— शचीदानंद पाण्डेय —
“धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।” – अल्बर्ट आइंस्टीन
‘धृ‘ धातु से धर्म शब्द बना है, जिसका अर्थ है धारण करना। जो सबको धारण करे, सबको पल्लवित पुष्पित करे, वही धर्म है, अर्थात कि अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करना ही धर्म है। धारण करने के कारण ही धर्म को धर्म कहा जाता है। धर्म सीखने का नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमारे नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन के लिए धर्म एक वरणीय चीज है। धर्म एक संगठित विश्वास है। जीवन की आचार प्रणाली है। यह मनुष्य को नैतिक और आचारशास्त्रीय नियमों से बांधकर रखने के लिए लंगर का काम करता है। जैसा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है: “धर्म एक संगठित विश्वास है। जीवन की आचार प्रणाली है। मनुष्य को नैतिक और आचारशास्त्रीय नियमों से बांधकर रखने के लिए लंगर का काम करता है। (“Religion is an organized faith. It is a moral code in life- an anchorage that keeps us tied down to some moral and ethical norms and values.-“Pt Nehru)
ईश्वर, प्रकृति और समाज की त्रिसत्ता के समन्वय को प्रत्यक्ष अनुभव में धारण करना ही धर्म है। प्रकृति ही ईश्वर है। विज्ञान ही सत्य है। इंसानियत ही धर्म है। कर्म ही पूजा है। मानवता ही श्रेष्ठ धर्म है। मानव मात्र की सहायता सर्वोपरि धर्म है। धर्म के बगैर विज्ञान और
विज्ञान के बगैर धर्म अधूरा है। धर्म और विज्ञान के एक-दूसरे से जुड़ने के बाद ही पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। दोनों को एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही मनुष्य के लिए जरूरी हैं।
*धर्म मनुष्य को भीतर से सुंदर बनाता है और विज्ञान बाहर से।* इस तरह दोनों का विवेकपूर्ण तालमेल मनुष्य को हर प्रकार से सुंदर बना सकता है और मानवता का कल्याण कर सकता है। धर्म और विज्ञान का समन्वय आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां धर्म आ जाता है, वहां विज्ञान की आवश्यकता कम हो जाती है और जहां विज्ञान की मात्रा बढ़ जाती है वहां धर्म को अपना स्थान छोड़ना पड़ता है।
भारत में धर्म और विज्ञान का परस्पर तालमेल रहा है। वेद, वेदांग, उपनिषद् ,दर्शन आदि सभी धर्मग्रंथों में विज्ञान पिरोया हुआ है। भारत के ऋषि-मुनियों ने विज्ञान को न केवल धर्म के साथ जोड़ा, बल्कि इसके व्यावहारिक ज्ञान के बारे में भी बतलाया। उनका मानना था कि : *यदि विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से मनुष्य के कल्याण में लगाया जाए तो यह धर्म बन जाता है। विज्ञान और धर्म दोनों का ही उद्देश्य मानव जाति का कल्याण करना ही है। जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से अध्यात्म आरंभ होता है। धर्म का निर्माण मनुष्यों को इंसान बनाने के लिए हुआ है। मनुष्य का अच्छा बना रहना ही उसका जीवन है, उसका धर्म है, उसका भगवान है। इसलिये सदा सच्चा -अच्छा इंसान बना रहना चाहिए।
हालांकि वर्तमान में समाज का एक वर्ग विज्ञान को चमत्कार और धर्म को आडंबर समझने लगा है, उसका मानना है कि विज्ञान और धर्म साथ-साथ नहीं रह सकते। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि विज्ञान और धर्म दोनों का ही उद्देश्य मानव जाति का कल्याण करना ही है, तब दोनों एक-दूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं ? यह अकारण ही नहीं है कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि धर्म के बगैर विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बगैर धर्म अंधाल है। स्वामी विवेकानंद ने तो यहां तक कहा है कि जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से अध्यात्म आरंभ होता है। यह सच है कि दोनों के स्वरूप और कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न हैं और वे एक-दूसरे पर आधारित नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि एक-दूसरे के समर्थन के बिना दोनों की उपयोगिता में कमी आ जाएगी। मनुष्य के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही अलग-अलग स्तर पर आवश्यक हैं। ये दोनों एक-दूसरे को अधिक उपयोगी बनाने में सहायक हो सकते हैं। इन दोनों के बीच जितना अधिक सहयोग और आदान-प्रदान होगा, इनकी उपयोगिता उतनी बढ़ती जाएगी।
