मार्क्सवाद और समाजवाद : तीसरी किस्त

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— राममनोहर लोहिया —

शियाई देशों और गणतंत्रों का असली राष्ट्रीय प्रतीक अशोक चक्र या गरुड़ नहीं है। इंडोनेशिया का राष्ट्रीय प्रतीक गरुड़ है और भारत का अशोक चक्र। अगर मुझे राष्ट्रीय प्रतीक एशियाई देशों को देना हो तो मैं चरखा दूँगा और उसके पीछे आधा घोड़ा आधा आदमी होगा। यह पिछले तीन सौ सालों में पूँजीवाद के विकास की सही तस्वीर होगी। एशिया सहित दो-तिहाई विश्व में उत्पादन की शक्तियाँ घटती गयीं, आबादी बढ़ती गयी और इसलिए रहन-सहन के स्तर में गिरावट आती गयी। भयानक गरीबी दो-तिहाई दुनिया में छायी हुई है। ऐसा लगता है कि पूँजीवाद ने साम्राज्यवाद से समझौता किया हो कि उसकी सारी संपत्ति स्वामी देशों में रहेगी और सारी गरीबी उपनिवेशों पर थोपी जाएगी।

ये औपनिवेशिक देश बढ़ती गरीबी और पूँजीवाद के बढ़ते संकट के मार्क्सवादी नियमों की कठोरताओं का शिकार हुए। जार का रूस इस अविकसित ग्रंथि का शिकार नहीं था। यह यूरोपीय ग्रंथि का हिस्सा अधिक था, नस्ल के कारण और इतिहास के कारण और सभ्यता की उस विशेषता के कारण जो मानव-जाति के एक ग्रुप को दूसरे ग्रुप की तुलना में अधिक हिंसक और शोषणकारी बनाती है। ये ग्रुप जिन आधारों पर बनते हैं वे हैं भूगोल, धर्म, भाषा, चमड़ी का रंग आदि। बहुत अधिक आबादी, बहुत कम भूमि और अविकसित उत्पादन-साधन यह है साम्राज्यवाद की अश्वेत विश्व को देन। पूँजीवाद के विकास की मेरी व्याख्या के अनुसार रूस शासक परिवार का सदस्य था, यद्यपि वह गरीब था। यह इसलिए हुआ कि दुनिया का एक-तिहाई हिस्सा जिसमें सारा यूरोप आ जाता है, पूँजीवादी विकास में कुछ न कुछ हिस्सा पाता रहा। इसलिए यद्यपि रूस गरीब रिश्तेदार था, वह यूरोपीय देशों के महान समुदाय का सदस्य था।

मार्क्सवादी क्रांति रूस में हुई। ट्राटस्की ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि पूँजीवाद की जंजीर अपने सबसे कमजोर बिंदु पर टूटी। एक मार्क्सवादी (मार्क्स खुद) कहता है कि यह जंजीर अपने सबसे शक्तिशाली बिंदु पर टूटेगी और दूसरा मार्क्सवादी (ट्राटस्की) कहता है यह अपने सबसे कमजोर बिंदु पर टूटी। लेनिन, संभवतः राजनेता होने के कारण, ज्यादा चतुर था। उसने ऐसा जवाब दिया जिसके, स्थिति के अनुसार, कई अर्थ लगाए जा सकते हैं। उसने कहा कि पूँजीवादी जंजीर वहाँ टूटेगी जहाँ सर्वहारा की राजनैतिक पार्टी मजबूत होगी चाहे यह  सबसे शक्तिशाली कड़ी हो या सबसे कमजोर या बीच की या कोई और कड़ी। ये तीन महान मार्क्सवादी, पूँजीवादी विकास और पूँजीवादी सभ्यता की जंजीर के टूटने के तीन भिन्न नियम प्रस्तुत करते हैं।

इस बात का ज्यादा महत्त्व नहीं है कि इन तीन मार्क्सवादियों ने किन देशों का अपने लेखों में कमजोर कड़ी के रूप में उल्लेख किया। इतना तो स्पष्ट है कि मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन द्वारा लिखे गए 10,000 या 8,000 पृष्ठों में कई जगहों का उल्लेख हुआ होगा। हर महान व्यक्ति ने किसी विशिष्ट चीज के संबंध में परस्पर विरोधी बातें कहीं। महात्मा गांधी ने भी और मार्क्स ने भी। इन परस्पर विरोधी बातों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है। हमारा ध्यान पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया और उसके नियमों पर रहना चाहिए। इस नियम का मार्क्स, ट्राटस्की या स्टालिन ने कैसे प्रयोग किया यह ज्ञानवर्धक विषय है लेकिन यह नियम निश्चित रूप से यह बताता है कि पूँजीवाद अपने विकास-क्रम में अपने सबसे बड़े शत्रु को पैदा करता है। वह अपनी कब्र खोदने वाले को पैदा करता है और जैसे-जैसे वह अपने क्षेत्र का विस्तार करता है वैसे-वैसे वह सर्वहारा वर्ग की सेना को बढ़ाता है जो एक दिन उसे खत्म करने वाली है। यह है नियम। यदि कोई कार्ल मार्क्स का कोई लेखांश निकाल कर कहे कि यह देखो मार्क्स ने लिखा है कि क्रांति रूस में होगी या कोई लेनिन का वाक्य निकाल कर कहे कि उसने भारत में क्रांति होने की बात कही थी तो ऐसे लेखांशों या वाक्यों का कोई महत्त्व नहीं है, यह एकदम बेकार है।

