एनसीईआरटी की किताबों में बदलाव : संघ परिवार का लोकतंत्र पर नया हमला

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कार्टून साभार


— अनिल सिन्हा —

नसीईआरटी ने अपनी किताबों को बदल दिया है। उसने कई ऐसे बदलाव किए हैं जिसे अंग्रेजों ने भी करना चाहा।  इतिहास की किताबों में किए गए इन बदलावों में सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला बदलाव मुगलों को सिलेबस से बाहर करने का है। गांधी के हत्यारे गोडसे की जाति का उल्लेख तथा बापू की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध की जानकारी हटाना भी वर्तमान राजनीति के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि गांधी की हत्या से जुड़े बदलाव उसने चुपचाप कर दिए थे। लोगों को पता चला तो स्वीकार किया।

इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि इतिहास का पाठ सत्ता की जरूरतोें के हिसाब से बनाया जाता है। अंग्रेजों के समय में भी इतिहास की किताबों में ब्रिटिश गवर्नर जनरलों और वायसरायों के बारे में विस्तार से बताया जाता था। ब्रिटेन के संसदीय इतिहास के बारे में भी ज्यादा पढ़ाया जाता था। लेकिन अपनी जाहिर नफरत के बावजूद उन्होंने ही भारतीयों को मुगल साम्राज्य के बारे में बताया। उन्होंने ही अकबर और शेरशाह के बारे में बताया। उन्होंने 1857 के भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सिपाही विद्रोह बताया, लेकिन इसकी तफसील भी उन्होंने रखी। उनके ही माध्यम से मंगल पांडे से लेकर रानी लक्ष्मीबाई और बहादुर शाह जफर की भूमिकाओं से हमारा परिचय हुआ।

अंग्रेजों के शासनकाल में ही इतिहासकारों का वह समूह पैदा हुआ जिन्हें हम राष्ट्रवादी इतिहासकार के रूप में जानते हैं। इन इतिहासकारों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में इतिहास लिखने का मौका दिया गया। उन्हें भारत में ब्रिटिश राज की समीक्षा की छूट तक दी गई। यह जरूर है कि अंग्रेजों को जब भी यह लगा कि किसी किताब से उनके खिलाफ विद्रोह हो सकता है तो उन्होंने बेहद सख्ती दिखाई। लेकिन मानना चाहिए कि ज्ञान के विस्तार के लिए उन्होंने जरूरी स्वतंत्रता दी और इसका माहौल बनाया।

उपनिवेशवाद को जिंदा रखने वाली शिक्षा प्रणाली का मूल स्वर अंग्रेेज समर्थक था। लेकिन भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य भी उनके दौर में रचे गए। इस विशाल सामग्री के मुकाबले अंग्रेजों की ओर से प्रतिबंधित साहित्य की संख्या नगण्य है।

जब हम रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, विभूतिभूषण बंदोपाध्याय, प्रेमचंद, निराला से लेकर वीएस खांडेकर और फकीरमोहन सेनापति जैसे साहित्यकारों को देखते हैं तो अंदाजा होता है कि अभिव्यक्ति की सीमित स्वतंत्रता भी किसी समाज के सांस्कृतिक उत्थान में कितनी बड़ी भूमिका निभाती है। ज्ञान के प्रसार में अंग्रेजों की इस दिलचस्पी का एकमात्र कारण लोकतंत्र और उदारवाद में उनका विश्वास था।

अभिव्यक्ति और ज्ञान अर्जित करने की स्वतंत्रता पर औपनिवेशिक काल की पाबंदियां आजादी के बाद पूरी तरह हटा दी गईं। संविधान ने विचारों को अपनाने तथा उन्हें प्रसारित करने का पूरा अधिकार दिया। शिक्षण संस्थानों को पूरी स्वतंत्रता दी गई कि वे शैक्षणिक योग्यता के आधार पर जिसे चाहे बहाल करें। विश्वास, विचार, क्षेत्र या भाषा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव को नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया। यही वजह है कि हम पाते हैं कि एक ओर नक्सलवाद तथा माओवाद के समर्थकों को भी शिक्षण संस्थानों में जगह मिली तो दूसरी कट्टर हिंदुत्ववादियों को भी। कांग्रेस ने विचारों की विविधता में स्वतंत्रता आंदोलन के विश्वास को कमोबेश जारी रखा।

