— नंदकिशोर आचार्य —
आज की दुनिया में राज्य की निरंतर बढ़ती हुई शक्ति व कार्यक्षेत्र और नागरिक या सामाजिक संस्थाओं और परंपराओं के राज्य के मुकाबले कमजोर होते चले जाने के पीछे अनेक आर्थिक-सामाजिक कारण और परिस्थितियाँ जिम्मेदार रहे हैं। लेकिन, इस सैद्धांतिक मान्यता की भूमिका भी बड़ी महत्त्वपूर्ण रही है कि राज्य एक सर्वोच्च संप्रभु संस्था है। इसी विश्वास ने यह सोच पैदा किया है कि सर्वोच्च संप्रभु होने के कारण अन्य सारी सामाजिक संस्थाएँ और लोक-व्यवहार राज्य के अधीन हैं और इसलिए राज्य को उन्हें नियंत्रित और निर्देशित करने का वाजिब हक प्राप्त है। संप्रभुता की यह अवधारणा ही राज्य को यह नैतिक हक दे देती है कि वह अपने को संपूर्ण समाज का नियंता मान ले।
इसका कारण, दरअसल, यह है कि संप्रभुता के बिना हम आज राज्य-संस्था की कल्पना भी नहीं कर पाते। आधुनिक राजनीतिक पंडितों की यह गलतफहमी हमारे मन-मस्तिष्क में भी गर गयी कि संप्रभुता राज्य का अनिवार्य तत्त्व है (भूमि, जनसंख्या और सरकार के साथ)। और इसी कारण राज्य को हम सामाजिक व्यवस्था का राजनीतिक-प्रशासनिक पक्ष मानने के बजाय संपूर्ण समाज का निर्देशक या नियंत्रक मान लेते हैं। राज्य को संप्रभु मानने की यह अवधारणा वास्तव में भारत में साम्राज्यवादी बुद्धि द्वारा आरोपित कलम है जो बहुत-सी विदेशी प्रजातियों के वृक्षों की तरह हमारी सामाजिक जमीन और सांस्कृतिक पर्यावरण को बिगाड़ रही है।
बहुत-से लोगों को यह आश्चर्यजनक लगेगा कि भारतीय राजनीतिक चिंतन में राज्य को कभी उस अर्थ में संप्रभु नहीं माना गया है जिस अर्थ में आज राजनीतिशास्त्री मानते हैं। हमारे राजनीतिक चिंतकों – भीष्म, कौटिल्य, शुक्र आदि में से किसी ने भी संप्रभुता को राज्य का अनिवार्य तत्त्व नहीं माना है।
भारतीय राजनीतिक चिंतन में राज्य के सप्तांग सिद्धांत का बार-बार जिक्र किया गया है- लेकिन इसमें संप्रभुता को एक अलग तत्त्व की तरह कहीं नहीं गिनाया गया है। भारतीय राज्य का चरित्र मूलतः प्रशासनिक रहा है और समाज को निर्देशित करने या सामाजिक मामलों में कानून आदि बनाने का अधिकार उसे कहीं भी नहीं दिया गया है- यहाँ तक कि कानून की व्याख्या करने में भी धर्मशास्त्र के पंडितों और सामाजिक रिवाजों को ही प्रामाणिकतादी गयी है। सामाजिक परंपराओं का राज्य द्वारा कितना सम्मान किया जाना चाहिए, इसका पता इसी से चल जाता है कि याज्ञवल्क्य और अन्य कई स्मृतिकारों ने दूसरे प्रदेश पर आधिपत्य करने वाले राजा को भी यह निर्देश दिया है कि वह विजित प्रदेश का शासन करते समय वहाँ की परंपराओं और रिवाजों को ही प्रामाणिक माने और अपने कानून वहाँ लागू न करें।
इसका तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारतीय समाज की परंपराओं और रिवाजों आदि में कोई परिवर्तन होता ही नहीं था। भारतीय समाज हमेशा नयी परिस्थितियों का सर्जनात्मक प्रत्युत्तर देता रहा है और परंपरा की गतिशीलता को स्वीकार करता रहा है, लेकिन, किसी भी परिवर्तन की पहल व उसका दायित्व समाज की राज्येतर संस्थाओं का रहा है। राज्य का अधिकार इस क्षेत्र में सामान्यतः नहीं स्वीकार किया गया।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब राजा को देवता मान लिया गया तो फिर उसे सर्वोच्च संप्रभु न मानने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन, भारतीय राजनीतिक चिंतन में व्यक्ति रूप में राजा को कभी देवता नहीं माना गया। राजा के विभिन्न कार्यों और गुणों को विभिन्न देवताओं का अंश कहा गया, वहीं दुष्ट और अत्याचारी राजा में राक्षसों का अंश बताया गया है।
