— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
अपने दौर के मशहूर, मारूफ, कलमकार, कलाकार, सियासतदानों अखबारनवीस, कवि, लेखक, पेंटर, पत्थर धातु पर छैनी-हथौड़ा चलाकर मूर्ति गढ़ने वाले शिल्पकार, रंगमंच से रोमांच पैदा करने वालों से लेकर लोक-गवैयों, आल्हा-ऊदल बांचने वाले, किस्सागोई से अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों का जमघट किनके घर पर लगा रहता था, उसकी क्या वजह थी?
डॉ राममनोहर लोहिया का देहावसान हुए लगभग 56 साल हो गए। उन पर एक नई किताब ‘डॉ राममनोहर लोहिया : रचनाकारों की नजर में'( खंड-2 )छप कर आई है। किताब की एक झलक उसके कुछ अंशों को पढ़कर मिल सकती है।
– प्रोफेसर राजकुमार जैन
दुनिया के बेज़ुबान की ज़ुबान था लोहिया
मज़लूमों बेकसों का निगहबान था लोहिया
औलाद था ‘हीरे’ की पर फौलाद बन गया
इंसानियत की जंग का एलान था लोहिया
सीने में समंदर था, बॉंहों में आसमान
एक आदमी के वेश में तूफ़ान था लोहिया
‘करवट नहीं ली मुल्क ने पंद्रह सौ साल से’
इस फिक्र में ताउम्र परेशान था लोहिया
तन्हा सड़क से संसद तक वह चीखता रहा
मरघट-सी चुप कौम पर हैरान था लोहिया
गोवा में गांधी, मिसीसीपी में था लूथर
हिन्दू, ईसाई था, मुसलमान था लोहिया
मजनूं की तरह प्यार वो करता था मुल्क से
हर सांस ‘हिन्दुस्तान-हिन्दुस्तान’ था लोहिया।
– शंकर प्रलामी
बिना पासपोर्ट के विश्व नागरिक बनकर सफर करने तथा पूरी दुनिया को एक रखने का ख्वाब देखने वाले डॉ राममनोहर लोहिया को किसी बाहरी बंदिश में बाँध कर रखना असंभव है।
यूँ तो हिंदुस्तान के इस सोशलिस्ट विचारक पर अनगिनत किताबें, लेख, टीका-टिप्पणी छपी है, सेमिनार, सिंपोजियम, अनेकों विद्यार्थियों को यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की सनद हासिल हुई है और आगे भी बदस्तुर जारी रहेगी।
ऐसे में आईटीएम यूनिवर्सिटी के संस्थापक कुलाधिपति और सोशलिस्ट साथी श्री रमाशंकर सिंह ने लोहिया पर एक नयी किताब संपादित करके “डॉ. राममनोहर लोहिया -रचनाकारों की नज़र में” खण्ड 2 पेश की है।
परिशुद्धता की तलाश में हमेशा अतृप्त रहने वाले रमाशंकर सिंह ने इस किताब के लिए अब तक लिखे गए न जाने कितने पन्नों को पढ़कर, उलट-पलटकर, संपादित कर कुछ को शामिल किया है, जिनकी अपनी हैसियत किसी परिचय की मोहताज नहीं है। नामवर होने के साथ-साथ लोहिया के साथी या अनुयायी के तौर पर उन्होंने लोहिया को बहुत ही बारीक और पैनी नज़र से परखा है। इन रचनाकारों में अधिकतर सियासत से दूर विचारक कवि, लेखक, रंगकर्मी, पत्रकार भी शामिल हैं।
हिंदुस्तान में अब तक जितने भी सियासतदाँ हुए हैं उसमें लोहिया ऐसे थे, जिनके इर्द-गिर्द, उस दौर के सबसे मशहूर, मारूफ, कलमकार, कलाकार, अख़बारनवीस, कवि, लेखक, पेन्टर, पत्थर या धातु पर छैनी हथौड़ा चलाकर मूर्ति गढ़ने वाले शिल्पकार, रंगमंच से रोमांच पैदा करने वालों से लेकर लोक-गवैयों, आल्हा-ऊदल बांचने वाले, किस्सागोई से अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों का जमघट लगा रहता था। इसकी क्या वजह थी?