>राम का ‘सत्य’, कृष्ण की ‘मैत्री’, बुद्ध की ‘करुणा’, ईसा मसीह का ‘प्रेम’, मुहम्मद साहब का ‘रहम’, महावीर का ‘अपरिग्रह’ आदि ही सभी धर्मों के मर्म, सार और सारांश हैं। सत्यता, शुद्धाचरण, सदाचार, सदिच्छा, सदकामना, सद्भाव, सहानुभूति, परानुभूति, सहिष्णुता, उच्चाशयता, अहिंसा, दया, करुणा, नि:स्वार्थता, विचारशीलता, विवेकशीलता ही सही मायने में सभी धर्मौं की मूल आत्मा हैं। अर्थात कि, पशुत्व छोड़कर, मनुष्यत्व को धारण करना, सच्चा आदमी बनकर अपनी अच्छाई और पुण्यता में जीना ही असली धर्म है। धर्म जोड़ता है। एक दूसरे का सम्मान करना सिखाता है, अहम की परिधि तोड़ कर व्यष्टि को समष्टि की ओर ले जाता है। धर्म शांति और सौहार्द्र की ताकत है। धर्म आपसी अनबन नहीं, बल्कि एकता का स्रोत है,- “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”।
धर्म ने मनुष्य में एक सामाजिक चेतना पैदा की है। यह शांति और सौहार्द्र की ताकत है। धर्म आपसी अनबन नहीं, बल्कि एकता का स्रोत है। वास्तविक धर्म का तकाजा है: “मनुष्य को मनुष्य समझना। हमारा मनुष्य होना हिन्दु , मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई होने से अधिक महत्वपूर्ण है। हमारा साथ होना हमारे सह-अस्तित्व को अर्थपूर्ण बनाता है।
हमारे जिस आचरण से, कार्य से परिवार, समाज और राष्ट्र का हित हो, सबकी भलाई हो मानवता का कल्याण हो, वही धर्म है। धर्म एक जीवन शैली है। यह मनुष्य को जीने के तरीके सिखाता है, उन्हें मर्यादित करके पृथ्वी के अन्य जीव जानवरों से अलग बनाता है और रिश्तों की मर्यादा सिखाता है। धर्म का निर्माण मनुष्यों को इंसान बनाने के लिए हुआ है। मनुष्य का अच्छा बना रहना ही उसका जीवन है, उसका धर्म है, उसका भगवान है। इसलिये सदा सच्चा -अच्छा इंसान बना रहना चाहिए।
लेकिन कैसी विडम्बना है कि मनुष्य की विवेकहीन आस्थाओं और भावनाओं ने पत्थर को भगवान और ईंट – गारे की सरंचना को मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च और सिनागॉग बना दिया है। इतना ही नहीं, स्वघोषित धर्म गुरुओं, महंतों, साधु- संतों, बाबाओं ने धर्म को अपने स्वार्थ के लिए हाइजैक कर लिया नंहै।
अब धर्म को आस्था और आचरण के प्रतीक की जगह राजनीति और सत्ता प्राप्ति का साधन बना दिया गया है। धर्म एक धंधा बनकर रह गया है- धुरंधर धूर्तो और शातिर ठगों का अड्डा बना हुआ है। धर्म के निर्मल सागर में आशाराम, राम रहीम, बागेश्वर धाम, राधे मां जैसे एक से एक बीहड़ और खूंखार मगरमच्छ पड़े हुए हैं जो समाज में अंधविश्वास और गंदगी फैला रहे हैं। धर्मध्वजी लोग चमत्कारों के काल्पनिक किस्से गढ़कर, आक्रामक विज्ञापन अभियान चलाकर पहले तो उसकी ब्रांडिंग करते हैं और फिर उसपर आस्था और विश्वास का मुलम्मा चढ़ाकर पीतल को खरे सोने में तब्दील करने में एक दिन जब पूरी तरह कामयाब हो जाते है तो वे लोगों की अंधभक्ति और श्रद्धा का आर्थिक दोहन करने में जुट जाते हैं।
हमारे वक्त की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि लोगों ने धर्म को धंधा बना लिया है और धर्म ने लोगों को अंधा बना दिया है! धर्म एक षड्यंत्र है। आम आदमी धर्म को सच्चा, बुद्धिजीवी धर्म को गलत, पूंजीपति धर्म को लाभदायक, पुरोहित धर्म को व्यापार और शासक धर्म को शासन चलाने का “हथियार” समझता है। वस्तुत: धर्म का पाखण्ड गरीबों के विरुद्ध एक “षड्यंत्र” है।
धर्म का धंधा करने वाले अपने न्यस्त स्वार्थ के लिए सत्ता के लिए, दौलत के लिए इसके विपरीत आचरण करते हैं। धर्म को बहुधा शोषण का हथियार बना दिया जाता है। दुनिया में धर्म का जिस रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, उसने दुनिया का सत्यानाश करके ही रख दिया है। हमारे वक्त की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि लोगों ने धर्म को धंधा बना लिया है और धर्म ने लोगों को अंधा बना दिया है! आम आदमी धर्म को सच्चा, बुद्धिजीवी धर्म को गलत, पूंजीपति धर्म को लाभदायक, पुरोहित धर्म को व्यापार और शासक धर्म को शासन चलाने का “हथियार” समझता है। वस्तुत: धर्म का पाखंड गरीबों के विरुद्ध एक षड्यंत्र है।