शुक्रनीतिसार में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धर्म के अनुसार आचरण करने वाले राजा में यदि देवताओं का अंश है तो अधर्म का आचरण करने वाले दुष्ट राजा में दैत्यों का अंश है। तात्पर्य यह है कि राजा स्वयं देवता नहीं है, इसलिए उसके देवत्व के आधार पर उसे संप्रभुता-संपन्न मानना उचित नहीं होगा।
धर्म को हमेशा राज्य से ऊपर माना गया है- धर्म किसी पंथविशेष के अर्थ में नहीं बल्कि समाज के मूल्यबोध और न्यायबुद्धि के अर्थ में – और धर्म का प्रमाण किसी ग्रंथविशेष में नहीं बल्कि लोक-मान्यता में स्वीकार किया गया। भारत के अलग-अलग प्रदेशों और जातियों में यदि कई मामलों में विभिन्न और कभी-कभी विरोधी मान्यताएँ रही हैं तो इसका कारण यही रहा है कि अलग प्रदेशों के लोगों को अपनी मान्यता के अनुसार अपना जीवन बिताने की स्वतंत्रता रही है, क्योंकि राज्य को कभी इस बात की चिंता नहीं रही है कि वह सभी प्रदेशों और जातियों को एक मुख्यधारा के तहत लाए। विवाह, खान-पान, उत्तराधिकार और अन्य कई मामलों में उत्तरी भारत, पूर्वी भारत और दक्षिण भारत के हिन्दू कहे जाने वाले समाजों की मान्यताओं में भी मूलभूत फर्क रहा है- आदिवासी और निम्न कुल कहे जाने वाले समाजों को फिलहाल छोड़ भी दें तो- और उन सभी को धर्मानुकूल ही माना जाता रहा है, जिसका मतलब स्पष्ट है कि धर्म-निर्णय का आधार, लोकमान्यता व विभिन्न प्रदेशों और जातियों की अपनी परंपरा रही है। राज्य का उसमें कोई हस्तक्षेप कभी स्वीकार नहीं किया गया।
भारतीय परंपरा में यदि हम संप्रभुता की अवधारणा को कहीं न कहीं खोजना ही चाहें तो उसे राज्य में नहीं बल्कि समाज में ही प्रकारांतर से पा सकते हैं। कुछ पंडितों ने उसे राज्य के बजाय धर्म में निहित माना है, क्योंकि धर्म को राजा से ऊपर माना गया है। लेकिन, जैसा कि पहले कहा गया है, धर्म का निर्णय भी अंततः लोकमान्यता और स्थानीय परंपरा के अनुसार होना होता था, इसलिए लोक या समाज में संप्रभुता का निवास माना जाना चाहिए। यह बात इससे भी पुष्ट हो जाती है कि राजा को हटाने तक का अधिकार प्रजा को दिया गया है।
यह एक सुखद आश्चर्य है कि भारतीय राजनीतिक चिंतन-परंपरा में अत्याचार का मुकाबला करना प्रजा यानी समाज का फर्ज माना गया है और इसीलिए प्रजा को यह अधिकार दिया गया है कि वह राजा को धर्मानुकूल आचरण करने के लिए विवश करे और यदि वह इसमें सफल न हो सके तो राजा को हटा दे वरना मार डाले।
शुक्रनीतिसार में कहा गया है कि कुमार्गी राजा का राज्य छोड़कर दूसरे इलाके में चले जाना चाहिए। लेकिन, यह सलाह इक्का-दुक्का व्यक्तियों के लिए है क्योंकि वे अकेले राज्य की शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकते। लेकिन, राजा कुनीति पर ही चलता रहे तो प्रजा से यह अपेक्षा की गयी है कि वह राजा को हटाकर किसी दूसरे गुणवान व्यक्ति को सिहासन पर बिठाए। महाभारत में भीष्म ने तो यहाँ तक स्पष्ट निर्देश कर दिया है कि दुष्ट मंत्रियों की सलाह से चलने वाले शासक को मार डालने में भी कोई हर्ज नहीं है। इस प्रकार के कई उदाहरण भी मिलते हैं, जहाँ प्रजा या ऋषियों ने दुष्ट राजाओं को या तो राज्य से निर्वासित कर दिया या उन्हें मार डाला।
ये उदाहरण यह स्पष्ट कर देते हैं कि राजा या शासक या शासन-संस्थान को भारतीय परंपरा में संप्रभु नहीं माना गया और अपने अधिकारों की सीमा का लंघन करने अथवा अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन नहीं करने पर उसके खिलाफ लोक-विद्रोह को उचित और धर्म-रक्षा के लिए आवश्यक ठहराया गया है।