इस राज़ पर से, इस किताब में हिंदुस्तान के नामी, कवि, पत्रकार, धर्मयुग जैसी पत्रिका के संपादक रहे धर्मवीर भारती ने अपने लेख ‘समता+स्वातंत्र्य+सौंदर्य= लोहिया’ में पर्दा उठाया है। अगर धर्मवीर भारती के केवल इसी लेख को पढ़ लिया जाए तो पता चल जाएगा कि यह तबका लोहिया का दीवाना क्यों था?
हिंदी पट्टी में इलाहाबाद उस दौर में साहित्यकारों का अड्डा था। ‘परिमल’ जैसी साहित्यिक संस्था के साथ जुड़े हुए लेखक जिन्होंने बाद में चलकर साहित्यिक दुनिया में झण्डे गाड़े। उस साहित्यिक मण्डली में लोहिया से मिलने की कितनी तपिश थी उसके कई बेहद रोमांचक किस्से भारती ने पेश किये है।
लोहिया से उम्र में पाँच साल बड़े कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य रामनंदन मिश्र सोशलिस्ट तहरीक की पहली कतार के कद्दावर नेता थे। आज़ादी के आंदोलन में हजारीबाग जेल की ऊँची दीवार को जयप्रकाश नारायण के साथ फांद कर फरार होने वाले नेता सूरज नारायण सिंह भी थे। लोहिया के पिता हीरालाल लोहिया भी साथ में बंदी थे।
8 अगस्त 1942 को गांधीजी, सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा सोशलिस्टों के बीच क्या बातचीत हुई, ख़ास तौर पर लोहिया ने पटेल और गांधी को क्या कहा? अपने इस लेख में इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को क़लमबंद कर उन्होंने आगे आने वाली पीढ़ी को इससे वाकिफ़ करवा दिया।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति तथा लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके श्री नीलम संजीव रेड्डी ने लोहिया के इंतकाल के बाद दिल्ली के लालकिले के पिछवाड़े बनी, बिजली की चिता जो उस समय दिल्ली में भिखारियों, लावारिसों को जलाने के लिए बनी थी, उसमें भस्मीभूत करने के लिए लोहिया का पार्थिव शरीर जब लाया गया, उस समय बाहर खड़े जयप्रकाश नारायण के साथ नीलम संजीव रेड्डी ने कहा कि “जो इंसान सल्तनतों को भस्म करनेे की ताकत रखता था, आज आग ने ही उसे भस्म कर दिया।” रेड्डी के इस अकेले वाक्य ने लोहिया की शख्सियत का जो एहसास कराया, वो हज़ारों पन्नों के लेखन में भी बयान नहीं किया जा सकता था।
जब कभी लोहिया का ज़िक्र होगा तो उनके दो अनुयायियों राजनारायण और मधु लिमये का संदर्भ कहीं न कहीं आएगा ही। राजनारायण जी ने ‘डॉ. लोहिया की चिंतनधारा’ लेख में डॉ. लोहिया के वैचारिक पक्ष के विभिन्न आयामों पर रोशनी डालते हुए विदेश नीति पर जो लिखा, ‘एक और अमरीकी खेमा और दूसरी ओर रूसी खेमा, अपना अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की कशमकश में ये दोनों पुनः विश्व को युद्धाग्नि में झोंक देंगे।’ वह भविष्यवाणी आज रूस और यूक्रेन की जंग से सही साबित हो रही हैं।