ज्ञान के क्षेत्र में मिलने वाली इस स्वतंत्रता का स्वरूप समझे बिना हम एनसीईआरटी के सिलेबस संबंधी बदलाव को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख सकते। यह स्वतंत्रता इंदिरा गांधी ने आपातकाल में छीन ली थी। लेकिन उनके इस कदम के चरित्र को समझना चाहिए। एक तो श्रीमती गांधी ने पढ़ने-पढ़ाने को लेकर शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता के साथ छेड़छाड़ की कोशिश नहीं की। अखबारों की स्वतंत्रता उन्होंने जरूर छीन ली थी। लेकिन वह वैसी स्थिति में नहीं थीं कि सूचनाओं के प्रचार-प्रसार पर पूरी पाबंदी तरह लगा सकें। काफी कुछ ऐसा था जो सरकार के नियंत्रण से बाहर था। दुष्यंत कुमार का गजल-संग्रह ‘साये में धूप’ है। यह किताब आपात-काल के दौर में आई थी और देखते-देखते इसकी हर गजल लोकप्रिय हो गई। प्रतिरोध की आवाज बनी इन गजलों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया।

हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि इंदिरा गाधी की ओर से लादी गई तानाशाही व्यक्तिगत सत्ता बचाने के लिए थी। उनका और उनकी पार्टी का संविधान और संसदीय प्रणाली से कोई विरोध नहीं था। विचारधारा के स्तर पर भी वह लोकतंत्र, सेकुलरिज्म और समाजवाद में यकीन करती थीं।

अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते समय मौजूदा दौर में पत्रकारों और स्वतंत्र विचार रखने वाले नागरिकों की आवाज बंद करने की कोशिशों की चर्चा आवश्यक है। हम जानते हैं कि सत्ता से सवाल पूछने वाले पत्रकारों को जेल भुगतना पड़ रहा है। द वायर और न्यूजक्लिक जैसे डिजिटल माध्यम के पत्रकारीय संस्थानों पर सरकारी एजेंसियों ने छापे डाले। गुजरात में कोविड से हुई मौतों को छिपाने की कोशिशों को लोगों के सामने लाने वाले अखबार ‘दिव्य भास्कर’ को निकालने वाले ‘भास्कर’ समूह पर आयकर के छापे पड़ गए और अखबार ने बिना देर लगाए अपने बागी तेवर छोड़ दिए।

सरकार ने अब तो हद ही कर दी है। इसने सूचना व प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत काम करने वाले प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो (पीबीआई) को फेक न्यूज(फर्जी खबर) की जांच करने का अधिकार दे दिया है। अब पीबीआई के कहने से सरकार विरोधी खबर प्रसारित-प्रकाशित करने वाले व्यक्ति या समूह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है। गलत खबरों को लेकर शिकायत सुनने तथा फैसला देने का काम प्रेस कौंसिल आफ इंडिया का है। यह सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज के तहत काम करती हैै। इस संस्था को कोई सजा देने का अधिकार नहीं है। यह एक अर्ध-न्यायिक संस्था है जो प्रेस की स्वतंत्रता और प्रेस के उच्च मानकोें को बनाए रखने का काम करती है। इसे मजबूत करने के बदले सरकार ने सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये हैं।

मोदी सरकार के नए फैसले के बाद अब सरकार ही तय करेगी कि कौन सी खबर फर्जी है। इस काम का जिम्मा जिस प्रेस इंफार्मेशन ब्यूरो को दिया गया है, उसका काम सरकारी सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाना है। वह एक तरह का पब्लिसिटी विभाग है। उसका काम सरकार का प्रचार करना है। जाहिर है कि वह सरकार विरोधी खबरों को रोक देगी।

ऐतिहासिक तथ्यों को लोगों के सामने आने से तथा नई पीढ़ी तक जाने से रोकने का एनसीईआरटी का कदम और फेक न्यूज रोकने के बहाने सेंसरशिप लागू करने का फैसला इसी समय क्यों आया यह समझने की जरूरत है। इसका सीधा ताल्लुक देश की राजनीति में तेजी से हो रहे बदलावों से है। पिछले नौ सालों में सरकार ने गोदी मीडिया, भाजपा के आईटी सेल तथा संघ परिवार के विशाल अफवाह-तंत्र के जरिए कांग्रेस तथा देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बदनाम करने का व्यापक अभियान चलाया। उनके अभियान में गांधी-नेहरू के विचारों से टकराने की बहुत कम कोशिश थी। गलत तथ्यों पर आधारित इस अभियान का मुख्य जोर उनकी चरित्र-हत्या पर था। यही काम उन्होंने मुगलों तथा मुसलमानों के खिलाफ किया। उन्होंने गांधी के खिलाफ सावरकर को खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन इस अभियान का वैसा नतीजा सामने नहीं आया जैसा वे चाहते थे। इसलिए उन्हें किताब के पन्नों से इतिहास की सच्चाइयों को मिटाने का फैसला करना पड़ा।

