मुठभेड़ की बाबत सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश क्या हैं

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सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों एवं गंभीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जाँच के लिए 16 दिशा-निर्देश जारी किये थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इन दिशा-निर्देशों का पालन संपूर्ण, प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिए मानक प्रक्रिया के तौर पर किया जाएगा। दिशा-निर्देशों में मुठभेड़ में हुई मौतों के मामले में अनिवार्य रूप से मजिस्ट्रेट जाँच कराना और बगैर किसी विलंब के पीड़ितों के निकटतम परिजनों को इसकी जानकारी देना शामिल है।

मुठभेड़ के तुरंत बाद, प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए और अपराध जाँच विभाग (सीआईडी) अथवा दूसरे पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा घटना/मुठभेड़ की स्वतंत्र जाँच की जानी चाहिए। यह जाँच मुठभेड़ में शामिल पुलिस टीम के मुखिया से कम से कम एक पद ऊपर के वरिष्ठ अधिकारी की निगरानी में होनी चाहिए।

शीर्ष अदालत ने कहा था कि यदि पीड़ित के परिजनों को ऐसा लगता है कि पुलिस सुप्रीम कोर्ट के द्वारा तय प्रक्रिया का अनुसरण करने में असफल रही है, तो वे संबंधित इलाके के सत्र न्यायाधीश के यहाँ शिकायत कर सकते हैं।

न्यायालय ने मुठभेड़ की घटना के तुरंत बाद ऐसे अधिकारियों को बारी के बगैर (आउट ऑफ टर्न) पदोन्नति या वीरता पुरस्कार दिये जाने को प्रतिबंधित कर दिया था।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान से जीने का अधिकार निहित है। उन्होंने यह भी व्यवस्था दी थी कि पुलिस मुठभेड़ में किसी के मारे जाने से कानून के शासन तथा आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता आहत होती है।

न्यायमूर्ति लोढ़ा ने अपने उस फैसले में कहा था, “अनुच्छेद 21 में निहित गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है और यहाँ तक कि सरकार भी इस अधिकार का हनन नहीं कर सकती। अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त अधिकार एवं संविधान के अन्य प्रावधानों के समान ही कई और संवैधानिक प्रावधान भी निजी स्वतंत्रता, सम्मान और मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं। नागरिकों के जीवन एवं निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ में मौत की घटनाएँ बदस्तूर जारी हैं।”

खंडपीठ ने निम्नांकित दिशा-निर्देश जारी किये थे –

  1. जब कभी पुलिस को आपराधिक गतिविधियों के बारे में कोई खुफिया जानकारी या सुराग मिलता है तो इसे (केस डायरी के रूप में) लिखित या इलेक्ट्रानिक रूप में संक्षिप्त तौर पर रखा जाना चाहिए।, लेकिन उसमें संदिग्ध के ब्योरे अथवा उसकी संभावित गतिविधियों के ठिकाने का जिक्र नहीं किया जाना चाहिए। यदि इसी प्रकार की खुफिया जानकारी अथवा सुराग वरिष्ठ अधिकारी को प्राप्त होता है तो उसे भी इस प्रकार रखा जाना चाहिए कि संदिग्ध की गतिविधि या उसके लोकेशन के बारे में भी किसी को नहीं बताया जाना चाहिए।
  2. कोई खुफिया जानकारी या सुराग मिलने के बाद यदि मुठभेड़ होती है और आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल पुलिस करती है तथा उसमें किसी की जान जाती है तो एक प्राथमिकी दर्ज करायी जानी चाहिए। इसे संहिता की धारा 157 के तहत अदालत को अग्रसारित किया जाना चाहिए और इस क्रम में संहिता की धारा 158 में वर्णित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए।
  3. अपराध जाँच विभाग (सीआईडी) अथवा दूसरे पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा घटना/मुठभेड़ की स्वतंत्र जाँच करायी जाएगी। यह जाँच मुठभेड़ में शामिल पुलिस टीम के प्रमुख से कम से कम एक पद ऊपर के वरिष्ठ अधिकारी की निगरानी में होनी चाहिए।

