— योगेन्द्र यादव —
हाल ही में एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में हेरफेर पर हुआ विवाद एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। क्या भारत को लोकतंत्र की जननी साबित करने को लालायित यह सरकार कहीं भारत को लोकतंत्र की हत्या के नए मॉडल की जननी तो साबित नहीं कर रही? पाठ्य पुस्तकों में जिस तरीके से, जिस प्रकार की और जिस नीयत से काट-छांट की गई है, कम से कम वह तो इसी अंदेशे को पुष्टि करती है। राजनीति शास्त्र की किताबों में जो हेरफेर की गई है वह भारतीय लोकतंत्र के गिरते आत्मविश्वास की निशानी है।
यहाँ मैं राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों के बदलाव पर विशेष ध्यान दे रहा हूंँ। इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के बदलाव पर सबका ध्यान गया है और इतिहासकार काफी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। एनसीईआरटी की ही राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों में हुए बदलाव पर इतनी चर्चा नहीं हुई है। मुझे इसमें विशेष दिलचस्पी इसलिए भी है कि प्रोफेसर सुहास पलशिकर और मुझे कक्षा 9, 10, 11 और 12 की राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों के मुख्य सलाहकार की जिम्मेदारी दी गई थी।
मैंने जीवन के दो वर्ष यही सोचने में लगाए थे कि भारतीय लोकतंत्र की आने वाली पीढ़ी को लोकतंत्र के बारे में कैसे शिक्षा-दीक्षा दी जाए, विद्यार्थियों की राजनीति में कैसे रुचि जगाई जाए, कैसे हमारी पाठ्यपुस्तकें लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्य की वाहक बनें, न कि किसी सत्ताधारी पार्टी या विचारधारा की। कम से कम राजनीतिशास्त्र के बारे में तो मैं विश्वास से कह सकता हूंँ कि इन पाठ्यपुस्तकों में राजनीतिक निष्पक्षता का पालन करते हुए ऐसे तमाम सच बताए गए थे जो तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के लिए तकलीफदेह थे। बारहवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में तो एक पूरे अध्याय में एमरजेंसी का कच्चा चिट्ठा खोला गया था।
पहली बार भारतीय जनसंघ को पाठ्यपुस्तक में जगह मिली थी तो नक्सली आंदोलन को भी। अगर गुजरात दंगों में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा का जिक्र था तो 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम का भी। ये पाठ्यपुस्तकें इस विश्वास के साथ लिखी गई थीं कि एक स्वस्थ और आत्मविश्वास से भरा लोकतंत्र अपने उजले और स्याह दोनों पक्षों पर बात कर सकता है, सत्ताधारी ताकतों और विचारों के अलावा विरोधी ताकतों और विचारों को भी जगह दे सकता है।
इन पाठ्यपुस्तकों में पिछले कई वर्षों से चल रही काट-छांट ने आत्मविश्वास से भरे लोकतंत्र के मुॅंह को टेढ़ा कर दिया है।
पिछले हफ्ते इंडियन एक्सप्रेस ने खुलासा किया कि एनसीईआरटी ने पहले से घोषित कई बदलावों के अलावा अघोषित रूप से भी इन पुस्तकों में काफी हेरफेर की है। मसलन राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों में इस तथ्य को गायब कर दिया गया है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बैन लगा दिया था। अगर इस छोटी चोरी को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो पाठ्यपुस्तकों में बदलाव की प्रक्रिया के बारे में गहरा सवाल यह उठता है कि बिना इन पाठ्यपुस्तकों के लेखकों से राय-मशविरा किए इनमें बड़े बदलाव करना न्यायोचित है?
हालांकि आज भी इन पाठ्यपुस्तकों में मेरा नाम मुख्य सलाहकार के रूप में छपता है लेकिन पिछले 9 वर्ष में किसी ने मुझसे या पाठ्यपुस्तक समिति के अन्य सदस्यों और सलाहकारों से इनमें परिवर्तन के बारे में कभी कोई राय नहीं ली। जिन पुस्तकों को लिखने में देश के तमाम अग्रणी राजनीतिशास्त्रियों से गहन परामर्श किया गया, हर तथ्य, हर नुक्ते की कई बार समीक्षा की गई, उन पुस्तकों को एक झटके में कुछ गुमनाम लोगों की समिति द्वारा बिना कारण दिए बदल देना लोकतंत्र की सेहत के बारे में क्या इशारा करता है?
बदलाव की प्रक्रिया के अलावा बदलाव की विषयवस्तु लोकतंत्र के बारे में और भी गहरी चिंता खड़ी करती है। राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों में से जिन हिस्सों को हटा दिया गया है वह सीधे-सीधे सत्तारूढ़ दल और उसकी विचारधारा का प्रतिबिंब है।
कक्षा 10 की पुस्तक से लोकतंत्र और विविधता का वह अध्याय हटा दिया गया है जो श्रीलंका और बेल्जियम का उदाहरण देते हुए यह समझाता था कि अल्पसंख्यकों के साथ जोर-जबरदस्ती करना किसी देश के लिए कितना घातक हो सकता है। 10वीं और 12वीं दोनों की पाठ्यपुस्तकों से जन आंदोलनों वाले अध्याय हटा दिए गए हैं जो लोकतंत्र में चुनावों के इतर होने वाले बदलाव को रेखांकित करते थे। गुजरात दंगों का जिक्र तो हटा दिया गया है, लेकिन सिखों के नरसंहार वाले हिस्से को बनाए रखा गया है। और तो और, एमरजेंसी का औपचारिक वर्णन तो है लेकिन उसके दौरान मानवाधिकारों के हनन और न्यायपालिका तथा मीडिया की शर्मनाक भूमिका वाले हिस्सों को हटा दिया गया है।
इन काट-छांट से यह साफ दिखाई देता है कि आज की सत्ता किन सवालों से घबराई हुई है व किन मुद्दों पर चुप्पी बनाए रखना चाहती है।
यह जरूरी नहीं कि जिन सवालों पर पाठ्यपुस्तकें चुप्पी बनाकर रखें, उन मुद्दों को विद्यार्थी और आम जनता भी भूल जाएं। किसी भी लोकतंत्र में जनता के राजनीतिक विचार राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों के आधार पर नहीं बनते, खासतौर पर उन देशों में जहाँ लोकतंत्र को खत्म किया जा रहा हो, जहाँ सत्ता घबराई हुई हो।
ऐसे देशों में जनता मानकर चलती है कि सत्ता झूठ बोलती है और सच को जानने के अपने तरीके जनता खोज लेती है। इसलिए राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में हुए खिलवाड़ से सत्ताधारी पार्टी और विचारधारा को फायदा मिल पाएगा, यह जरूरी नहीं है। लेकिन यह तो तय है कि इस हरकत से भारतीय लोकतंत्र अपनी और दुनिया की नजर में एक-दो पायदान नीचे गिरा है।