एनसीईआरटी की किताबों से निकाले गए तथ्यों की सूची पर गौर करने पर पता चलता है कि हिंदू राष्ट्र के खाके के अनुसार इतिहास गढ़ने की कोशिश की जा रही है। बाहर निकाले गए विषय हैं- मुगल राजाओं तथा दरबार का इतिहास (सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदी), आजाद भारत में एक पार्टी का वर्चस्व, लोकतंत्र और विविधता, लोकतंत्र की चुनौतियां, अमेरिका का दबदबा, शीतयुद्ध का दौर, औद्योगिक क्रांति और संस्कृतियों का टकराव।

संघ परिवार कहता रहा है कि देश आठ सौ वर्षों तक गुलाम रहा है। इसमें दिल्ली सल्तनत के तीन सौ साल को छोड़ देें तो बाकी काल मुगलों तथा अंग्रेजों का काल है। सल्तनत के इतिहास को कमतर बताने का काम तो वह करता ही रहता है। उसकी कठिनाई मुगलों से ज्यादा है क्योंकि देश के भाषा-साहित्य से लेकर अर्थव्यवस्था तक उनका प्रभाव है। मुगलों ने देश की अर्थव्यवस्था को दुनिया में नंबर एक बना दिया था। हमारा जीडीपी दुनिया की जीडीपी का 25 प्रतिशत था। इसी के आसपास चीन की जीडीपी थी। हम जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं, वह मुगलों के समय में मुकम्मल हुई। स्थापत्य या संगीत में जो कुछ हमने मुगलों के नेतृत्व में हासिल किया वह आज भी हमारी आंखों के सामने लहराता है और कानों में गूंजता है। यूरोप जब कैथोलिकों आर प्रोटेस्टेंटों के बीच धर्मयुद्ध में भिड़ा था, अकबर आगरा में विभिन्न धर्मों के गुरुओं के बीच संवाद चला रहा था ताकि एक समन्वयकारी सोच विकसित हो सके। इसी की कड़ी में हम दारा शिकोह को पाते हैं जिसने उपनिषदों का अनुवाद किया और सूफी मत तथा वैदिक दर्शन को जोड़ने के रूहानी काम में लगा था।

इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इतिहास के साथ मुगलों के इतिहास को मिटाने की इस कोशश में वे महाराणा प्रताप तथा छत्रपति शिवाजी के साथ क्या अन्याय करेंगे। आखिरकार अकबर के बगैर महाराणा प्रताप और औरंगजेब के बिना शिवाजी की क्या कहानी होगी?

मुगल इतिहास के साथ आरएसएस के बैर के पीछे सिर्फ उनका मुस्लिम द्वेष नहीं है। इसमें आरएसएस तथा हिंदू महासभा की वह दृष्टि भी है जो उन्होंने ब्रिटिश शासकों, जर्मनी तथा इटली के नाजियों से पायी है। भारत पर नियंत्रण करने में अंग्रेजों को सबसे बड़ी बाधा मुगलों के प्रति देश के लोगों की वफादारी से आ रही थी। दिल्ली में खड़ा लाल किला और आगरा का ताजमहल भारतीयों को एक खोए वैभव की याद दिलाता था तो तानसेन का संगीत तथा दरबार में पले-बढे़ कत्थक नृत्य की झंकार उनकी कानों में गूंजती रहती थी। यह वफादारी कितना असरदार थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1857 में अंग्रेजों से लोहा ले रहे सिपाही सदारत का आग्रह करने दिल्ली के तख्त पर बैैठे एक बूढे तथा बीमार मुगल के पास पहुंच गए। हिंदुत्ववादी चिंतन अंग्रेजों की गुलामी को मुगलों की गुलमाी से बेेहतर बताना चाहता है।

इसका दूसरा कारण है कि नाजीवादी संघ परिवार को मुसलमानों को अपना दुश्मन बनाए रखना है। बिना दुश्मन के फासीवादी विचार पनप नहीं सकते। यहूदी नहीं होते तो हिटलर भी नहीं होता। मुसलमान न हों तो आरएसएस भी नहीं रहेगा।

लेकिन यह आखिरी हमला नहीं है। संघ परिवार का फासीवादी एजेंडा और अनेक रूपों में सामने आएगा।


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