कांग्रेस से निकलकर सोशलिस्ट पार्टी बनने पर लोहिया के साथ पहले दौर में जो पढ़े-लिखे दीवाने जुड़े थे, उसमें कृष्णनाथ भी शामिल थे। लोहिया ने जो साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ तथा अंग्रेज़ी में ‘मैनकाइण्ड’ हैदराबाद से निकाली थी उसका सह-संपादन भी इन्होंने किया थाथा। कृष्णनाथ जी मात्र एक विचारक, लेखक या सिद्धांतकार ही नहीं थे, आंदोलनकारी सिपाही भी थे। लोहिया के साथ जन सवालों पर हुए संघर्षों में जेल का बंदी जीवन भी इन्होंने बिताया था। इन्होंने सत्याग्रह, सर्वोदय आंदोलन, सत्याग्रही की जटिलता की गुत्थी को खोलकर लोहिया की सिविल नाफरमानी का खुलासा करते हुए एक सवालिया निशान भी लगाया कि “लोहिया क्रोध की अति की ओर झुके थे। अपने भिक्षु संघ सहित तथा अकेले बुद्ध या लोहिया अक्रोध से क्रोध को जीत सकते है, क्रोध से क्रोध नहीं, अवैर से वैर जीत सकते हैं, वैर से नहीं, सच से झूठ को जीत सकते है, झूठ से नहीं।
प्रो. निर्मलकुमार बोस, आज़ादी की जंग के सिपाही होने के साथ-साथ मुल्क के मशहूर एंथ्रोपॉलजिस्ट मानव शरीर रचना विज्ञानी भी थे। डॉ. लोहिया ने अपनी किताब ‘गिल्टी मेन ऑफ इण्डियास पार्टिशन” में आज़ादी के बाद मुल्क में हिंदू-मुसलमानों के सांप्रदायिक दंगों, जिसमें भयंकर कत्लेआम हुआ था उसका विस्तार से ज़िक्र किया है।
प्रो. बोस ने अपने लेख ‘गांधीजी और लोहिया’ में चश्मदीद गवाह के रूप में तस्दीक करते हुए नोआखली तथा कोलकाता के सांप्रदायिक दंगों, जिसमें भयंकर कत्लेआम हुआ था, ज़िक्र किया है। गांधीजी ने दंगों की आग बुझाने के लिए अपनी ज़िंदगी को दाँव पर लगा दिया। लोहिया ने भी अपनी जान की परवाह किये बिना गांधीजी के साथ, इस हत्याकांड में लगे नौजवानों को जो बंदूक़ें हथगोलों से लैस थे, उन्हें राजी किया कि वे अपने शस्त्र गांधीजी के आगे समर्पण करे।
गणेश मंत्री का लेख “लोहिया : सप्तक्रांति की सीमा” लोहिया के राजनैतिक दर्शन की गहराई से पड़ताल करता हुआ, उनके अनुयायियों और उस संगठन जिसको लोहिया ने बनाया था, उसके विभिन्न आयामों की परतों को बेबाकी से खोलता हुआ दिखाई पड़ता है।
‘धर्मयुग’ के संपादक रह चुके गणेश मंत्री ने कई चर्चित पुस्तकों, रूस-चीन विवाद, मार्क्स, गांधी और समाजवाद तथा विशेष रूप से ‘गोवा मुक्ति संघर्ष’ जैसी किताबें जिसमें लोहिया की पहल तथा संघर्षों का विस्तार से वर्णन किया है, हिंदी में गोवा के मुक्म्मल इतिहास को जानने के लिए यह बहुत ही उपयोगी किताब है। गणेश मंत्री ने अपने लेख में लोहिया द्वारा सप्त क्रांति का जो दर्शन दिया था, उसको गिनवाते हुए उसकी व्यापक व्याख्या करते हुए विशेष रूप से लोहिया की रचना ‘इकॉनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ में विषमता के बुनियादी कारणों की छानबीन की थी।
लोहिया के प्रति अनुयायियों में मसीहा सरीखा विश्वास तथा विरोधियों में खलनायक की तस्वीर थी परंतु लोहिया का यक़ीन था कि “लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद लेकिन किसी दिन सुनेंगे जरूर।” उनकी यह बात अब सच साबित हो रही है।
