उच्च नैतिक मूल्यों को समर्पित समाजवादी योद्धा मधु लिमये

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

— अर्जुन दानदेथा —

मर्पित समाजवादी नेता और सचेत संसदविद मधु लिमये का जन्म 1 मई, 1922 को हुआ था। वे जीवन भर उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित राजनीति के हामी रहे। जीवन में कभी भी इसमें कोई चूक नहीं की। बेबाक अभिव्यक्ति और तर्कसंगत सारगर्भित बात रखना उनकी खासियत थी। मुझ जैसे समाजवादी कार्यकर्ताओं के लिए वे नेता, पथप्रदर्शक और समाजवादी शिक्षक भी थे। हमलोग दिल्ली प्रवास के दौरान उनसे मुलाकात करना कभी नहीं भूलते थे। उत्तरप्रदेश के साथी छोटेलाल यादव और मैं वेस्टर्न कोर्ट्स स्थित सांसद लाडली मोहन निगम के आवास पर रुकते थे। उसी लाइन में भूतल पर मधु जी का आवास था। वे शाम के वक्त वेस्टर्न के लॉन में मूढ़े लगाकर गाँव की चौपाल की तरह चर्चाएँ करते थे। उनसे मुलाकात करनेवालों में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, पीवी नरसिंह राव सहित कई दिग्गज एवं आम कार्यकर्ता भी होते थे। चर्चाएँ प्रायः देश-दुनिया के तत्कालीन हालात पर केंद्रित होती थीं।

मधु जी ने मात्र 14-15 वर्ष की आयु में स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान उन्हें लंबी जेल की सजा हुई थी। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया था।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी अपने स्थापना काल से ही स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय थी तथा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई हालांकि महात्मा गांधी ने समाजवादियों द्वारा रखे गए परिवर्तनवादी प्रस्ताव एवं नीतियों को स्वीकार नहीं किया था। आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस के भीतर समाजवाद विरोधी खेमे ने यह दबाव बनाना प्रारंभ कर दिया था कि यदि समाजवादियों को कांग्रेस में रहना है तो समाजवाद का परित्याग करना होगा। जब समाजवाद और कांग्रेस दो में से एक को चुनने की परिस्थिति खड़ी हुई तो समाजवादियों ने कांग्रेस का परित्याग करके अलग से समाजवादी पार्टी का गठन किया। मधु जी सक्रिय युवा नेता के रूप में पार्टी का काम करने में जुट गए।

मधु लिमये गोवा मुक्ति आंदोलन के अग्रणी नायक रहे। गोवा पुर्तगालियों के अधीन था और देश की आजादी के बाद भी पराधीनता की पीड़ा भोग रहा था। सोशलिस्ट पार्टी ने गोवा को पुर्तगाली अधीनता से मुक्त कराने के लिए आंदोलन प्रारंभ किया।

गोवा मुक्ति आंदोलन में देश भर से सत्याग्रहियों ने भाग लिया। राजस्थान के सत्याग्रहियों में से एक श्री पन्नालाल यादव उसमें शहीद हुए थे। आंदोलन के नायक मधु लिमये को 12 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई गई जो कि गोवा मुक्ति के बाद भारत सरकार द्वारा वापस ली गई। इस प्रकार मधु जी ने अंग्रेजों, पुर्तगालियों और कांग्रेस राज में जेल की यातना सहन की। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई इमरजेंसी में वे 19 महीने जेल में रहे।

