— अरुण कुमार त्रिपाठी —
महात्मा गांधी और डा भीमराव आंबेडकर के मतभेदों पर काफी कुछ लिखा गया है और आगे भी लिखा जाता रहेगा। उन मतभेदों से क्या संदेश निकाला जाएगा और उनका किस प्रकार इस्तेमाल किया जाएगा यह तत्कालीन राजनीति पर निर्भर करता है। यह उन विचारकों और विश्लेषकों पर भी निर्भर करता है जो आधुनिक भारत के इन दो महापुरुषों को अपने अपने कोण से देखते और इस्तेमाल करते हैं। एक कोण तो यह है कि दोनों रेल की दो पटरियों की तरह हैं और उनका मिलन कभी हो ही नहीं सकता। यानी वे भारतीय राजनीति के दो सिरे हैं और उनमें मेल-मिलाप की कोशिश इतिहास के साथ छल ही है। यह नजरिया कभी आंबेडकर को नायक तो गांधी को खलनायक और कभी गांधी को नायक और आंबेडकर को खलनायक बनाता है। धनंजय कीर(डा बाबासाहेब आंबेडकर : जीवन चरित) और अरुंधति राय(एनीहिलेशन आफ कास्ट) के विश्लेषण को लगभग पहले वाली स्थिति में तो अरुण शौरी(वर्शिपिंग फाल्स गाड) वाले नजरिए को दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है। दूसरा नजरिया यह है कि उन्हें मिलाकर सारे मतभेदों को समाप्त मान लिया जाए और उनके राजनीतिक टकराव को अतीत मानकर भावी दिशा दोनों को मिलाकर तय की जाए। तीसरा कोण यह है कि उनके बीच मतभेद थे और उसके कारण देश की राजनीति पर प्रभाव पड़ा। उस प्रभाव के कारण दोनों ने अपने नजरिए में बदलाव किए और उन बदलावों को समझने से ही राष्ट्रनिर्माण की बारीकियाँ समझी जा सकती हैं।
गांधी और आंबेडकर के रिश्तों को समझने के लिए सबसे पहले उनके बीच हुई पहली सीधी मुलाकात का वर्णन आवश्यक हो जाता है। महात्मा गांधी ने पहली बार आंबेडकर से मिलने की इच्छा बंबई में 9 अगस्त 1931 को व्यक्त की। गांधी ने पत्र लिखकर पूछा कि क्या उसी दिन रात आठ बजे उनके पास मिलने का समय है। गांधी ने इस पत्र में लिखा कि आंबेडकर को हमारे यहाँ आना सुविधाजनक न हो तो मैं ही उनके यहाँ आ जाऊँगा। इस पर आंबेडकर ने जवाब भिजवाया कि हम ही रात आठ बजे मिलने आ जाएंगे। लेकिन शाम तक आंबेडकर का बुखार बढ़ गया था और उन्होंने संदेश भिजवाया कि मैं बुखार खत्म होने पर आपसे मिलूँगा। आंबेडकर को ठीक होने में पाँच दिन लग गए और इस तरह 14 अगस्त 1931 को आंबेडकर बंबई के मणिभवन में दोपहर दो बजे अपने नौ सहयोगियों के साथ गांधी से मिलने पहुँचे। गांधी अपने सहयोगियों और आगंतुकों से बातचीत करने में व्यस्त थे। गांधी ने आंबेडकर की ओर मुखातिब होने में कुछ समय लगाया और इस बीच आंबेडकर असहज होने लगे। गांधी ने जब उनकी तरफ ध्यान दिया तो उन्होंने उनसे सीधे प्रश्न ही किया।
गांधीजी : डाक्टर आपका क्या कहना है?