जाँच टीम कम से कम ये कदम जरूर उठाएगी –

(क) पीड़ित की पहचान के लिए उसकी रंगीन तस्वीर ली जानी चाहिए;

(ख) खून से सनी मिट्टी, बाल, रेशों और धागों सहित साक्ष्य संबंधी सामग्रियों को बरामद करना एवं उन्हें संरक्षित रखना;

(ग) चश्मदीद गवाहों की पहचान करना और उनके पूरे नाम, पते और टेलीफोन नंबर दर्ज करना, मौत से संबंधित उनके बयान दर्ज करना (इनमें मुठभेड़ से जुड़े पुलिसकर्मियों के बयान भी शामिल हैं);

(घ)  मौत का कारण, तरीका, जगह और समय का निर्धारण करना, साथ ही उस खास तरीके का पता करना, जिसके कारण मौत हुई हो सकती है। इसके साथ ही घटनास्थल की भौगोलिक परिस्थितियों का एक रफ स्केच तैयार करना तथा संभव हो तो घटनास्थल का फोटो वीडियो एवं भौतिक साक्ष्य जुटाना;

(ङ) यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मृतक के संपूर्ण फिंगरप्रिंट्स रासायनिक विश्लेषण के लिए भेजे गये हों

(च)  पोस्टमार्टम दो चिकित्सकों द्वारा जिला अस्पताल में कराया जाना चाहिए, जिनमें से एक डॉक्टर उस जिला अस्पताल का प्रभारी/प्रमुख हो। पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी की जाएगी और उसे संरक्षित रखा जाएगा।

(छ) आग्नेयास्त्रों जैसे – बंदूक, प्रक्षेपास्त्र, गोलियों और कारतूस के खोखे आदि के साक्ष्य हासिल करना एवं संरक्षित रखना चाहिए।

(ज) मौत के कारणों का पता लगाया जाना चाहिए, कि क्या यह प्राकृतिक मौत थी, या दुर्घटनात्मक मौत, आत्महत्या अथवा नरसंहार।

  1. पुलिस फायरिंग के कारण होने वाली सभी मौतों के मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 176 के तहत निरपवाद रूप से मजिस्ट्रेट जाँच करायी जानी चाहिए और उसके बाद एक रिपोर्ट उस न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए, जो सीआरपीसी की धारा 190 के तहत अधिकृत हो।
  2. जब तक स्वतंत्र एवं निष्कर्ष जाँच को लेकर गंभीर संदेह न हो, तब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को इन मामलों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि घटना की सूचना परिस्थिति अनुसार, एनएचआरसी या राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) को बिना किसी विलंब के दे दी जानी चाहिए।
  3. घायल अपराधी/पीड़ित को चिकित्सा सहायता और मजिस्ट्रेट या मेडिकल आफिसर के समक्ष दर्ज उसका बयान फिटनेस सर्टिफिकेट के साथ उसे उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  4. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्राथमिकी, डायरी इंट्री, पंचनामा, स्केच आदि को संबंधित अदालत को भेजने में भेजने में विलंब न हो।
  5. घटना की पूरी जाँच के बाद, रिपोर्ट सीआरपीसी की धारा 173 के तहत सक्षम अदालत के पास भेजी जानी चाहिए। जाँच अधिकारी के द्वारा पेश आरोप-पत्र के मुताबिक मुकदमे का निपटारा त्वरित किया जाना चाहिए।
  6. मौत की स्थिति में, कथित अपराधी/पीड़ित के निकटस्थ परिजन को यथाशीघ्र सूचित किया जाना चाहिए।
  7. पुलिस फायरिंग में मौतों की स्थिति में सभी मामलों का छमाही ब्योरा पुलिस महानिदेशक द्वारा एनएचआरसी को भेजा जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि छमाही ब्योरा हर साल क्रमश:जनवरी और जुलाई की 15 तारीख तक एनएचआरसी को मिल जाए। ब्योरा निम्नलिखित प्रारूप में होना चाहिए, जिसमें पोस्टमार्टम, तहकीकात और अनुसंधान रिपोर्ट शामिल हो –