मधु लिमये सन 1964 में बिहार के मुंगेर लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर संसद पहुँचे। उस समय लोकसभा में मुट्ठी भर समाजवादी कांग्रेस के प्रचंड बहुमत के लिए हर समय चुनौती बन जाते थे। मधु जी को संसदीय कार्य संचालन की नियमावली का गहरा ज्ञान था। संसदीय परंपराओं, नियमों एवं तर्कशक्ति के बल पर वे सरकार को प्रायः घेर लेते थे। डॉ. राममनोहर लोहिया भी उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीतकर संसद पहुँचे थे। सोशलिस्ट पार्टी उस समय दलितों, पिछड़ों एवं आदिवासियों के लिए विशेष अवसर अर्थात आरक्षण दिलाने के लिए संघर्षरत थी। सोशलिस्ट दैनंदिन राजकाज में अंग्रेजी के प्रभुत्व एवं प्रयोग के खिलाफ थे। सोशलिस्ट पार्टी के कई नारे देश में गुंजायमान थे उनमें से एक नारा था अंग्रेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा। मधु लिमये संस्कृत, मराठी और अंग्रेजी के विद्वान थे लेकिन पार्टी की नीति एवं उक्त नारे के अनुरूप आचरण करते हुए लोकसभा में हिंदी ही बोलते थे। उनके कई पत्रकार मित्रों का निरंतर आग्रह रहता था कि वे संसद में अंग्रेजी में बोला करें ताकि उन्हें देश और देश के बाहर व्यापक प्रचार कर सकें। लेकिन मधु जी ने उनकी इस बात को नकारते हुए हिंदी में बोलना जारी रखा।

जब कागजात व फाइल अपनी बगल में दबाए हुए मधु जी संसद में प्रवेश करते थे तो सबकी निगाहें उत्सुकता के साथ उनपर टिकी रहती थीं कि आज मधु जी अपने तरकश से कौन सा तीर निकालेंगे और किस मंत्री का सीना छलनी कर देंगे। वे सन 1967 में पुनः मुंगेर से ही निर्वाचित हुए। 1967 के आम चुनाव के कुछ माह बाद ही पार्टी के सबसे बड़े नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का 12 अक्टूबर 1967 को देहावसान हो गया। मधु जी और उनके साथियों पर इस वज्रपात के कारण बड़ी जिम्मेदारी आ गई। मधु जी के नेतृत्व में उस समय के साथियों ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।

संसद में सरकार के कटु आलोचक होने के बावजूद देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए वे सजग थे। निम्न घटना इसका ज्वलंत प्रमाण है :

सन 1970 में बजट सत्र चल रहा था। वित्त मंत्रालय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास था और वे लोकसभा में बजट पेश कर चुकी थीं लेकिन 31 मार्च तक न तो बजट पास हो पाया था और न ही लेखानुदान। 31 मार्च की कार्यवाही शाम 5 बजे समाप्त हो गई, सभी सांसद अपने-अपने घर चले गए। तभी मधु लिमये को खयाल आया कि लेखानुदान पारित हुए बिना कल 1 अप्रैल से केंद्र सरकार के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलेगा, अन्य खर्चों के लिए भी राजकोष से कोई राशि निकालने का अधिकार नहीं रहेगा और देश ठप हो जाएगा।

मधु लिमये तुरंत लोकसभा स्पीकर गुरुदयाल सिंह ढिल्लों के पास पहुँचे। उन्होंने स्पीकर से कहा कि न तो बजट पास हुआ है, न ही लेखानुदान पास हुआ है। ऐसे में कल देश की व्यवस्था चरमरा जाएगी। चिंतित स्पीकर ढिल्लों ने तुरंत प्रधानमंत्री को सूचित किया। पुनः संसद की बैठक बुलाई गई। 8-45 बजे के हिंदी समाचार और 9 बजे के अंग्रेजी समाचार बुलेटिन के जरिए ऑल इंडिया रेडियो पर विशेष बैठक की खबर प्रसारित कराई गई। इतना ही नहीं, लुटियंस दिल्ली में सांसदों के आवासीय इलाकों में माइक लगी गाड़ियों से एलान करवाकर सूचित किया गया कि सांसद तुरंत संसद भवन पहुँचें। रात 12 बजे से पहले संसद की बैठक बुलाकर लेखानुदान पारित करवाया गया। इस प्रकार सजग सांसद मधु लिमये ने वित्तीय संकट से देश को बचा लिया।

मधु जी ने देश और दुनिया को यह दिखा दिया कि संसद के प्लेटफार्म का इस्तेमाल जनहित के लिए कैसे किया जाता है। प्रश्नकाल और शून्यकाल दोनों का उन्होंने बेहतरीन इस्तेमाल किया।

उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे संसद में उठाए जिनमें सी. सुब्रमण्यम से जुड़ा स्टील पार्टनरशिप और अमीचंद प्यारेलाल कांड, मनु भाई शाह से जुड़ा कृत्रिम धागा तथा खादी भंडार के दियासलाई चोरी कांड, सदोबा कान्हो जी पाटिल से जुड़ा जयंती शिपिंग धर्म तेजा कांड व ए.पी.जे. शिपिंग कांड, वित्तमंत्री सचिन चौधरी से जुड़ा विदेशी मुद्रा की चोरी का कांड, राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया से जुड़ा छोटी सादड़ी सोना कांड इत्यादि कई मामले बेहद आक्रामक एवं तर्कसंगत तराके से संसद में उठाकर सरकार को घेरकर भ्रष्टाचार उजागर किया। कांति देसाई से जुड़ा होड़साल कांड, पांडिचेरी लाइंसेंस घोटाला कांड, तुलमोहन राम कांड, प्रधानमंत्री के पुत्र संजय गांधी का मारुति कांड ने तत्कालीन सरकार को बैकफुट पर खड़ा कर दिया था।

मधु जी भ्रष्टाचार के मामले में कभी किसी को बख्शने के लिए तैयार नहीं होते थे। उनके आक्रमण के कारण ही कांग्रेस को अपने तीन बार के लोकसभा सदस्य तुलमोहन राम की संसद सदस्यता समाप्त करनी पड़ गई थी। बाद में तुलमोहन राम को 5 वर्ष की जेल की सजा भी हुई। मधु जी की संसदीय आक्रामकता को देखकर उन्हें कुछ लोग कहा करते थे कि आपका नाम मधु लिमये के बजाय कटु लिमये होना चाहिए।

सोशलिस्ट पार्टी की नीति के अनुरूप उसके नारे संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ को अमली जामा पहनाते हुए मधु जी ने संसदीय दल का नेता पद छोड़कर रामसेवक यादव को नेतापद पर सुशोभित किया। वे निजी जीवन में अत्यंत शालीन और सद्व्यवहारी थे। संसद में कड़े तर्क-वितर्क करके जब वे बाहर निकलते तो विरोधी पार्टी के सांसदों के साथ बैठकर चाय पीते और दोस्ताना व्यवहार करते।

इंदिरा सरकार द्वारा कानून बनाकर लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष बढ़ाने का निर्णय लिया, तो उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित मधु लिमये ने इसका सख्त विरोध किया। इतना ही नहीं, पाँचवीं लोकसभा का पाँचवर्षीय कार्यकाल समाप्त होते ही, नरसिंहगढ़ जेल में बंद मधु लिमये ने तुरंत लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। साथ ही उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी चंपा लिमये को पत्र लिखकर सूचित किया कि वह अविलंब दिल्ली जाकर सरकारी आवास खाली कर दें। उनका पत्र पाकर चंपा लिमये तुरंत दिल्ली पहुँचीं और उन्होंने सरकारी आवास खाली कर दिया। वे सामान सहित सड़क पर खड़ी रहीं। इतने में ही वहाँ से गुजर रहे एक पत्रकार मित्र ने उनको देख लिया और परिस्थिति भाँपते हुए सामान सहित सड़क पर खड़ा होने का कारण पूछा। चंपा जी ने मधु जी द्वारा प्रेषित पत्र का जिक्र कर बताया कि मैं उनका सरकारी आवास खाली कर सामान लाई हूँ। पत्रकार मित्र समाजवादी आंदोलन में काम कर चुके थे और मधु जी तथा चंपा जी को अच्छी तरह जानते थे। वे आग्रहपूर्वक चंपा जी को अपने घर ले गए तथा सामान सहित उनको अपने घर में रहने का प्रबंध किया।

मधु जी पूर्व सांसदों को मिलनेवाली पेंशन के विरोधी थे। उन्होंने कभी कोई पेंशन और सरकारी सुविधा स्वीकार नहीं की।