डा. आंबेडकर : आपका क्या कहना है यही सुनने के लिए आपने मुझे बुलाया है इसलिए मैं आ गया हूँ। वही आप मुझे पहले बताइए। अगर कुछ प्रश्न करने हैं तो भी आप पूछ सकते हैं, मैं उसके उत्तर दूँगा।
गांधीजी : (आंबेडकर की ओर तीखी दृष्टि डालकर) मेरे कानों में ऐसी बात पड़ी है कि मेरे और कांग्रेस के खिलाफ आपकी कुछ शिकायतें हैं। मैं अपने बचपन से ही अस्पृश्यता की समस्या पर विचार करता आया हूँ। आपका तो जन्म भी उस समय नहीं हुआ होगा। कांग्रेस के कार्यक्रम में अस्पृश्यता का सवाल शामिल करते हुए मुझे कष्ट उठाने पड़े। (विरोध करनेवालों का कहना था) यह सामाजिक और धार्मिक समस्या होने के कारण कांग्रेस जैसी राजनीतिक संस्था के कार्यक्रम में उसे शामिल नहीं करना चाहिए। इसलिए उस समय मेरा काफी विरोध हुआ। हिंदू-मुसलमानों की समस्या की अपेक्षा अस्पृश्यता निर्मूलन की समस्या को मैं अधिक महत्त्वपूर्ण और आत्मीयता की मानता हूँ। इसलिए अस्पृश्यों के लिए कांग्रेस ने अब तक बीस लाख रुपए खर्च किए हैं। यह सच्चाई होने के बावजूद मेरे और कांग्रेस के खिलाफ आपकी शिकायतें क्यों हैं, यह मुझे मालूम नहीं। इस संदर्भ में आपको कुछ बताना है तो आप मुझे खुले दिल से बता सकते हैं।
डा. आंबेडकर : यह निर्विवाद सत्य है कि जब मेरा जन्म नहीं हुआ था तब से आप यह कार्य करते आ रहे हैं। हममें से बड़े और बूढ़े लोग यही बड़प्पन का मुद्दा कभी कभी सामने लाते हैं। आप मुझसे उम्र में बड़े हैं यह यथार्थ मैं कैसे इनकार कर सकता हूँ? यह बात भी सच है कि आपके आग्रह से ही कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम को स्वीकृति दी। लेकिन औपचारिक स्वीकृति देने के अलावा कांग्रेस ने और कुछ नहीं किया यह मेरी मुख्य शिकायत है। आप कहते हैं कि कांग्रेस ने बीस लाख रुपए अस्पृश्यों के लिए खर्च किए।…………लेकिन मैं आपको साफ साफ कहना चाहता हूँ कि आपके यह सारे रुपए पानी में गए। इतनी बड़ी रकम अगर मुझ जैसे व्यक्ति के हाथ में होती तो उसका उचित रूप में और आत्मीयता से विनियोग करके मैंने अस्पृश्य समाज को बड़ी उत्तेजना दी होती। अगर ऐसा होता तो मैं ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर सकता था कि आप स्वयंस्फूर्त मुझसे मिलते।
आपके कहने के अनुसार कांग्रेस का सदस्य होने के लिए खादी का कपड़ा पहनने जैसी शर्त आपने डाल रखी है, वैसी शर्त आपको अस्पृश्यता निवारण के लिए कांग्रेस का सदस्य बनने वालों पर लगानी चाहिए थी। अस्पृश्यों के बच्चों को अपने घर में विद्यार्थी के रूप में रखूँगा या अपने घर में उन्हें कम से कम सप्ताह में एक दिन भोजन के लिए आमंत्रित करूँगा।….