1. उस भुवनमोहिनी को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
खुरपी-हँसुआ लिये सुस्ताती खेत की मेंड़ पर
तब भी फसल की खर-पतवार बीनती है
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
ईंट-भट्ठे पर जलती कोयला बन कर
और वसंत के आने के पूर्व राख बन बिखर जाती
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
सुबह की गाड़ी धरने के लिए
प्लेटफार्म ही जिसका रोज रात का बिछौना
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
कालीघाट की टेढ़ी-मेढ़ी सँकरी गलियों और
आदिगंगा के ऊपर बने पुल पर
सुबह-सुबह किसी ग्राहक को ढूँढ़ती
पिछली रात भी उसे नहीं मिला था
कोई अधबुढ़, गँवार ग्राहक भी
जिसकी जवानी अब मात्र मेकअप, लिपस्टिक के भरोसे
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
पत्थरों को सिलबट्टे का आकार देते,
जवानी के दिनों में सड़क किनारे पत्थर हो जाने वाली
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
उस स्त्री को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र
जिसने कभी किया नहीं प्रेम
लिखा नहीं प्रेम-पत्र इस भुवन में।
2. विलाप
अब तुम कहोगे मर रही हैं नदियाँ
विलुप्त हो रहे तालाब, कुएँ, वन, पशु-पक्षी
कट रहे जंगल और संताप से भरे खड़े हैं पहाड़
शाम को शहर के न्यू-मार्केट में उमड़ी
यह ठसा-ठस भीड़
लोगों की नहीं, धनपशुओं की है
और यह समाज पाउडर-क्रीम लगाया
बजबजाता हुआ सूअर का खोभाड़ है
अब तुम कहोगे, देखो न!
शहर के इने-गिने, नामी-गिरामी बुद्धिजीवी
अलग-अलग विषयों पर छाँट रहे व्याख्यान
उनमें एक से बढ़ कर एक मोटे-ताजे सत्ता के जोंक
अपनी सुविधा के लिहाज से
चुन लिये हैं पक्ष-प्रतिपक्ष
वो भी सिर्फ दिन भर के लिए
रात को आ जाते अपने-अपने बिल में
अब तुम कहोगे कितना निर्लज्ज और क्रूर समय है
कि स्टेशन के पीछे खड़ी रहने वाली चार-पाँच वेश्याएँ
एक-दूसरे को फूटी आँखों न सुहाने पर भी
इन दिनों खौफ से बहनापा निभाते
रहने लगी हैं साथ-साथ
अब तुम कहोगे, मुक्त व्यापार के साथ
इस देश में सब कुछ होता जा रहा मुक्त
वहीं विचारों पर क्यों पसरती जा रही घास-पात
एक अघोषित समझदारी विकसित हो गई है
और फिर कहोगे
हम लोग कर ही क्या सकते हैं!
पहली बार नदियों के सूखने
बजबजाते सूअर के खोभाड़
और उन वेश्याओं के नकली बहनापे से
बुरा लग रहा, तुम्हारा विलाप।
3. भगदड़ में छूटी हुई चप्पलें
भगदड़ में छूटी हुई चप्पलें
कैसी होती हैं अभागिन
उन चप्पलों से पूछे कोई!