इस बात के भी बहुत-से उदाहरण मिल जाते हैं कि जब राज्य द्वारा मनमानी करने पर स्थानीय संस्थाओं द्वारा उसका सफल प्रतिरोध किया गया। भारतीय समाज में गाँवों की परंपरागत पंचायतों का बहुत महत्त्व रहा है। वे आधुनिक पंचायतों की तरह राज्यतंत्र पर आधारित उसी का एक हिस्सा नहीं, बल्कि राज्य के खिलाफ खड़ी हो सकने वाली लोकशक्ति के संगठन थीं। दक्षिण के इतिहास में ग्राम पंचायतों द्वारा राज्य के अत्याचार का सफल प्रतिरोध किये जाने की कई प्रामाणिक घटनाएँ मिल जाती हैं।
तंजौर जिले की ग्राम सभाओं ने चोल शासनकाल में नियमित कर के अलावा कोई भी नया कर देने से मना कर दिया था। कर्नाटक की एक ग्राम सभा ने गायों-भैंसों आदि पर नये लगाये कर देने से इनकार कर दिया था। कहीं-कहीं अधिक कर लगा देने पर विरोधस्वरूप किसानों द्वारा खेती करना छोड़ देने के भी उदाहरण मिल जाते हैं। ये उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हैं कि प्रचलित परंपराओं से अविचारित विचलन को समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता था और इसके पीछे यही मान्यता काम करती थी कि राज्य समाज की परंपराओं से ऊपर नहीं है।
यदि परंपराओं में कोई परिवर्तन लाने की जरूरत है तो वह समाज द्वारा ही लाया जाना चाहिए, राज्य द्वारा नहीं। इस भारतीय परंपरा को पहचान कर ही गांधीजी ने यह मान्यता रखी थी कि किसी भी सुधार की शुरुआत नीचे के स्तरों से होनी चाहिए, उसे ऊपर से थोपा नहीं जाना चाहिए।
लेकिन, ऐसा तभी संभव है जब हम यह मानें कि न केवल राज्य कोई संप्रभु संस्था नहीं है बल्कि समाज की संप्रभुता भी उसे हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। समाज अपनी संप्रभुता का इस्तेमाल विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से करता है- और इनमें कोई भी संस्था या प्रदेश एक-दूसरे से छोटा-बड़ा नहीं है क्योंकि उच्चावच क्रम अनिवार्यतः किसी एक संस्था में संप्रभुता को स्थापित कर देता है।
यदि भारतीय राज्य को सही अर्थों में भारतीय समाज का राज्य होना है तो उसे संप्रभुता की उस धारणा से मुक्ति पानी होगी जो साम्राज्यवादी मानसिकता द्वारा इतनी गहरी रोप दी गयी है कि हम राज्य को अविचारित ही सर्वोच्च संस्था मान लेने के अभ्यस्त हो गये हैं। राज्य मूलतः और अंततः एक प्रशासनिक संस्था है जो न तो समाज का नेतृत्व करने का दावा ही कर सकता है और न अपने को समाज का एकमात्र प्रतिनिधि मान सकता है। यदि आधुनिक पारिभाषिक शब्दावली में भी विचार करें तो भारतीय समाज एक बहुलवादी समाज है। इसलिए इसमें न तो किसी एक संस्था या मान्यता के सर्वोच्च होने का कोई सवाल उठ सकता है और न ही किसी एक विचार या जीवन-यापन की पद्धति को केंद्रीय या मुख्यधारा माना जा सकता है, जिसके तहत सबको खींच लाना आधुनिक राज्य अपना पुनीत कर्तव्य मानने लगा है।
भारतीय समाज को यदि हम भारतीय मूल्यबोध और न्यायबुद्धि की परंपरा के अनुसार गतिशील देखना चाहते हैं- और यहाँ यह स्मरणीय है कि कोई भी समाज अपनी परंपरा में ही स्वतंत्र हो सकता है, स्वतंत्र होने का तात्पर्य ही अपनी परंपरा में होना है- तो हमें अपने वर्तमान राज्यतंत्र की संरचना और स्वभाव में बुनियादी परिवर्तन करने होंगे और इसके लिए पहली अनिवार्य शर्त है राज्य को संप्रभु मानने के वहम से मुक्ति। भारतीय राज्य का सही मायने में भारतीय होने की दिशा में यह पहला कदम होगा।