कांग्रेस का कहना है कि अंग्रेज सरकार का हृदय परिवर्तन और चित्तशुद्धि नहीं हुई है। जब तक इस तरह की चित्तशुद्धि नहीं होगी तब तक हम कांग्रेस पर या स्पृश्य हिंदुओं पर भरोसा नहीं करेंगे। हम स्वावलंबन और आत्मविश्वास का आश्रय लेकर अपना मार्ग प्रशस्त करेंगे। आप जैसे महात्मा पर भी हम भरोसा नहीं करेंगे। आज तक का इतिहास इस बात का साक्षी है कि महात्मा दौड़ते आभास जैसे होते हैं। उनकी धूमधाम से धूल तो खूब उड़ती है लेकिन वे समाज के स्तर को ऊँचाई पर नहीं ले जा सकते। कांग्रेस मुझसे और मेरे कार्यों से द्वेष करती है। वह मुझे राष्ट्रविरोधी संबोधित करके हिंदुओं के दिल में मेरे कार्यों के बारे में द्वेष फैलाती है।
आंबेडकर की इस टिप्पणी से माहौल गंभीर हो गया। आंबेडकर का चेहरा लाल हो गया। उन्होंने अपनी आवाज को तेज करके कहा,“गांधीजी, मेरे पास मातृभूमि नहीं है।’’ उनकी इस टिप्पणी से गांधीजी सकपकाए और बीच में ही उन्हें रोक कर बोले, “डाक्टर साहब आपके पास मातृभूमि है। उसकी सेवा किस तरह की जाए वह आपके यहाँ के कार्यों से नहीं, तो गोलमेज परिषद के प्रथम अधिवेशन का जो वृत्तांत मेरे कान में पड़ा है, उससे सिद्ध हो गया है।’’
डा. आंबेडकर : आप कहते हैं कि मेरे पास मातृभूमि है लेकिन मैं फिर कहता हूँ कि मेरे पास मातृभूमि नहीं है। जिस देश में कुत्ता जिस तरह की जिंदगी जीता है उस तरह की हम नहीं गुजार सकते। कुत्तों बिल्लियों को जितनी सुविधाएँ प्राप्त हैं उतनी सुविधाएँ हर्ष के साथ जिस देश में हमें नहीं मिलती हैं, उस भूमि को मेरी जन्मभूमि और उस भूमि के धर्म को अपना धर्म कहने के लिए मैं ही क्या, जिसे इनसानियत का ज्ञान हुआ है और जिसे स्वाभिमान की जरा भी परवाह है, ऐसा कोई भी स्पृश्य तैयार नहीं होगा।….मेरे पास मातृभूमि नहीं है लेकिन सदसद्विवेकबुद्धि है। मैं इस राष्ट्र या राष्ट्रधर्म का उपासक नहीं हूँ लेकिन सदसद्विवेकबुद्धि का मैं अनन्य उपासक हूँ। आपके कहने के अनुसार मेरे हाथ से अगर सचमुच कुछ राष्ट्रसेवा हुई है तो उसका श्रेय मेरे दिल में समाई राष्ट्रभक्ति न होकर, मेरी सदसद्विवेकबुद्धि को है।
डा आंबेडकर : गोलमेज परिषद के पहले अधिवेशन में अस्पृश्यों का अल्पसंख्यकों का अंतर्भाव किया गया है और राजनीतिक दृष्टि से उन्हें मुसलमान, सिख इत्यादि लोगों के साथ स्वतंत्र घटक के रूप में स्वीकार किया गया है। उन्हें सुविधाएँ और आवश्यकतानुसार प्रतिनिधित्व देने की सिफारिश की गई है। हमारे मत के अनुसार वह हमारे कल्याण का है। इस संबंध में आपका क्या मत है?
गांधीजी : अस्पृश्य समाज हिंदू समाज का अभिन्न घटक होने से उसे हिंदुओं से अलग करने के मैं खिलाफ हूँ। उन्हें आरक्षित सीट देने के लिए भी वस्तुतः मैं तैयार नहीं हूँ।
डा आंबेडकर : आपका यह मत प्रत्यक्षतः आपके मुँह से मालूम हुआ, यह अच्छा हुआ। मैं आपसे विदा लेता हूँ।
यह मुलाकात मानो आंबेडकर और गांधीजी की पहली सलामी ही थी। वैसे दूसरे गोलमेज सम्मेलन तक महात्मा गांधी को लगता था कि आंबेडकर हरिजनों के कल्याण के लिए संघर्ष करने वाले कोई ब्राह्मण नेता होंगे।
(धनंजय कीर–डा बाबासाहेब आंबेडकर, जीवन चरित, पृष्ठ 163—166)
(जारी)