
— राम जन्म पाठक —
याद नहीं आ रहा है कि किसने कहा था कि कोई काम न हो तो खाली बैठे रहने सबसे कठिन काम है। खालीपन क्या है? क्या यह महज एक मनोदशा है या मनोविकार है या विचारशून्यता की कोई स्थिति है या ‘न कुछ’ हो जाना है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे हम खाली समझ रहे हैं, वह पूरी तरह भर गया है, और अब उसमें कुछ और ठूंसने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। मनोविद कहते हैं- mind is always seeking and searching. (मन निरंतर कुछ न कुछ चाहता और ढूंढ़ता रहता है।)
सुबह है और थोड़ी देर से सोकर उठ गया हूं। याद करने की कोशिश करता हूं कि कब सोया था। शायद रात के एक बजे। लेकिन वह समय ठीक-ठीक याद नहीं आता कि कब नींद की गोद में गया होऊंगा। इस बारे में भी कहीं पढ़ा या सुना है कि किसी को अपनी नींद में जाने की स्मृति नहीं रहती। मैंने पहले भी एक जगह कहा है कि कुरान में नींद को छोटी मौत कहा गया है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मौत भी ऐसे ही चुपके से दाखिल होती हो। आराम से, चुपचाप। लेकिन, यह तो भोर है और पक्षियों के गीत गाने का वक्त है। पूरब दिशा में लाली है। मैं, कहां का पचड़ा ले बैठा!
मेरे कमरे में किताबें कभी ढंग से नहीं रहतीं। बेतरतीब पड़ी रहती हैं, जहां की तहां। मन में आता है तो सोने से पहले या सोकर उठते ही या कभी भी कोई उठा लेता हूं और थोड़ा-बहुत पढ़ता हूं। कुछ तय नहीं, कोई योजना नहीं, कोई मकसद नहीं। कितना पढ़ूंगा, कितना छोड़ दूंगा। कई बार तो चार पंक्ति पढ़कर ही छोड़ देता हूं। किताबें ले आता हूं, बरसों-बरस देखता रहता हूं, पढ़ता नहीं। जुजे सरामागु की ‘लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास’ खरीदे हुए सालों हो गए, नहीं पढ़ पाया पूरा। इसी तरह जार्ज आरवेल की ‘1984’ भी अधूरी पढ़ी है। अरुंधति राय की ‘अपार खुशी का घराना’ भी अधूरा है। शोसना जुबाफ की बीस साल की मेहनत से लिखी THE SURVEILANCE OF CAPITALISM को सत्रह सौ रुपए देकर एमेजन से मंगाया। नहीं पढ़ पाया। ऐसे ही बहुत कुछ पड़ा है।
लेकिन, बहुत कूछ कूड़ा रोज पढ़ता भी हूं, जिनमें समाचार, चुटकुले, फालतू के गद्य, निरर्थक कविताएं शामिल होती हैं।
क्या मुझमें कुछ कमी है? शायद हां, शायद नहीं।
आज मैंने एक किताब उठा ली है। यह महान दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति की एक जीवनी है। इसे भारत के राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट जैसी आलीशान निर्मितियों के वास्तुकार रहे अडविन लट्यंस की सुपुत्री मेरी लट्यंस ने लिखा है। महान पिता की महान पुत्री। अहसास हो रहा है कि किताबें पढ़ना ही नहीं, पन्ने पलटना भी एक काम है। इसका मतलब कि मन को कुछ काम मिल गया है। अब वह बे-काम नहीं है। तो क्या मेरा खालीपन दूर हो रहा है?