महत्त्व जिस बात का है वह है नियम क्योंकि अगर हम पूँजीवादी विकास के सही नियम को नहीं समझेंगे, मार्क्सवादी सिद्धांत का सारा जादुई आकर्षण जो सारी दुनिया के लोगों और नौजवानों पर है, वह चला जाएगा क्योंकि नियति का आदेश नहीं रहेगा। यह आदेश मानव-इच्छा पर निर्भर नहीं है। यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि कुछ मानसिक क्रिया होती है या नहीं। यह नियति का आदेश है। यह पूँजीवादी विकास का आदेश है कि अपने विकास की प्रक्रिया में वह खुद अपना नाश करेगा। यह विनाश इसलिए होता है कि पूँजी का केंद्रीकरण, श्रमिक के समाजीकरण की प्रक्रिया, निर्धनता की वृद्धि के साथ-साथ चलती है। इन तीन प्रक्रियाओं के साथ-साथ चलने से मार्क्स क्रांति का यह मूलभूत सिद्धांत बनाने में समर्थ होता है और कहता है कि पूँजीवाद की जंजीर की कड़ी अपने सबसे मजबूत बिंदु पर टूटेगी जो जाहिर है बिल्कुल गलत है।

यदि मैं मार्क्सवादी होता तो मैं इस सिद्धांत को हाल की अतिरिक्त जानकारी से मजबूत करता। जो तीन परिघटनाएँ मार्क्स ने बतायी थीं वे वास्तव में प्रकट हुईं क्योंकि कोई इस बात में संदेह नहीं कर सकता है कि पूँजी का केंद्रीकरण हुआ, श्रमिक वर्ग का सामाजीकरण भी हुआ और गरीबी भी बढ़ी। किंतु मार्क्स की भूल यह सोचने में हुई कि ये तीनों परिघटनाएँ एक ही अर्थव्यवस्था के भीतर जैसे ब्रिटिश या जर्मन अर्थव्यवस्था के भीतर प्रकट होंगी। तीनों घटनाओं को अलग करने की जरूरत है। इस प्रकार की पूँजी का केंद्रीकरण और श्रमिक वर्ग का समाजीकरण तो पश्चिम यूरोप और अमरीका में हुआ, निर्धनता मे वृद्धि दो-तिहाई विश्व की पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में हुई। मार्क्स के पूँजीवादी विकास के विश्लेषण में यह संशोधन कर मैं यह निष्कर्ष निकाल सकता हूँ कि पूँजीवादी सभ्यता का विनाश उस जगह होगा जहाँ निर्धनता बढ़ती जाएगी। लेकिन मैंने कहा था कि अगर मैं मार्क्सवादी होता तो यह संशोधन करता और इसलिए मैं यह काम भारत के या विश्व के किसी भी दूसरे हिस्से के मार्क्सवादी के लिए छोड़ता हूँ।

बहरहाल, हमें पूँजीवादी विकास के नियमों का विश्लेषण करते समय अतिरिक्त मूल्य, पूँजीवाद की विसंगतियों और क्रांति संबंधी नियम पर पुनर्विचार करना पड़ेगा और इसलिए हमें रणनीति और रणकौशलों में भी संशोधन करना पड़ेगा क्योंकि मार्क्सवाद की रणनीति और रणकौशल पूँजीवादी विकास के नियम के ही अनिवार्य परिणाम हैं।

इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद कि पूँजीवादी सभ्यता विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले इलाके में ध्वस्त होगी, मार्क्स को और किसी बात की चिंता नहीं रही। उत्पादन में विस्तार करने वाली शक्तियाँ वहाँ रहेंगी, अतः वहाँ एक ही काम करने की जरूरत होगी कि पूँजीपतियों को हटाकर सामाजिक स्वामित्व की स्थापना कर दी जाए। कारखाने वहाँ होंगे ही। उन्नत अर्थव्यवस्था की सभी चीजें वहाँ रहेंगी, सिर्फ पूँजीपतियों को हटाने की जरूरत होगी। जब सामाजिक स्वामित्व स्थापित हो जाएगा तो अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती जाएगी और सबकी जरूरतें पूरी होती जाएंगी। चूंकि पूँजीवादी विकास का यह नियम गलत सिद्ध हुआ और पूँजीवादी जंजीर मजबूत कड़ी पर नहीं, सबसे कमजोर कड़ी पर टूटी, अतः बिल्कुल नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।

(जारी)

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