अलविदा वैदिक जी!

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स्मृतिशेष वेदप्रताप वैदिक (30 दिसंबर 1944 - 14 मार्च 2023)

तकरीबन 50 साल पहले दिल्ली के सप्रू हाउस लाइब्रेरी कैंटीन में, वैदिक जी, मैं और दो मित्र गपशप कर रहे थे। सहसा एक साथी ने पूछा वैदिक भाई एक बात बताओ, तुम जनसंघी हो या सोशलिस्ट? उन्होंने कहा, ऐसे समझो कि जनसंघ पत्नी है, और सोशलिस्ट प्रेमिका। बात वैदिक जी ने मजाक में कही थी, परंतु इससे उनके अंदर की सच्चाई सामने आ गई थी। मूलतः वह संघी विचारधारा वाले थे। परंतु उनकी पीएचडी की थीसिस हिंदी में लिखी होने के कारण जेएनयू में जांची नहीं जा रही थी। तब डॉ राममनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के लोकसभा सदस्यों ने तूफान मचा दिया था, जिसके कारण उनको पीएचडी की सनद हासिल हुई। इस कारण उनका सोशलिस्ट नेताओं से निकटता का संपर्क स्थापित हो गया।

मेरा उनसे संपर्क 1966-67 में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में हुआ था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट के बाहर सीमेंट से अंग्रेजी में बने हुए नामपट्ट को तोड़ने में वे भी शामिल थे। इस बात का जिक्र बिना भूले वह हमारी हर कॉमन मीटिंग में करते थे। अपने लेखन में वह भरसक प्रयत्न करते थे कि मैं सरकारपरस्त ना लगूँ। कड़ी आलोचना भी करते थे परंतु सार, सत्ता की पक्षधरता ही निकलता था। लिखते वक्त वे तारीख, तथ्यों, घटनाक्रमों के बारे में सचेत रहते थे। परंतु भाषण से लेकर निजी बातचीत में बड़ी संजीदगी, करीने और चाशनी से डूबे शब्दों में किस्से गढ़ने मे भी उनको महारत हासिल थी।

निजी संबंधों की मिठास उनमें हमेशा टपकती थी। पिछले दिनों मुझे टेलीफोन पर उन्होंने कहा कि तुम मेरे यहां रहने आ जाओ। सैकड़ों गमलों में तरह-तरह के फूलों की सुगंध, पौष्टिक भोजन के साथ -साथ बतियाएंगे।

उनके जाने से पत्रकारिता, बौद्धिक जगत, तथा खुलूस, मोहब्बत वाले साथी की कमी होना स्वाभाविक है। मेरी संवेदना उनकी पुत्री, पुत्र एवं परिवार के अन्य जन के साथ है।

– राजकुमार जैन

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अभी कुछ दिन पहले ही तो बात हुई थी।

मैंने खूब शिकायत की कि अब आप एक तरफ झुकते जा रहे हैं और निष्पक्षता गायब हो रही है तो फिर उनका वही जवाब कि या तो तुम मेरे घर पर आकर रुको और अपन लंबी बात करें या फिर मेरा टिकिट भेजो कि वहॉं आ जाऊँ जहॉं तुम हो।

जनदक्षेस (people’s saarc) बनाकर चलाने के लिए मुझसे आखिरी चर्चा तक में आग्रह करते रहे कि तुम इसके महासचिव बनो और हम मिलकर चलाते हैं और मैं टालता रहता था कि मैं अभी व्यस्त हूँ जबकि था नहीं।

एकाकीपन भी कुछ कुछ आने लगा था जब से श्रीमती वैदिक का देहावसान हुआ था ! जब वे अस्पताल में थीं तो मुझे दिन में दो बार उनका हाल बताते थे और फिर वहीं भेंट होती थी।

अपने ही ढंग के प्यारे इंसान थे !

सदा सक्रिय रहने वाले और सर्वदलीय वृत्त में घूमने वाले जिस कारण भी किसी दल ने उन्हें इतना विश्वसनीय नहीं माना कि जीवन की संध्या में कोई राजनीतिक कूटनीतिक पद उन्हें मिल सकता ! सदा कांग्रेसियों, समाजवादियों और जनसंघ के बीच टहलना उन्हें अच्छा लगता था जिसका कारण था कि हिंदी में उनकी पीएचडी को जेएनयू से मान्यता दिलाने के लिए सोशलिस्टों ने संसद को हिला दिया था। यही मुख्य कारण बना कि वे समाजवादियों के नजदीक तो आए पर परिवार के कारण वे न सिर्फ आर्यसमाजी थे बल्कि संघ व भाजपा के नजदीक बने रहे।

मोदी जी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने के लिए खूब अभियान चलाया और मोदी से जल्दी ही निराश हो गये थे!तंज में प्रम को सर्वज्ञ लिखते रहे थे अपने लेखों में।

शरीर से चंगे भले रहे सदा। उम्र में अंतर था करीब 7 बरस का पर सदैव मित्रवत व्यवहार करते थे। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सहिष्णुता और मित्रता बनाये रखने के संभवतः अंतिम लोगों में थे। अब ये संस्कार, संस्कृति और सहनशीलता की परंपरा ही विदा होती जा रही है। नई राजनीति में सहिष्णुता मित्रता की जगह कटुता शत्रुता होती जा रही है !

अलविदा वैदिक जी!

वैदिक जी की विद्वान प्रोफेसर पुत्री और पुत्र के शोक में मैं सहभागी हूँ।

– रमाशंकर सिंह

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