ता में आते ही भाजपा ने इसे भुला दिया!
वर्ष 2012 में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर निर्वाचन आयुक्तों तथा नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) की नियुक्ति के लिए कोलेजियम का सुझाव दिया था, जिसमें प्रधानमंत्री, कानूनमंत्री, संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश सदस्य हों। लेकिन तब कांग्रेस ने इस सुझाव को नजरअंदाज कर दिया था। अलबत्ता वाम मोर्चा और कांग्रेस के सहयोगी दल द्रमुक ने आडवाणी के सुझाव का स्वागत करते हुए उसे लागू करने की मांग की थी। अगर यूपीए सरकार ने चाहा होता, तो उस समय निर्वाचन आयोग के लिए कोलेजियम प्रणाली पर आसानी से सर्वसम्मति बन जाती।
क्या विडंबना है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को लेकर आज कांग्रेस खुश है और भाजपा उदास! यह विरोधाभास यही बताता है कि जो भी पार्टी सत्तासीन होती है उसकी दिलचस्पी स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता अक्षुण्ण रखने में नहीं होती. लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुत सी स्वायत्तताओं के बल पर ही अर्थपूर्ण बनती है. फिर निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता तो संसदीय प्रणाली की आधारशिला है.
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के मुताबिक अब मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति केवल प्रधानमंत्री की पसंद से नहीं होगी; लोकसभा में विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की भी राय ली जाएगी और तीनों की राय से ही राष्ट्रपति नियुक्ति करेंगे. जब तक इस फैसले के अनुरूप संसद कानून नहीं बना देती तब तक अदालत का फैसला ही प्रभावी होगा. अलबत्ता यह फैसला मौजूदा निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल पूरा होने के बाद ही, यानी नए आयुक्त चुनने के समय से ही लागू होगा.
संविधान पीठ का यह फैसला ऐसे समय आया है जब निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता काफी दागदार हो चुकी है. इसलिए फैसले की अहमियत जाहिर है. यों तो पहले भी कभी-कभार निर्वाचन आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे थे, पर कुल मिलाकर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी थी। इसकी गिनती देश की चुनिंदा ऐसी संस्थाओं में होती रही जिन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने दी और अपने काम से देश के भीतर ही नहीं, देश से बाहर भी अपना मान बढ़ाया। लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों समेत कई चुनावों में निर्वाचन आयोग के निर्णयों और व्यवहार पर रह-रह कर जैसे सवाल उठे हैं उनसे इसकी साख पर बट्टा लगा है। अगर अंपायर या रेफरी की निष्पक्षता पर लोगों का भरोसा डिग जाए तो जहां हारने वाली टीम को अपनी हार का ठीकरा कहीं और फोड़ने का मौका मिल जाएगा, वहीं जीतने वाली टीम की कामयाबी को शक की निगाह से देखा जाएगा। इसलिए चुनाव आयोग की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव का सबसे बुनियादी तकाजा है।
फिर, निर्वाचन आयुक्त ही क्यों, सीएजी और राज्यपाल जैसे अन्य संवैधानिक पदों के लिए भी, नियुक्ति प्रक्रिया को सरकार (या सत्तारूढ़ दल) की पसंद पर निर्भर न रख कर स्वायत्त बनाने की जरूरत है।
लेकिन चुनाव सुधार के नजरिये से देखें तो कई अपेक्षाएँ अभी लंबित हैं. इनमें दो सबसे अहम हैं. चुनाव-सुधार का दूसरा अहम मुद्दा यह है कि जिस तरह उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा तय है उसी तरह पार्टियों के खर्च की भी सीमा तय होनी चाहिए। यह सही है कि तमाम उम्मीदवार अपने चुनावी खर्चों का सही ब्योरा नहीं देते। लेकिन इसे कड़ाई से लागू करने और व्यावहारिक बनाने की जरूरत है, न कि यह छूट कानूनन कायम रहे कि कोई पार्टी चाहे तो कितना भी खर्च कर सकती है। चुनावी खर्च का चुनाव में साधारण लोगों की भागीदारी, लोक प्रतिनिधित्व के स्वरूप (चरित्र) और विधायिका को धनबल के प्रभाव से बचाने के तकाजे से सीधा वास्ता है। लेकिन हालत यह है कि चुनावी मैदान में संसाधनों की गैरबराबरी में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है।