आपातकाल की जुल्म-ज्यादतियों के विरोध में गैरकांग्रेसी दलों तथा भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी व इमरजेंसी विरोधी कांग्रेसियों चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन, श्रीमती लक्ष्मीकांतम्मा आदि के समूह के एकजुट होने पर केंद्रीय स्तर पर जनता पार्टी नाम की नई पार्टी का गठन किया गया जिसने 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को पराजित कर केंद्र में सरकार गठित की। उस सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने मधु लिमये को कैबिनेट मंत्री बनने का आग्रह किया लेकिन मधु जी ने मंत्री बनने से इनकार कर दिया। अनुनय-विनय के बाद भी नहीं माने तो उनसे अन्य साथी का नाम सुझाने के लिए कहा गया; उनके सुझाने पर पुरुषोत्तम कौशिक को कैबिनेट मंत्री बनाया गया।

मधु लिमये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सांप्रदायिक विचारों के कटु आलोचक थे। जनता पार्टी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की सदस्यता पर यह कहकर एतराज जताया कि सांप्रदायिक संगठन का सदस्य जनता पार्टी का सदस्य नहीं हो सकता। इसे उन्होंने दोहरी सदस्यता कहा।

दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर ही जनता पार्टी का विभाजन हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (सेकुलर) का गठन किया तथा चौधरी चरण सिंह की सरकार बनी जो कि कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद अल्पमत में आने के कारण गिर गई। मधु लिमये 1980 का चुनाव बांका (बिहार) से हार गए तथा उन्होंने चुनावी राजनीति से अपने आपको अलग कर लिया।

आरएसएस के बारे में वे कहते थे कि सरसंघचालक बाला साहब देवरस उनसे मिलने के लिए बंबई स्थित आवास पर आए थे। 1971 में दोबारा और 1977 में तीसरी बार मुलाकात हुई लेकिन उनके विचारों में कोई परिवर्तन या नवीनता नहीं थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रायः मुझ पर हमला करता रहता था तथा अपने मुखपत्र पांचजन्य ऑर्गेनाइजर में इंदिरा गांधी से ज्यादा मेरी आलोचना को स्थान देता था।  

सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद मधु जी निरंतर अध्ययन एवं लेखन में लगे रहे। चूंकि वे पूर्व सांसद को मिलनेवाली पेंशन नहीं लेते थे इसलिए लेखन के जरिए होनेवाली अल्प आय ही उनके जीवनयापन का जरिया बनी। वे जब सांसद थे तब भी सरकारी कैंटीन में ढ़ाई रुपया प्रति थाली का भोजन ग्रहण करते थे। उनके घर में आधुनिक सुख-सुविधा का कोई उपकरण नहीं था। जीवन पर्यंत अपने घर में एयर कंडीशनर नहीं लगवाया। बीमारी के दिनों में अपने निकट मित्रों के आग्रह के बावजूद नहीं लगवाया। उनके घर में कोई निजी चौपहिया वाहन नहीं था। वे दिल्ली में किसी मित्र के दोपहिया वाहन की पिछली सीट पर बैठकर आना-जाना करते थे। कभी-कभी आटो रिक्शा का सहारा लेते थे। संसद में जाना भी संसद की मिनी बस से ही होता था।

मुझे याद है कि हमलोग उनसे मिलने के लिए पंडारा रोड स्थित उनके छोटे-से आवास में जाते थे तो वे मई-जून की तेज गर्मी में भी पंखे के नीचे बैठे होते थे। वे पानी या चाय की ट्रे स्वयं लेकर आते थे। हम कभी लाने का प्रयास करते तो वे मना कर देते थे और कहते थे कि थोड़ा सा उठना-बैठना और चलना मेरे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। सभी प्रकार की सरकारी सहायता और पेंशन को ठुकराकर उन्होंने अपने लिए फकीरी का जीवन चुना और अंतिम साँस तक उस पर कायम रहे। सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से लकदक लुटियंस दिल्ली में वे नॉन कंफर्ट, नॉन कंप्रोमाइजिंग धारा की मिसाल आखिर तक बने रहे। 8 जनवरी, 1995 को वे दुनिया को अलविदा कह गए।

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