मार्क्सवाद और समाजवाद : चौथी किस्त

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— राममनोहर लोहिया —

क प्राक्कल्पना है। मान लो पूँजीवाद की जंजीर भारत में टूटती है। प्रति व्यक्ति 150 रुपए के औजार से यहाँ क्या काम होगा। हमारे पास इतने ही पूँजी-साधन हैं। मैं कृषि-भूमि की स्थिति पर भी जोर देना चाहूँगा। भारतीय अर्थव्यवस्था से पूँजीवादी नियंत्रण हटाने के बाद हमारे सामने ऐसी समस्याएँ होंगी जिनका मार्क्सवादी सिद्धांत ने पूरा अध्ययन नहीं किया है क्योंकि इस सिद्धांत के अनुसार पूँजीवादी नियंत्रण खत्म होने के बाद कोई समस्या ही नहीं रहेगी। इस सिद्धांत के अनुसार कोई समस्या नहीं रहेगी लेकिन जंजीर पिछड़े देश में टूटेगी तो कई समस्याएँ खड़ी होंगी। सुसंगत और उपयोगी सामाजिक या अर्थशास्त्रीय सिद्धांत वह होगा जो समाज के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक तीन समस्याओं को भली प्रकार आत्मसात करेगा। आखिर, पूँजीवादी नियंत्रण के खत्म होने के बाद भारत के पास क्या बचेगा? डेढ़ सौ रुपए के प्रतिव्यक्ति औजारों को काफी उन्नत बनाना पड़ेगा अगर हम अमरीका और रूस जैसा जीवन-स्तर प्राप्त करना चाहेंगे। इसका मतलब क्या होगा? अमरीका और रूस के बराबर पूँजी-निवेश करने के लिए हमें लगभग 20 करोड़ रोजगार पैदा करने पड़ेंगे और प्रत्येक रोजगार के लिए 10,000 रुपए की पूँजी-निवेश की व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह 2,00,000 करोड़ या 2,000 अरब रुपए होगा। यदि हम पूँजीकरण कम भी करें तो भी 5,000 रुपए प्रति श्रमिक के हिसाब से 1,000 अरब रुपए की जरूरत होगी।

इसकी तुलना उस पूँजी से करें जो प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत हमें उपलब्ध है। यह है 18 या 25 अरब पाँच साल के लिए; तीन या पाँच अरब एक साल के लिए और हमें कुल निवेश करना होगा 1,000 से 2,000 अरब। कितने साल इसमें लगेंगे? मोटे तौर पर इसके लिए 200 वर्षों का समय चाहिए। मान लीजिए कि कांग्रेस शासित भारत में विकास की गति तेज होगी और गुणनकारक बड़ा होगा तो भी हमें 100 या 80 साल लगेंगे। सारा मामला ही बेतुका है। कोई भी समझदार आदमी इस पर हँसेगा।

अब कुछ देर के लिए मान लीजिए कोई ऐसी प्रणाली यहाँ आती है जो अधिक सख्ती से काम करे या जो ज्यादा जागरूक है और जो जानती हो कि उसे क्या करना है तथा जो आधुनिक सभ्यता के तौर-तरीकों को भलीभाँति जान गयी हो और उससे मोहित हो। मान लीजिए, कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आती है। उसके द्वारा पूँजी-साधनों के विकास की दर क्या होगी? कुछ भी नहीं; क्योंकि विशाल जनता का जहाँ तक संबंध है उसके न्यूनतम निर्वाह स्तर और उसकी आमदनी में बहुत कम अंतर है। कितनी ही सख्ती बरतने वाली प्रणाली इस देश में हो, यहाँ 10 अरब रुपए से ज्यादा का पूँजी-निवेश नहीं हो सकता (वर्तमान कीमतों के आधार पर)। मैं मानकर चलता हूँ कि तानाशाही प्रणाली को दस, बीस या पचास मिलियन लोगों को खत्म करने का इरादा करना पड़ेगा। जब लोग नये समाजों और नयी सभ्यताओं का निर्माण करने की बात सोचते हैं तब धार्मिक और राजनीतिक व्यक्तियों से ज्यादा क्रूर कोई नहीं होता क्योंकि ये धार्मिक और राजनीतिक व्यक्ति अपने आदर्श पर मोहित होते हैं और उस आदर्श को लाने के प्रयास में वे कोई भी कीमत देने को तैयार होते हैं। अतः मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ कि कम्युनिस्ट पार्टी निवेश की दर को दुगना-तिगुना कर सकती है। इसका मतलब होगा कि 80 साल, या गुणन कारक बड़ा हुआ तो 60 साल। यह ज्यादा से ज्यादा की सीमा है, इसके आगे नहीं बढ़ा जा सकता। तानाशाही व्यवस्था में भी 60 या 70 साल लगेंगे और यह व्यवस्था 10, 20 या 50 मिलियन लोगों को खत्म करेगी। इस बीच अमरीका और रूस की अर्थव्यवस्थाएँ कितनी आगे बढ़ चुकी होंगी?