(I)       घटना की तारीख एवं स्थान

(II)      पुलिस स्टेशन, जिला

(III)     मौत के लिए जिम्मेदार परिस्थितियाँ

(क) मुठभेड़ में स्वयं की रक्षा

(ख) गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा भीड़ को हटाने के क्रम में

(ग)  गिरफ्तारी प्रभावित करने के क्रम में

(i) घटना का संक्षिप्त कारक

(ii) आपराधिक मुकदमा नंबर

(iii) जाँच एजेंसी

(iv) मजिस्ट्रेट जाँच/वरिष्ठ अधिकारियों की जाँच के निष्कर्ष

(a) मौत के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के नाम एवं पदों का खुलासा करना।

(b) क्या बल प्रयोग न्यायोचित था और की गयी कार्रवाई कानून-सम्मत थी?

  1. जाँच पूरी होने के बाद यदि ऐसा साक्ष्य प्राप्त होता है जिससे यह प्रतीत होता है कि जिस आग्नेयास्त्र से मृत्यु हुई वह आईपीसी की धारा के तहत अपराध की क्षेणी में आता है, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई तुरंत/शीघ्र की जानी चाहिए और उसे निलंबित कर दिया जाना चाहिए।
  2. पुलिस मुठभेड़ में मारे गये व्यक्ति के आश्रितों को मुआवजा देने की जहाँ तक बात है तो इसके लिए आईपीसी की धारा 357-ए पर अमल किया जाना चाहिए।
  3. संबंधित अधिकारी को अपने हथियार एवं अन्य सामग्रियों की जाँच एजेंसी द्वारा आवश्यकतानुसार फोरेंसिक और बैलिस्टिक विश्लेषण के लिए अपने हथियार एवं अन्य सामग्रियों को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। यह संविधान के अनुच्छेद 20 के तहत प्रदत्त अधिकारों के अनुरूप हो।
  4. घटना की जानकारी पुलिस अधिकारी के परिवार को भी दी जानी चाहिए तथा यदि उसे वकील एवं परामर्शदाता की सेवा की जरूरत हो तो इसका भी प्रस्ताव दिया जाना चाहिए।
  5. घटना के तुरंत बाद संबंधित अधिकारियों को न तो बिना बारी के पदोन्नति दी जानी चाहिए, न ही कोई वीरता पुरस्कार दिया जाना चाहिए। हर हाल में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह पुरस्कार तभी दिया जाए या इसकी सिफारिश तभी की जाए जब संबंधित अधिकारियों की वीरता पर कोई संदेह न हो।
  6. यदि पीड़ित का परिजन यह महसूस करता है कि उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया या स्वतंत्र जाँच में किसी तरह की गड़बड़ी की आशंका हो या उपरोक्त वर्णित किसी भी अधिकारी की निष्पक्षता पर संदेह पैदा होता है, तो वह अधिकार क्षेत्र वाले सत्र न्यायाधीश से शिकायत कर सकता है। इस प्रकार की शिकायत के बाद संबंधित सत्र न्यायाधीश शिकायत के गुणदोष का निर्णय करेगा और शिकायत का निपटारा करेगा।

न्यायालय ने आदेश दिया था कि पुलिस मुठभेड़ में मारे गये और गंभीर रूप से घायलों से जुड़े सभी मामलों में संविधान के अनुच्छेद 141 के प्रावधानों के तहत उपरोक्त मानकों का सख्ती से अनुपालन किया जाना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित प्रत्येक कानून देश की सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी होगा।

प्रस्तुति : कमल सिंह

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