— योगेन्द्र यादव —
जिन्हें खालिस्तान चाहिए, जो गजवा-ए-हिंद का सपना देखते हैं या जो हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं उनके लिए भारत में कोई जगह नहीं है। यह तीनों विचार भारत के स्वधर्म के खिलाफ हैं। भारतीय गणतंत्र का मूल आधार यह मान्यता है कि यह देश प्रत्येक जाति, नस्ल, आस्था, पंथ और संप्रदाय का है जो इस देश के स्वधर्म में विश्वास करता है। भारत देश में जन्म के संयोग या आस्था के आधार पर कोई मकान मालिक और कोई किराएदार नहीं हो सकता।
सिर्फ विचार के धरातल पर देखें तो यह तीनों विचार एक जैसे हैं। तीनों संस्थागत धर्म और राज्यसत्ता को जोड़कर देखते हैं जो एक खतरनाक विचार है। तीनों देश में किसी एक संस्थागत धर्म; सिख, इस्लाम या हिंदू के अनुयायियों का बोलबाला चाहते हैं जो न केवल अन्यायपूर्ण है बल्कि असंभव भी। आज के युग में भारत जैसे देश में या देश के किसी हिस्से में किसी एक संप्रदाय का बोलबाला स्थापित करने की कोशिश करना देश में गृहयुद्ध को न्योता देना होगा जिसमें सिर्फ तबाही ही सबके हाथ लगेगी। तीनों विचार अपने विचार के पक्ष में धर्मग्रंथों की आड़ लेते हैं। तीनों विचार भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ हैं।
इस लिहाज से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कहना बिल्कुल वाजिब है कि हिंदू राष्ट्र की बात करने से खालिस्तान की मांग को शह मिलती है। अगर देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग हिंदू राष्ट्र की बात कर सकते हैं तो इससे संस्थागत धर्म पर आधारित एक संप्रदाय के बोलबाले की बात करने का रास्ता खुल जाता है। अगर कुछ लोग बहुमत के आधार पर हिंदू राष्ट्र का दावा करेंगे तो दूसरे लोग किसी एक इलाके में सिखों के बोलबाले का दावा ठोकेंगे। कोई और किसी इलाके या पूरे देश में इस्लाम या ईसाई धर्म या किसी और मत के आधिपत्य का दावा करेगा। इसके जवाब में यह कहना हास्यास्पद है कि खालिस्तान से देश का बॅंटवारा होगा, हिंदू राष्ट्र देश का बॅंटवारा नहीं करेगा। किसी भी देश में ताकतवर या बहुसंख्यक वर्ग देश के बॅंटवारे के विचार को राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनाता है।
पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाबी समुदाय द्वारा उर्दू थोपने के प्रयास ने ही पाकिस्तान का बॅंटवारा किया। श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहली समाज द्वारा अल्पसंख्यक तमिल और हिंदू लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास ने ही वहां अलगाववाद की नींव डाली। इसी तरह आज के भारत में हिन्दू राष्ट्र का आह्वान देश-तोड़क विचार है। विचार के धरातल को छोड़कर अगर राजनीति के धरातल पर देखें तो इन तीनों मांगों की कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। सच यह है कि भारत में गजवा-ए-हिंद के विचार का कोई नामलेवा ही नहीं है। भारत पर इस्लाम की फतह का विचार जरूर आज से सैकड़ों साल पहले किसी विदेशी आक्रमणकारी के मन में रहा होगा, लेकिन कालांतर में ऐसे सब विचार इस देश की मिट्टी में जज्ब हो गए।
भारत में एक औसत मुसलमान ने इस शब्द को सुना भी नहीं है, इसके सपने देखना तो दूर की बात है। देश में इस विचार का समर्थन करने वाला कोई राजनीतिक दल, आंदोलन या गुप्त संगठन तक नहीं है। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन या कश्मीर के अलगाववादी नेता भी गजवा-ए-हिन्द का नाम नहीं लेते हैं। पिछले कई साल से अल कायदा की पाकिस्तान से संचालित एक वेबसाइट इस विचार को लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद उसे भारत में कोई सफलता नहीं मिली है। अगर आप गूगल पर गजवा-ए-हिन्द को ढूंढ़ लेंगे तो उसका जिक्र केवल आरएसएस से जुड़े लिंक में पाएंगे, किसी भारतीय मुस्लिम व्यक्ति या संगठन में नहीं।
खालिस्तान के विचार के मुट्ठी भर समर्थक बहुत समय से रहे हैं और हाल ही में वारिस-ए-पंजाब के नाम से अमृतपाल सिंह द्वारा इस मांग को दोबारा उठाया गया है। सच यह है कि पंजाब का बहुसंख्यक सिख जनमानस खालिस्तान के विचार के समर्थन में कभी नहीं रहा। परंतु पंजाब की जनता पंजाब पर दिल्ली दरबार का दबदबा नहीं चाहती। वह एक संघात्मक भारत देखना चाहती है जिसमें पंजाबी अस्मिता का सम्मान हो और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा हो लेकिन वह खालिस्तान जैसे शगूफों से आजिज आ चुकी है।
पंजाब के जानकार कहते हैं कि अमृतपाल सिंह जैसे अलगाववादियों पर कार्रवाई करने में जानबूझकर देरी की गई है। अब उसके अनुयायियों पर कार्रवाई की जा रही है। लेकिन क्या ऐसी कोई कार्रवाई हिंदू राष्ट्र की बात करने वालों पर की जा रही है? गजवा-ए-हिंद की बात तो कोई करता नहीं। खालिस्तान की बात दबी जुबान में की जाती है, लेकिन हिंदू राष्ट्र के नाम पर खुलकर घोषणाएं की जाती हैं। अल्पसंख्यकों को कत्लेआम की धमकियां दी जाती हैं, सम्मेलन करके हिन्दू राष्ट्र की प्रतिज्ञा की जाती है और पुलिस प्रशासन इसे बैठे-बैठे देखता है।
यही नहीं, देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग इस विचार को आशीर्वाद देते हैं। अब आप ही सोचिए कि देश को असली खतरा खालिस्तान के विचार से है, गजवा-ए- हिंद से है या कि हिंदू राष्ट्र से? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू राष्ट्र के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए खालिस्तानियों को शह दी जा रही हो और गजवा-ए-हिंद जैसे अस्तित्वहीन फिकरों का प्रचार किया जा रहा हो। भारत में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को इन सवालों पर गंभीरता से सोचना होगा।