मैं नहीं जानता कि अगर सोशलिस्ट पार्टी सत्ता में आयी तो वह क्या करेगी। मान लीजिए उस समय देश पर शासन करने वाले ऐसे लोग हों जो वर्तमान सभ्यता के आदर्शों पर फिदा हों और रूस और अमरीका की प्रणाली को यहाँ लागू करना चाहें तो वे भी कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी की तरह ही काम करेंगे हालांकि कि वे कम्युनिस्टों के सख्ती के तरीके नहीं अपनाएंगे। शायद वे कठोर हो ही नहीं सकते और इसलिए वे कम्युनिस्टों से बेहतर सफलता प्राप्त नहीं कर पाएंगे। उनका पूँजी निवेश स्वैच्छिक श्रम देने को तैयार होगा जैसे एक घंटा दिन में।

दो-तिहाई दुनिया के जीवन-स्तर और उत्पादन साधनों को एक-तिहाई दुनिया की बराबरी में लाने के लिए सारे प्रयास बिल्कुल बेतुके होंगे। इसके प्रमाण में मैंने आँकड़े दिए हैं। पिछले 300 सालों के पूँजीवादी विकास की इस मूलभूत परिघटना को नकारना आत्मघाती होगा, खासकर एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका के देशवासियों के लिए। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद जुड़वाँ संतानें हैं। साम्राज्यवाद पूँजीवाद की अंतिम अवस्था नहीं है जैसा कि किसी ने कहा है; ये जुड़वाँ संताने हैं। दोनों एकसाथ पैदा हुए, एकसाथ बड़े हुए और एकसाथ परिपक्व हुए। पूरे मानव-इतिहास में मैंने पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से बड़ा गुंडा नहीं देखा। साथ-साथ पैदा होने, पलने और बड़े होने पर उन्होंने दुनिया की ऐसी स्थिति बना दी कि अमरीका, रूस और पश्चिमी यूरोप तो 5,000 या 10,000 रुपए के प्रतिव्यक्ति औजारों से काम करें और भारत, बर्मा, मलाया तथा अन्य देश 150 या 300 रुपए प्रतिव्यक्ति के औजारों से संतुष्ट रहें। यह है पूँजीवादी विकास और इससे साफ है कि क्रांति की रणनीति और कौशलों पर हमें नए सिरे से विचार करना पड़ेगा।

मैं यहाँ यह भी बता देना चाहता हूँ कि मार्क्सवाद की किस बात ने मुझे आकर्षित किया है। युवावस्था में मैं उसकी कुछ और बातों से भी मोहित रहा हूँगा लेकिन आज जिस एक चीज ने मुझे मोहित किया है वह है संपत्ति के मोह का त्याग। जिस किसी ने भी इस विचारधारा का ठीक अध्ययन किया और इसे अपनाया उसके मन से संपत्ति का मोह दूर होगा। यह बहुत आकर्षक पहलू है जो एक धार्मिक व्यक्ति को भी आकर्षित करती है। इसे अपरिग्रह या वैराग्य के क्षेत्र का अभ्यास भी कहा जा सकता है। संभव है, मार्क्सवाद में निष्णात और उसमें गहरी आस्था रखने वाला व्यक्ति अन्य क्षेत्रों में शैतान हो, वह धोखेबाज हो सकता है, झूठ बोल सकता है, फूहड़ अनगढ़ आचरण वाला हो सकता है, पाखंडी हो सकता है, झूठ बोल सकता है, हत्या भी कर सकता है लेकिन निजी संपत्ति का मोह उसमें नहीं होगा और यह बहुत बड़ी विशेषता है। मार्क्सवाद ने हमें धन से नफरत करना सिखाया खासकर उससे जो दूसरे व्यक्ति को नौकर बनाए। मैं इतिहास की पृष्ठभूमि में इसे मार्क्सवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि कहूँगा कि उसने आदमी को बिना किसी आत्मानुशासन या मनःस्थिति की साधना के संपत्ति के मोह से मुक्त किया।

मार्क्सवाद नचिकेता है जो सहज भाव से स्वर्ण का तिरस्कार करता है। यह विचारधारा, कविता, सौंदर्य, राजसत्ता आदि का तिरस्कार भले ही न कर सके और कौन चाहेगा कि वह ऐसा करे, किंतु इस बात में कोई संदेह नहीं कि वह स्वर्ण का तिरस्कार करता है। यह इस विचारधारा का आकर्षण है।

(जारी)


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