धर्म आस्था और आचरण का प्रतीक है, न कि राजनीति और सत्ता प्राप्ति का साधन। धर्म के दो अविभाज्य और अमूल्य पहलू हैं: आस्था और उसकी नैतिकता। यदि आस्था / विश्वास के साथ धर्म की नैतिकता का पालन किया जाए तो यह मानवता के लिए सबसे कीमती उपहार है। यदि कोई समुदाय अपनी नैतिकता के बिना आस्था / विश्वास का अनुसरण करता है तो वह अमानुषों के समुदाय में परिवर्तित हो जाता है।
धर्म के बगैर विज्ञान और विज्ञान के बगैर धर्म अधूरा है। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे से जुड़ने के बाद ही पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। दोनों को एक दूसरे का पूरक हैं और दोनों ही मनुष्य के लिए जरूरी हैं। धर्म मनुष्य को भीतर से सुंदर बनाता है और विज्ञान बाहर से। इस तरह दोनों का विवेकपूर्ण तालमेल मनुष्य को हर प्रकार से सुंदर बना सकता है और मानवता का कल्याण कर सकता है। धर्म और विज्ञान का समन्वय आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां धर्म आ जाता है, वहां विज्ञान की आवश्यकता कम हो जाती है और जहां विज्ञान की मात्रा बढ़ जाती है वहां धर्म को अपना स्थान छोड़ना पड़ता है।
भारतीय मनीषियों ने धर्म की सर्वकालिक व्यापक व्याख्या की। युगों से जनसामान्य के लिए “धर्म न दूसर सत्य समाना”, आचारः परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः, धर्मो रक्षति रक्षतः” जीवन के मुख्य कारक रहे हैं। भारत में धर्म और विज्ञान का परस्पर तालमेल रहा है। वेद, वेदांग, उपनिषद् आदि सभी धर्मग्रंथों में विज्ञान पिरोया हुआ है। भारत के ऋषि-मुनियों ने विज्ञान को न केवल धर्म के साथ जोड़ा, बल्कि इसके व्यावहारिक ज्ञान के बारे में भी बतलाया। उनका मानना था कि यदि विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से मनुष्य के कल्याण में लगाया जाए तो यह धर्म बन जाता है। हालांकि वर्तमान में समाज का एक वर्ग विज्ञान को चमत्कार और धर्म को आडंबर समझने लगा है, उसका मानना है कि विज्ञान और धर्म साथ-साथ नहीं रह सकते। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि विज्ञान और धर्म दोनों का ही उद्देश्य मानव जाति का कल्याण करना ही है, तब दोनों एक-दूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं ? यह अकारण ही नहीं है कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि धर्म के बगैर विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बगैर धर्म अंधा है। स्वामी विवेकानंद ने तो यहां तक कहा है कि जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से अध्यात्म आरंभ होता है। यह सच है कि दोनों के स्वरूप और कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न हैं और वे एक-दूसरे पर आधारित नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि एक-दूसरे के समर्थन के बिना दोनों की उपयोगिता में कमी आ जाएगी। मनुष्य के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही अलग-अलग स्तर पर आवश्यक हैं। ये दोनों एक-दूसरे को अधिक उपयोगी बनाने में सहायक हो सकते हैं। इन दोनों के बीच जितना अधिक सहयोग और आदान-प्रदान होगा, इनकी उपयोगिता उतनी बढ़ती जाएगी।
“प्रकृति” ही “ईश्वर” है, “विज्ञान” ही “सत्य” है,”इंसानियत ” ही “धर्म” है और “कर्म” ही “पूजा” है।
“गरीबी” का मूल कारण “अंधविश्वास”,”धर्म”,”जाति” “ईश्वर”, “अल्लाह” और “राजनीति”है…।
“गरीबी” से छुटकारा केवल “ज्ञान” और “विज्ञान” ही दिला सकता है….।।
अस्पताल ही मंदिर है, डाक्टर ही देवता है, नर्स ही देवी है, दवा ही मंत्र है। सेना और पुलिस ही हनुमान है, शिक्षा ही हथियार है। शिक्षक ही गुरु है,इंसानियत ही धर्म है और प्रकृति ही परमात्मा है।
यूनानी दार्शनिक एपीक्यूरस ने ईश्वर के बारे में कहा था :
“क्या ईश्वर बुराई रोकने को इच्छुक है लेकिन समर्थ नहीं?
तब वह सर्वशक्तिमान नहीं है।
क्या वह समर्थ है लेकिन इच्छुक नहीं है? तब वह दुष्ट है।
क्या वह समर्थ है और इच्छुक भी है? तब बुराई कहाँ से आती है?
क्या वह न समर्थ है और न इच्छुक है? तब उसे ईश्वर क्यों कहा जाए?”