मधु लिमये की पत्नी होने के कारण चम्पा लिमये को लोहिया को बहुत नज़दीक से देखने और जानने का मौका मिला था। उन्होंने विशेष रूप से भारतीय नारी पर पौराणिक प्रसंगों से लेकर आधुनिक नारी मुक्ति आंदोलन पर लोहिया का क्या नज़रिया था, चर्चा की है। अनेकों मिसालें देकर उन्होंने लोहिया का स्त्री के प्रति विशालता, उसकी कोमलता, त्याग, करुणा, साहस तथा उसके साथ होने वाली गैर-बराबरी पर बिफरना व्यक्त किया है। मर्द और औरत के बीच कैसा रिश्ता हो, इस पर लोहिया के एक वाक्य ने जवाब दे दिया था कि ‘बलात्कार और वायदा खिलाफी को छोड़कर मर्द और औरत का हर रिश्ता जायज है।’ लोहिया ने अपनी निजी जीवन में इस पर अमल करते हुए अपनी मित्र प्रो. रमा मित्रा को लिखे गए खतों में बिना किसी दुराव-छिपाव के ज्यों का त्यों व्यक्त कर दिया था।
रामधारी सिंह दिनकर किसी परिचय के मोहताज नहीं हालाँकि वे मूलतः एक कवि थे। उन्होंने अपने लेख ‘स्वर्गीय लोहिया साहब’ में एक ऐतिहासिक बहस जो उस समय चलती थी कि नेहरू के बाद मुल्क की बागडोर कौन सॅंभालेगा, उसका खुलासा करते हुए लिखा कि हम लोग विश्वासपूर्वक मानते थे इसका बोझ समाजवादियों के कंधों पर आएगा। परंतु इसके सारे नेता शासन की बागडोर सॅंभालने के स्थान पर अलग-अलग राह के राही बन गए। अकेले लोहिया आजीवन विस्फोटक बने रहे। संसद में लोहिया के आते ही तहलका मच गया। दिनकर ने कविता के माध्यम से भी लोहिया के व्यक्तित्व को याद किया।
‘नई सभ्यता का सपना’ के लेखक ओमप्रकाश दीपक 21 वर्ष की आयु में 1948 में राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में बनी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए थे। 1949 में आज़ाद हिंदुस्तान में लोहिया की प्रथम गिरफ़्तारी के वक़्त नेपाल की तानाशाही के खि़लाफ़ प्रदर्शन करते हुए, लोहिया के साथ अपनी पत्नी कमला दीपक के साथ गिरफ़्तार होकर दो महीने की कै़द के अतिरिक्त जुर्माना न दे पाने की एवज में 6 हफ़्ते की अतिरिक्त कै़द की सजा भी इनको मिली थी।
दीपक की प्रतिभा के कारण इन्हें सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय से निकलने वाली अंग्रेज़ी पत्रिका “मैनकाइंड”, साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’, बाद में दिल्ली में ‘जन’ साप्ताहिक तथा जयप्रकाश जी के आदेश पर “एवरीमैंस वीकली” के संपादक मण्डल में वे शामिल रहे। “व्हील ऑफ हिस्ट्री” जैसे लोहिया के ग्रंथ का ‘इतिहास चक्र’ के नाम से अनुवाद भी किया। कहना न होगा, इतने बड़े बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ दीपक जी लोहिया के सत्याग्रह के सिपाही भी हमेशा बने रहे। उन्होंने लोहिया की वैचारिकी को बहुत अच्छे ढंग से समझा और अपने लेखन तथा शिक्षण शिविरों में पारिभाषित भी किया। इन्दूमति केलकर द्वारा लिखित “डॉ. राममनोहर लोहिया : जीवन और दर्शन”, लोहिया की एकमात्र विस्तृत जीवनी है, लोहिया पर लिखी गई अधिकतर किताबों में इसी पुस्तक