मेरी नजर अपने ही रेखांकित की गई पंक्ति पर टिक गई है- इसमें ‘के’ ( कृष्णमूर्ति को उनके लोग इसी नाम से पुकारते थे) आखिरी समय में अपने चिकित्सक डा डोइच से कह रहे हैं, “–मृत्यु का मुझे भय नहीं है, क्योंकि मैं मृत्यु के साथ जीवन भर जिया हूं। मैंने कभी भी कोई स्मृति नहीं ढोई है।” वही नींद में जाने से पहले स्मृतिविहीनता की स्थिति।
क्या स्मृति को ढोना भी जीवन को तबाह करना है! यह गूढ़ बातें, दार्शनिकों के लिए छोड़ दीं मैंने।
मैंने दूसरा पन्ना पलट दिया है। फिर वह, रेखांकित और चमकती हुई एक पंक्ति मेरे सामने खिलखिला रही है। ”आप टाइपराइटर का इस्तेमाल चिट्ठियां लिखने के लिए करते हैं, उसे आप वेदी पर रखकर पूजते नहीं।”
मुझे याद आ रहा है कि कुछ दिनों पहले एक उत्साही सज्जन मेरे कमरे पर आए थे। उन्होंने देखा कि मैं रामचरितमानस और कुरआन दोनों रखे हुए हूं। उन्होंने कहा कि कुरआन को ठीक से रखिए। कोई मुल्ला आएगा, देखेगा तो गुस्सा होगा। मैंने कहा, पहली बात, कोई मुल्ला आएगा क्यों। और आ भी गया तो यह मेरा घर है। मेरे लिए सारी किताबें एक जैसी हैं। सभी कीमती हैं और सभी काबिले-इज्जत हैं। किसी को वेदी पर क्यों रखूंगा। दूसरी बात कि मैं पंडितों को भी अपने कमरे पर नहीं आने देता। पंडित और मुल्ला को दूर से सलाम। कोई मयकश, कोई हमनवां आता है तो स्वागत है।
मैंने तीसरा पन्ना पलट दिया है–कृष्णमूति ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली और विचारवान संगठन order of the star का प्रमुख बनते ही उसे भंग कर दिया। और सारे संसार को संदेश दिया –
“मैं यह मानता हूं कि सत्य एक मार्गरहित भूमि है, और आप किसी भी मार्ग द्वारा, किसी भी धर्म या संप्रदाय द्वारा उस तक नहीं पहुंच सकते।…विश्वास नितांत व्यक्तिगत मामला है, आप इसे संगठित नहीं कर सकते…संगठन आगे चलकर बैसाखी, कमजोरी और बंधन बन जाता है….सीधी बात है मैं अनुयायी नहीं चाहता।”
कृष्णमूर्ति ने अपने ही संगठन को भंग कर दिया और सदस्यों के पैसे वापस लौटा दिए और कहा कि आप अपने घर जाएं। मैं अकेला चला जाऊंगा। किंवंदती तो यह भी है कि वे बुद्ध के अवतार माने गए (क्योंकि बुद्ध ने कहा था कि वह ढाई हजार साल बाद मैत्रेय नाम से भारत में पैदा होंगे।)..
अब मैंने एक दूसरी किताब उठा ली है। आचार्य निशांतु केतु की। रंभा-शुक संवाद देखने लायक है।
रंभा (महामुनि शुक से कहती है) –
मार्गे-मार्गे नूतनं चूतखण्डे, खण्डे-खण्डे कोकिलानां विराव:
(हे मुनिवर, प्रत्येक मार्ग में आम्र की नवीन मंजरियों से पुष्पित अमराइयां हैं, जिन पर कोकिल समूह मधुर ध्वनिगान कर रहे हैं।)
इसके उत्तर में शुक कहते हैं –
मार्गे-मार्गे जायते साधु संग: संगे-संगे श्रूयते कृष्णकीर्ति:
(हे रंभे, प्रत्येक मार्ग पर साधुसंतों का सत्संग है। उनके सत्संग में श्रीकृष्ण की कीर्ति सुनाई पड़ रही है।)
इन श्लोकों को पढ़कर ही जान पाया कि जिस शब्द को हमारे यहां गाली बना दिया गया है, उसका मतलब तो आम होता है। आम से यह शब्द गाली तक कैसे पहुंचा, इसकी खोज जरूरी है। भाषाविदों का काम हम क्यों करें।
लेकिन, अब मन खाली नहीं है। भर गया है।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