छोटी पार्टियों, निर्दल उम्मीदवारों और साफ-सुथरी तथा वैकल्पिक राजनीति का सपना लेकर कभी-कभार या कहीं-कहीं चुनाव मैदान में उतरने वाले समूहों के लिए चुनाव दिनोंदिन चक्रव्यूह बनता गया है। दूसरी तरफ कॉरपोरेट कुबेरों से जिनके तार जुड़े हैं और चुनाव जीतने के लिए जो किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं उन्हें यह रास आता है कि चुनाव, खर्च का खेल बना रहे।
लेकिन यह बड़ी ही चिंताजनक स्थिति है। पार्टियों के चुनावी खर्च की हदबंदी होनी चाहिए। अगस्त 2018 में खुद चुनाव आयोग ने इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनाने की पहल की थी। लेकिन मुख्य आयुक्त के पद से ओपी रावत की विदाई के बाद यह पहल जहां की तहां रह गई। इस दिशा में फिर से कोशिश होनी चाहिए।
संसाधनों की गैर-बराबरी की बहस में यह सुझाव भी जब-तब आता रहा है कि चुनाव खर्च का बोझ सरकार (राज्य) वहन करे, यानी इसके लिए स्टेट फंडिंग की व्यवस्था हो। चुनाव सुधार के लिए बनी इंद्रजीत गुप्त समिति (1998) और चुनाव संबंधी कानूनों के सुधार पर विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट (1999) में स्टेट फंडिंग के सुझाव को आंशिक रूप से स्वीकार किया था, इस शर्त के साथ कि ऐसी सहूलियत सिर्फ एक न्यूनतम वोट-प्रतिशत पाने वाले दलों के लिए ही हो, साथ ही, उन दलों पर आंतरिक चुनाव कराने जैसे नियमन के कुछ नियम-कायदे लागू किए जाएं। पर प्रशासनिक सुधार और पुलिस सुधार की तरह चुनाव सुधार संबंधी रिपोर्टें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गईं।
तीसरा बड़ा मुद्दा यह है कि इलेक्टोरल बांड की व्यवस्था खत्म हो। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में की गई इस व्यवस्था के चलते चुनाव को धनबल से असीमित रूप से प्रभावित करने का रास्ता खुल गया है। यह सही है कि पहले भी कोई आदर्श स्थिति नहीं थी। लेकिन कोई पार्टी पैसे के कारण किसी की कठपुतली न बन जाए, इसे रोकने के लिए कुछ तजवीज की गई थी। यह प्रावधान था कि कोई कंपनी पिछले तीन साल के अपने शुद्ध औसत मुनाफे के साढ़े सात फीसद से ज्यादा चंदा नहीं दे सकती।
लेकिन इलेक्टोरल बांड आने से अब ऐसी कोई बंदिश नहीं है, यानी कोई कंपनी चाहे कितना भी चंदा किसी को दे सकती है। फिर, इलेक्टोरल बांड ने पूरे लेन-देन को छिपाए रखने की सुविधा कर दी है। विडंबना यह है कि छिपाने की छूट के पीछे भी पारदर्शिता की दलील दी गई!
और चुनावी प्रावधान से संबंधित विधेयक को धन विधेयक (मनी बिल) के रूप में पारित कराया गया (जो कि नियमतः नहीं होना चाहिए था) ताकि राज्यसभा में मतों की कमी उसके आड़े न आए! इलेक्टोरल बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की कीमतों में जारी किए गए। नब्बे फीसद से ज्यादा बांड दस लाख और एक करोड़ की कीमतों वाले बिके। इससे समझा जा सकता है कि बांड के रूप में चंदा देने वाले किस वर्ग के लोग रहे होंगे।
फिर, अब अनुमान ही नहीं, यह खुलासा हो चुका है कि इलेक्टोरल बांड के रूप में अधिकांश रकम एक ही पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) को गई। अब वह पार्टी किसके हित साधेगी? जाहिर है, इलेक्टोरल बांड के प्रावधान ने चुनाव को पूरी तरह गैर-पारदर्शी और धन का अनियंत्रित खेल बना दिया है। साथ ही, नीति निर्माण की प्रक्रिया को भी, खासकर आर्थिक फैसलों, पर्यावरणीय मंजूरी, श्रम कानून आदि को परदे के पीछे से प्रभावित किए जाने का खतरा पैदा कर दिया है। और यह खतरा भविष्य के किसी कोने में छिपा हुआ नहीं है, बल्कि सामने प्रकट हो चुका है. लिहाजा, इलेक्टोरल बांड को जल्द से जल्द खत्म किया जाना चाहिए।
लोकतंत्र का मतलब बस किसी तरह चुनाव संपन्न हो जाना नहीं है, लोकतंत्र का मतलब यह भी है कि तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं बिना किसी दबाव के काम करें और उनकी विश्वसनीयता पूरी तरह बनी रहे।