का सहारा लिया गया है। जयप्रकाश नारायण ने इसके आशीर्वचन में लिखा है : “श्रीमती इंदु केलकर समाजवादी आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्त्ता रही हैं। डॉ. लोहिया से उनका निकट संबंध था, उन्होंने इस पुस्तक में लोहिया के जीवन तथा कार्यों को निष्ठापूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयास किया है … जिन पाठकों को लोहिया से मिलने का अवसर नहीं मिला, वे इस पुस्तक में लोहिया के उथल-पुथल भरे जीवन उनके अत्यंत मौलिक चिंतन की झलक पा सकेंगे।
किताब में शामिल उनका लेख ‘लोहिया का अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन’ लोहिया की सियासत का सबसे विवादास्पद तथा चर्चित अंग था, जिसके कारण लोहिया को अंग्रेज़ी पढ़े लिखे भद्र समाज तथा शासन में बैठे उच्च अधिकारियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों तथा दक्षिण के नेताओं के भयंकर रोष का शिकार होना पड़ा था। लोहिया की भाषा नीति पर प्रकाश डाल रहा है। लोहिया ने लिखा था। “एक चीज़ याद रखना यह सब इसलिए नहीं है कि अंग्रेज़ी विदेशी भाषा है। यह तो है ही लेकिन खाली विदेशी भाषा होने से बात समझ में नहीं आती। विदेशी-भाषा लेकिन उसके साथ ही साथ बड़ा रोग है कि यह सामंती भाषा है। ठाट-बाट की, शान-शौकत की, बड़े लोगों की, धनवानों की, एक प्रतिशत लोगों की सामंती भाषा है और अपने देश पर संस्कृति का यह कोढ़ फूट रहा है – एक तरफ़ सामंती संस्कृति और दूसरी तरफ़ जनता की संस्कृति जो डेढ-दो हज़ार वर्ष से चली आ रही है।”
मध्यप्रदेश के सोशलिस्ट नेता जगदीश जोशी ने अपने ‘खालीपन का गीत : एक संस्मरण’ में रीवा के पास ‘उचेहरा’ गाँव से लोहिया के लगाव का चित्र खींचा है। वह लोहिया की दादी का गाँव था, बचपन में ही माँ का साया उठने के कारण, उनका लालन-पालन दादी ने ही किया था। सतना के स्टेशन पर डॉ. लोहिया की दादी लोहिया से शादी करवाने के लिए किसी लड़की को दिखाने के लिए लाई थी। जोशी जी का अनुमान था कि ऐसा लगता कि जैसे दादी की इच्छा पूरी न कर पाने का खालीपन उनके अंदर रहा।
पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे, एक लोकप्रिय मराठी लेखक, नाटककार, अभिनेता, कथाकार, पटकथा लेखक, गायक, संगीतकार जिनको अनेकों पदवी और पुरस्कारों से नवाजा गया, जिन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध रचना गीतांजलि का मराठी अनुवाद भी किया, उन्होंने ‘लोहिया – एक रसिक तपस्वी’ में “अंग्रेजी हटाओ” का नारा देने वाले डॉ. लोहिया की अंग्रेज़ी की तारीफ़ करते हुए लिखा डॉ. लोहिया अंग्रेज़ी के पण्डित थे। अंग्रेज़ी लिखने या बोलने में व्याकरण की एक छोटी सी गलती भी झट से उनकी समझ में आ जाती थी। वह लिखते हैं : “लोहिया जी में जो कवि है यह मैंने देखा। रंग, रस, गंध, स्पर्श, नाद इनका यह आदमी इतना चहेता होगा इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी।”
(जारी है)