किसी बच्चे की मासूम, तुतलाती चप्पल
किसी तरुणी की मोहक, चमचमाती चप्पल
किसी बूढ़े की थकी, उदास चप्पल
सबकी अपनी कथा सबकी अपनी व्यथा
सभी को अपने पैर की तलाश
मगर मिलता है कौन, भगदड़ के बाद
निरीह, मूक, लाचार ये चप्पलें, कभी मिल नहीं पातीं
अपनी ही जोड़ीदार चप्पलों से
बेसहारा इन चप्पलों में अब नहीं होगी कभी पाँलिस
न पोंछा ही जाएगा कभी कपड़े या ब्रश से
न उन्हें नसीब होगी किसी की चौखट
और न किसी का पैर
बेकाम, बेवजह की इन चप्पलों को
सड़ना और गलना ही होगा किसी सड़क किनारे
कूड़ा बन किसी कूड़े के ढ़ेर में
मरना ही होगा
माताएँ रोएंगी पुत्र के लिए
पुत्र, पिता के लिए
प्रेमिकाऍं , प्रेमियों के लिए
और पत्नियाँ, पतियों के लिए
पर कोई नहीं रोएगा
भगदड़ में छूटी हुई इन चप्पलों के लिए।
4. बसमतिया बोली
बसमतिया बोली, सुनो कवि जी
कविता में तनिक धूप, धूल, मिट्टी भी मिलाओ
बहुत हुई शब्दों की खेती
कविता हो रही ऊसर
अब अपने अंतःपुर से बाहर
हम्मर गाँव भी आओ
कवि-कर्म वैसा ही जैसे
बढ़ई, किसान, लोहार का
अब गाछ पर बैठना छोड़
भुइयाँ उतर आओ
बसमतिया बोली, सुनो कवि जी
हम भी बाँचें तुम्हारी कविता
उसे अईसा बनाओ।

5. हमने बचाया
हमने अपने समय में
बड़े से बड़ा काम भाषा में किया
भाषा में क्रांतिकारी बने
भाषा में देशभक्त
हुए भाषा में सभ्य
जो पीछे छूट गए थे उनसे किया भाषा में न्याय
किया भाषा में अन्याय का प्रतिकार
यहाँ तक कि, प्रेम भी किया तो भाषा में ही
दरअसल, हमारे समय में अपने को
माँज रहे थे सभी भाषा में ही
और हम हो गए थे इतने निपुण, कलावंत
कि भरने लगे थे रंग, वर्तमान से भविष्य तक में
भाषा से ही
हमारे समय में भाषा उस उरूज का कर रही थी स्पर्श
कि एड़ी उचकाएं तो ठेक जाए उँगली आकाश
हम बचा रहे थे भाषा में ही
अपनी मर रही दुनिया को।
6. हँसिए
जब बारिश की बूँदों की तरह
टप-टप टपकती हैं
इन दिनों, बुरे दिनों की खबरें
मैंने देखी एक सुबह
अखबार के पहले पन्ने के सबसे ऊपर के एक कोने में
छपी एक खबर कि
इस दुनिया में सिर्फ आदमी को हासिल यह सौभाग्य
कि वह हँस सकता है
बेइंतहा खुशी की इस खबर को
अगर आपने पढ़ा नहीं
तो अब पढ़िए और हँसिए।

7. पधारिए हम्मर गाँव
खुरपी और हँसुए से भी तेज है बोली
पता नहीं, कब, किस बात पर
चल जाए लाठी-गोली
दरिद्रता में भी हठी बेजोड़
एक कट्ठा खेत में भी डाली जाती
कितनी राजनीति की खाद
कभी जानना हो
तो पधारिए हम्मर गाँव।
8. रसप्रिया (रेणु की कहानी रसप्रिया को पढ़ते हुए)
असमाप्त ही रह जाती है रसपिरिया की कथा
यह कथा है कि है मिरदंगिया की हूक
जब-जब उठती है तो झरते हैं तरूवर पात
चिरई-चुरूँग तक हो जाते मूक
मिरदंगिया के अश्रुजल से नम होती धरती
कि देख न मोहना!
आ गया कैसा कठकरेज वक्त
कि पहले रिमझिम वर्षा में लोग गाते थे बारहमासा
चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर, लगनी
अब तो भूलने लगी है कूकना कोयल भी
समय कितना कसैला, आदमी कितना रसहीन हो गया
रे मोहना!
पंचकौड़ी मिरदंगिया को पता होगा जरूर
अगर परमात्मा कहीं होगा तो होगा रस-रूप ही
तभी तो टेढ़ी उँगली लिये
बजाता रहा आजीवन मृदंग
और इस मृदंग के साथ गाता रहा रसपिरिया
होता रहा रससिक्त
भौचक है मोहना
कि एक तरफ कहती है माँ
मिरदंगिया को झूठा, बेईमान फरेबी
ऐसे लोगों से हेलमेल ठीक नहीं बेटा
दूसरी तरफ पूछती है बार-बार लजाकर
कि कुछ कहो न मोहना
क्या कह रहा था मिरदंगिया उस दिन तुमसे एकांत में
इस बेसुरे, बेरंग समय में
ऐसे अपरूप प्रेम की कथा को बाँच
आजीवन मिरदंगिया की तरह
जो मैं रसपिरिया सुनाता
कैसा बड़भागी होता!
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‘उस भुवनमोहिनी को लिखना चाहता हूँ प्रेम-पत्र’-हिंदी में ऐसी कविता शायद ही लिखी गई है।
राजकिशोर राजन को बधाई।